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रोहिंग्या शरणार्थी: मदद इंसानियत के नाते होनी चाहिए धर्म के आधार पर नहीं

जो लोग शरणार्थी की पहचान इंसानियत के तकाजे से नहीं बल्कि धार्मिक पहचान के आधार पर कर रहे हैं उनका मकसद अपना स्वार्थ साधना है

Ghulam Rasool Dehlvi

संकट से घिरे रोहिंग्या मुसलमानों के मुद्दे पर म्यांमार की मानवाधिकार के गंभीर उल्लंघन के लिए कड़ी आलोचना हो रही है. जान पड़ता है जैसे म्यांमार में इंसानियत खत्म होने के कगार पर है. औरतों और बच्चों का कत्ल-ए-आम हो रहा है, मासूम बच्चों और बुजुर्गों को पूरी तैयारी के साथ बर्बरता का निशाना बनाया जा रहा है.

ऐसे आड़े वक्त में भारत की सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को देश-बाहर करने की बात कह रही है जिसपर रोहिंग्या के लिए दर्दमंद कई मुस्लिम नेताओं और बुद्धिजीवियों ने सवाल खड़े किए हैं.


ऑल इंडिया उलेमा एंड मसायख बोर्ड (एआईयूएमबी) के संस्थापक-अध्यक्ष सैयद मोहम्मद अशरफ किछौचवी का कहना है कि रोहिंग्या शरणार्थियों ने बड़ी उम्मीद बांध रखी है कि हिंदुस्तान उन्हें शरण देगा और उनके जीवन और गरिमा की रक्षा करेगा इसलिए हिंदुस्तान की हुकूमत को इन मासूम शरणार्थियों की हिफाजत करनी चाहिए.

किछौचवी ने कहा कि भारत एक अमनपसंद मुल्क है और उसने हमेशा दुनिया में अमन कायम करने की कोशिश की है. उनका कहना था कि जैसे पड़ोसी बांग्लादेश ने जुल्म के सताए इन लोगों के लिए इंसानियत के तकाजे से नए दरवाजे खोले हैं उसी तरह भारत को भी रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए.

फ़र्स्टपोस्ट में छपे एक हाल के लेख में कहा गया है कि 'सभी रोहिंग्या को देश-बाहर करने का फैसला मुल्कों के बीच कुछ कानूनों पर कायम सहमति की अनदेखी पर टिका है और ऐसा करना नैतिक रुप से निहायत घटिया है.' लेकिन यहां एक अहम सवाल की अनदेखी की जा रही है.

मुस्लिम मुल्क क्यों नहीं लेते मुस्लिम शरणार्थियों की सुध

पूछा जा सकता है कि आखिर मुस्लिम मुल्क और इस्लामी राष्ट्र आखिर संकट में फंसे रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर दर्दमंदी क्यों नहीं महसूस कर रहे? उन देशों ने अभी तक सीरिया, इराक, लीबिया, सोमालिया और जंग के जद में आए बाकी मुस्लिम देशों के शरणार्थियों को पनाह नहीं दी है जबकि इन देशों की हालत कहीं ज्यादा खराब है.

मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने 2014 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की. इसका शीर्षक था ‘लेफ्ट आऊट इन द कोल्ड.’ इस रिपोर्ट के मुताबिक गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल में सऊदी अरब, बहरीन, कुवैत, कतर, ओमान और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश शामिल हैं लेकिन इन देशों ने आजतक आधिकारिक रुप से एक भी सीरियाई शरणार्थी को पनाह नहीं दी है जबकि सीरिया-संकट के शुरू हुए सात साल हो चुके हैं.

इन मुस्लिम देशों ने, जो दुनिया के सबसे ज्यादा धनी इस्लामी राष्ट्रों में शामिल हैं, मुसलमान आप्रवासियों और शरणार्थियों को वित्तीय सहायता और दान देने की पहल की है. हाल ही में तुर्की ने म्यांमार में जारी हिंसा की चपेट में आकर भागे रोहिंग्या के लिए 10000 टन सहायता सामग्री मुहैया कराने का ऐलान किया है. लेकिन इन मुल्कों में कोई भी शरणार्थियों को अपने देश में रखने को तैयार नहीं. ये मुल्क शरणार्थियों को मान्यता नहीं नहीं दे रहे हैं.

मुस्लिम मुल्कों में अल्पसंख्यकों पर होने वाले जुल्मों पर चुप्पी क्यों?

एक अन्य अहम सवाल है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, मलेशिया, सऊदी अरब, मिस्र और मुस्लिम-जगत के बाकी हिस्सों में जब धार्मिक अल्पसंख्यकों पर जुल्म ढाये जाते हैं तो हिंदुस्तान के मुस्लिम नेता चुप्पी साधे तमाशबीन क्यों बने रहते हैं?

यह भी पढ़ें: रोहिंग्या मुसलमानों को अपने देश में क्यों नहीं रखना चाहता भारत?

भारतीय मुस्लम संगठन जैसे एआईयूएमबी, जमात उल-उलेमा-ए-हिंद (जेयूएच) और जमात-ए-इस्लामी ने भारत सरकार, संयुक्त राष्ट्रसंघ और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों से म्यांमार के रखाइन सूबे में उत्पीड़न का शिकार हो रहे रोहिंग्या मुसलमानों की सहायता करने की अपील करके ठीक किया. लेकिन क्या इन मुस्लिम संगठनों ने वैश्विक ‘उम्माह’ से भी ऐसी अपील जारी की है कि इस बाबत जरुरी कदम उठाये जाएं? आखिर, मुस्लिम मुल्कों खासकर खाड़ी के देशों में रोहिंग्या शरणार्थियों को पनाह क्यों नहीं दी जा रही है?

रोहिंग्या मुसलमानों के कत्ल-ए-आम की खबरों पर गहरी चिंता का इजहार करते हुए जमात-ए-इस्लामी के अध्यक्ष मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी ने संयुक्त राष्ट्रसंघ, ओआईसी और कई मानवाधिकार संगठनों से मांग की है कि वे ‘बर्मा की सरकार पर दबाव डालें कि वह अपने ही देशवासियों की हत्या करना रोके, उनके आने-जाने पर लगी तमाम पाबंदियों को हटाए और उनके सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए काम करे.’ यह बात जमात के मुखपत्र इंडिया टुमॉरो में छपी है.

ठीक इसी तरह, जमात-उल-उलेमा-ए-हिंद (जेयूएच) ने संयुक्त राष्ट्रसंघ से जोर देकर कहा है कि सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाई जाए और उसमें म्यांमार के लिए एक तारीख तय कर दी जाए कि वो उस दिन से रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति अपना नजरिया बदल लेगा. जेयूएच ने यह भी कहा है कि भारत में पनाह खोजने वाले रोहिंग्या मुसलमानों के प्रति यहां की सरकार इंसानियत के नाते दी जा रही मदद की परंपरा से मुंह ना मोड़े. टाइम्स ऑफ इंडिया ने जेयूएच को यह कहते हुए छापा है कि भारत को इस मामले में ‘यूरोपीय यूनियन संघ समेत अन्य विकसित देशों की रीत पर चलना चाहिए.’

लेकिन भारत के ये इस्लामी संगठन उस घड़ी अपना मुंह जरा भी नहीं खोलते जब अन्य कथित मुस्लिम देशों में जारी शासन के उकसावे या वहां के इस्लामी आतंकी जमातों के हाथों ऐसे ही या इससे भी ज्यादा घिनौने करतूत अंजाम दिए जाते हैं.

ऐसे में सवाल उठता है, क्या ये लोग सोचते हैं कि गैर-इस्लामी देशों में रहने वाले मुसलमानों के ही मानवाधिकारों की बात की जाए? मुस्लिम-बहुल देशों में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में कौन बोलेगा? क्या उलेमा और अन्य इस्लामी नेताओं ने उस वक्त निंदा का एक लफ्ज भी कहा जब हजारों मुस्लिम लड़कियों को अगवा करके उन्हें कथित इस्लामिक स्टेट की विचारधारा की पट्टी पढ़ाई गई और उनका बड़ी बेरहमी से शोषण किया गया, उन्हें अल-जेहाद के नाम पर पंगु बनाया गया?

बॉर्डर पार करने के बाद रोहिंग्या शरणार्थियों को मिली खाने की मदद. (रॉयटर्स)

धर्म नहीं इंसानियत के नाते हो मदद

रोहिंग्या शरणार्थियों का मामला निश्चित ही मानवाधिकारों से जुड़ा एक अहम मसला है. भारत सरकार 40 हजार रोहिंग्या मुसलमानों को देश-बाहर करना चाहती है और बेशक यह हिंदुस्तानी की बहुलतावादी सोच के इतिहास के लिहाज से बेहतर नहीं माना जाएगा. पड़ोसी देशों जैसे श्रीलंका, अफगानिस्तान और तिब्बत से आने वाले मजबूर लोगों की मदद करने की भारत की लंबी परंपरा रही है. लेकिन विश्वास उन्हीं पर किया जाना चाहिए और समर्थन उन्हीं को मिलनी चाहिए जिन्होंने अपने पक्ष में बोलने की साख कमाई हो और उसके इसके अधिकार अर्जित किए हों, उन्हें नहीं जो इसके सहारे अपनी सियासी कमाई कर रहे हों.

इससे सिलसिले की सबसे अहम बात यह है कि रोहिंग्या को शरणार्थी होने के कारण मदद दी जानी चाहिए ना कि धर्म के आधार पर. जो लोग शरणार्थी की पहचान इंसानियत के तकाजे से  नहीं बल्कि धार्मिक पहचान के आधार पर कर रहे हैं उनका मकसद अपना स्वार्थ साधना है.

(लेखक शास्त्रीय इस्लामी अध्ययन के विद्वान, संस्कृति-विश्लेषक और मीडिया एंड कम्युनिकेशन स्टडीज के रिसर्चर हैं. लेखक @grdehlvi से ट्वीट करते हैं और उनसे grdehlavi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)