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रोहिंग्या मुसलमान पार्ट 2: तीन देशों ने किया अपनाने से इनकार, कहीं के नहीं रहे शरणार्थी

सीरियाई शरणार्थियों की तस्वीर देखकर दुनिया रोती है मगर रोहिंग्या मुसलमानों पर किसी का ध्यान नहीं है

Ajay Kumar

संपादक की टिप्पणी: भारत में चालीस हजार से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं. हाल ही में भारत सरकार ने उन्हें वापस भेजने का फैसला किया है. तीन किश्तों की इस सीरीज के दूसरे भाग में अजय कुमार बेमुल्क रोहिंग्या मुसलमानों के भारत से रिश्ते की पड़ताल कर रहे हैं.

बर्मा में भारतीयों के जाकर बसने ने स्थानीय लोगों में बहुत नाराजगी पैदा की.


सस्ते मजदूरों की आमद की वजह से बर्मा के लोगों के रहन-सहन का स्तर गिर रहा था. साथ ही बर्मा को बार-बार ये एहसास कराया जा रहा था कि वो अंग्रेजों का गुलाम मुल्क है.

1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ, तब से ही ये कहा जा रहा था कि जापान बर्मा पर हमला करेगा.

जब जापान ने आखिरकार बर्मा पर हमला किया तो स्थानीय लोगों ने जापानी फौज का समर्थन किया. स्थानीय बर्मा नेशनल आर्मी ने भी जापानी सेना के कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश फौज से लोहा लिया. वैसे भी बर्मा नेशनल आर्मी को अंग्रेजों से लड़ने के लिए ही बनाया गया था.

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बर्मा के स्थानीय रखीने समुदाय के लोगों से लोहा लेने के लिए अंग्रेजों ने वहां बसे मुसलमानों को हथियार मुहैया कराए. असल में रखीने समुदाय के लोग जापान के समर्थक थे. इसीलिए उनके बरक्स अंग्रेजों ने अप्रवासी मुसलमानों को खड़ा किया.

जंग के दौरान दोनों ही समुदायों ने एक-दूसरे पर जुल्म ढाए. सांप्रदायिकता की ऊंची दीवार मुसलमानों और रखीने समुदाय के लोगों के बीच इसी दौरान खिंची थी. ये दीवार आज भी कायम है.

भारतीय सेना की मदद से अंग्रेजों ने दूसरे विश्व युद्ध में जापान को हरा दिया. उन्हें बर्मा से खदेड़ दिया गया. 1945 में जापान के आत्मसमर्पण करने के बाद अंग्रेजों ने ब्रिटिश फौजी प्रशासन के जरिए बर्मा पर अपनी हुकूमत चलानी शुरू कर दी.

स्थानीय जातियों के लोग ही माने गए बर्मा के नागरिक

मगर जंग जीतने के बावजूद सियासी वजहों से ब्रिटिश सरकार ने बर्मा नेशनल आर्मी के नेता ऑन्ग सान के खिलाफ युद्ध अपराध का मुकदमा नहीं चलाया. इसके बजाय अंग्रेजों ने ऑन्ग सान से समझौता कर लिया. 27 जनवरी 1947 को बर्मा के नेता ऑन्ग सान और ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली के बीच समझौता हुआ. इस समझौते से बर्मा की आजादी का रास्ता खुल गया.

फरवरी 1947 में ऑन्ग सान ने बर्मा के अल्पसंख्यक समुदाय को भी अपने साथ लाने में कामयाबी हासिल की. उसी दौरान बर्मा का अलग राष्ट्र के तौर पर जन्म हुआ.

बर्मा एक देश के तौर पर कैसे खड़ा हुआ, इस कहानी में रोहिंग्या मुसलमानों का मसला भी छुपा हुआ है. बर्मा की स्थापना की बुनियाद जातिवादी थी. बर्मा के 1948 के संविधान का अनुच्छेद 10 कहता है कि वही लोग बर्मा के नागरिक माने जाएंगे जो स्थानीय जातियों के होंगे.

बर्मा की नागरिकता के 1948 के कानून की धारा 3 के मुताबिक उसे ही बर्मा का नागरिक माना जाएगा जो स्थानीय समुदाय से होगा. जिसके पुरखे 1832 से पहले से बर्मा में रहते आए हों. ये तारीख पहले अंग्रेज-बर्मा युद्ध से पहले की है. यानी बर्मा के नागरिकता के कानून में ही रोहिंग्या मुसलमानो को नागरिक मानने का विकल्प खत्म कर दिया गया है.

हालांकि 1982 में बर्मा के नागरिकता के कानून में बदलाव किया गया. मगर इस बदलाव में भी रोहिंग्या मुसलमानों को देश का नागरिक बनाने की कोई कोशिश नहीं हुई.

1940 के दशक में भारत में मुसलमानों के लिए अलग देश यानी पाकिस्तान बनाने की मांग जोर पकड़ रही थी. उस वक्त अराकान के मुसलमानों के बीच भी इस आंदोलन में शामिल होने की लहर उठी थी. उस वक्त कुछ लोगों ने भारतीय मुस्लिम लीग की तर्ज पर अराकान मुस्लिम बनाई थी.

लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने बर्मा के मुसलमानों का साथ लेने या उनका समर्थन करने से इनकार कर दिया. जिन्ना का कहना था कि वो भारतीय मुसलमानों के नेता हैं, बर्मा के मुसलमानों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं.

तीन देशों के बीच फंस गए रोहिंग्या

इसके बाद अराकान मुस्लिम लीग ने अपने लिए अलग सूबे की मांग लेकर लड़ाई छेड़ दी. इस बगावत को बर्मा की सेना ने कुचल दिया था.

इस दौरान भारी तादाद में बर्मा के मुसलमान भागकर बांग्लादेश आ गए. 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद ये शरणार्थी वापस बर्मा चले गए.

इस भागमभाग के चलते रोहिंग्या मुसलमान अजीबो-गरीब हालात में फंस गए. बांग्लादेश की सरकार उन्हें अपनाने को तैयार नहीं थी. बांग्लादेश के मुताबिक वो बंगाली नहीं थे. वहीं बर्मा की सरकार उन्हें बंगाली कहकर अपनाने से इनकार करती थी.

आज की तारीख में रोहिंग्या मुसलमानों का कोई मुल्क नहीं. वो बेवतन हैं.

हालांकि पिछले कुछ सालों से रोहिंग्या मुसलमान खुद को बर्मा के नागरिक होने का दावा करने लगे हैं. वो बराबरी का अधिकार मांग रहे हैं. वो कहते हैं कि जिस इलाके में वो रहते हैं वो बर्मा के सुल्तान के कब्जे में रहा था.

हालांकि बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर बड़ी बहस छिड़ी हुई है. उनके दावे को कोई मानने को तैयार नहीं. बर्मा की स्थानीय जातियों के लोग कहते हैं कि रोहिंग्या मुसलमान, इतिहास को नए सिरे से लिखने की कोशिश कर रहे हैं.

असल में कई लोग उन्हें रखीने मुसलमानों के साथ जोड़कर देखते हैं. रखीने मुसलमान अंग्रेजों और बर्मा की पहली लड़ाई के पहले से ही बर्मा में रहते आए थे.

बर्मा के मीडिया का एक हिस्सा इसे बौद्ध बनाम मुस्लिम धर्म के चश्मे से भी देखता है. जबकि ये धार्मिक मसला है ही नहीं. रखीने समुदाय के बहुत से लोग मुसलमान हैं. ये एक जातीय मसला है. रोहिंग्या मुसलमानों की अपनी अलग भाषा है. ये जबान इंडो-आर्यन है.

वहीं रखीने समुदाय चीनी-तिब्बती समूह की भाषा अराकानी बोलता है. ये दोनों समुदाय अराकान पर्वत के आर-पार, एक दूसरे से अलग पले-बढ़े हैं.

जातीय हिंसा का सबसे ज्यादा नुकसान रोहिंग्या मुसलमानों को उठाना पड़ा है. इसमें बर्मा की सरकार का भी बड़ा रोल रहा है. सरकार उन्हें बर्मा का नागरिक नहीं मानती. इसीलिए न उन्हें बराबरी का अधिकार मिलता है. न जीने और संपत्ति खरीदने की आजादी हासिल है.

रोहिंग्या मुसलमान लगातार डर के माहौल में जीने को मजबूर हैं. आज बर्मा के रोहिंग्या मुसलमान ऐसे माहौल में रहने को मजबूर हैं, जो इंसानों के सम्मानित जीवन के दर्जे के खिलाफ है. इसके अलावा बर्मा की सेना लगातार उन पर जुल्म ढाती है. वो जातीय हिंसा के शिकार होते हैं.

2012 से बर्मा में रोहिंग्याओं पर हमले जारी

इन हालात में बर्मा के रोहिंग्या मुसलमान बर्मा छोड़कर दूसरे देशों की तरफ भाग रहे हैं. ये हालात 2012 से बने हुए हैं. बड़ी तादाद में रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश और थाईलैंड पहुंचे हैं. क्योंकि इन देशों की सरहदें बर्मा से लगी हुई हैं. ये शरणार्थी अक्सर नावों की मदद से दूसरे देशों तक पहुंचते हैं.

यूं तो दुनिया नाव में सवार होकर भागते शरणार्थियों की तस्वीर देखकर पिघल उठती है मगर रोहिंग्या मुसलमानों की हालत पर किसी का दिल नहीं पसीजता.

पिछले कुछ सालों में बहुत से रोहिंग्या मुसलमान भारत आए हैं. आज करीब चालीस हजार रोहिंग्या मुसलमान भारत में पनाह लिए हुए हैं.

भारत सरकार इन्हें वापस भेजने की तैयारी में है. क्योंकि सरकार इन्हें घुसपैठिया मानती है.