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गौरी लंकेश की हत्या: तो क्या अब मौत पर फैसला भी सुनाएंगे पत्रकार?

किसी भी पत्रकार को पुलिस नहीं बन जाना चाहिए, खास तौर से तब जब कोई सबूत हाथ में न हो

Sreemoy Talukdar

पत्रकार गौरी लंकेश की जघन्य हत्या ने कुछ बेहद परेशान करने वाली बातें उजागर की हैं. गौरी की निर्मम हत्या पर सबसे बड़ा सवाल ये उठना चाहिए था कि क्या भारत वाकई तरक्कीपसंद देश है?

ये सवाल इसलिए उठता है क्योंकि गौरी ने हमेशा ही व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई थी. ऐसी पत्रकार की हत्या से हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल तो उठते हैं. सवाल ये भी है कि आखिर भारत क्यों पत्रकारों के लिए एक बेहद खतरनाक देश है.


गौरी की हत्या के बाद हमें उन पत्रकारों के बारे में भी सोचना चाहिए, जो जान की परवाह किए बगैर सच को उजागर करने का काम करते हैं. खास तौर से वो पत्रकार जो बड़े शहरों या राजधानी से दूर के इलाकों में काम करते हैं. वो पत्रकार जो टीवी चैनलों और स्टूडियो में नहीं दिखाई देते.

प्रशासन पर इस बात का दबाव लगातार बनाया जाना चाहिए कि वो इन पत्रकारों के कातिलों को पकड़ें और सजा दिलवाएं, ताकि गौरी लंकेश और दूसरे पत्रकारों को इंसाफ मिल सके.

मगर पत्रकारों के लिए सबसे जरूरी है कि वो किसी की तरफदारी किए बिना अपना काम करें. वो तथ्यों की गहराई से पड़ताल करें, उन्हें जांच-परखकर ही रिपोर्ट करें. तथ्यों को सच की कसौटी पर कसना जरूरी है. मगर गौरी लंकेश जैसे पत्रकारों के कत्ल के बाद अक्सर पत्रकार जज्बाती हो जाते हैं. ऐसे में कई बार सच को एक खास चश्मे से दिखाने की कोशिश होती है. ऐसा होने पर संतुलिन और निष्पक्ष रिपोर्टिंग नहीं होती है. फिर पत्रकारिता और प्रचार में फर्क नहीं रह जाता.

जब गौरी लंकेश की हत्या हुई तो उसके बाद कई सीनियर और तजुर्बेकार पत्रकारों ने निष्पक्षता को ताक पर रख दिया. ये देखकर बहुत अफसोस हुआ. इन पत्रकारों ने बिना सबूत के इल्जाम लगाए, खास तबके को निशाना बनाया और जानकारी को तोड़-मरोड़कर पेश किया.

गौरी लंकेश की हत्या की जांच शुरू होने से पहले ही कई बुद्धिजीवियों और मीडिया के दिग्गजों ने इस पर फैसला सुना दिया था. उनके बयानों से ऐसा लगा जैसे कि उन्होंने जांच पूरी कर ली है और नतीजे पर पहुंच चुके हैं. उन्होंने इस हत्या के लिए एक खास विचारधारा को जिम्मेदार ठहरा दिया.

कर्नाटक सरकार ने आईजी लेवल के अफसर की अगुवाई में जांच का एलान बाद में किया, कुछ पत्रकारों ने तो इससे काफी पहले ही फैसला सुना दिया था. और अपने फैसले की बुनियाद पर ये पत्रकार एक माहौल बनाने में जुट गए थे.

इन पत्रकारों ने तथ्यों, आंकड़ों और संतुलित रिपोर्टिंग के नियमों को ताक पर रख दिया.

माहौल बनाने में लगे रहे पत्रकार

यूं लगा जैसे इनकी पत्रकारिता के लिए ये बातें गैरजरूरी हैं. उनके लिए एक माहौल बनाना ज्यादा अहम था. जबकि होना तो ये चाहिए था कि पत्रकार माहौल बनाने की सियासत से खुद को अलग रखते.

ऐसे मौके पर हमें दो अमेरिकी पत्रकारों, वाल्टर लिपमैन और चार्ल्स मर्ज की बीसवीं सदी की शुरुआत यानी 1919 में लिखी बातें याद करनी चाहिए. लिपमैन और मर्ज ने न्यूयॉर्क टाइम्स की रूस की क्रांति की रिपोर्टिंग पर सवाल उठाए थे. दोनों ने कहा था कि पत्रकारिता में निष्पक्ष रहना सबसे बुनियादी बात है.

लिपमैन और मर्ज का मानना था कि रूस की क्रांति की रिपोर्टिंग जिस तरह से न्यूयॉर्क टाइम्स ने की, वो निष्पक्ष नहीं कही जा सकती. अखबार ने वो लिखा, जो कुछ खास लोग पढ़ना चाहते थे.

पत्रकारों को हमेशा प्रोपेगैंडा से बचना चाहिए. लेकिन गौरी लंकेश की मौत के बाद पत्रकारिता के कुछ दिग्गजों ने किया वो एकदम अनोखी बात थी. हत्या के लिए तुरंत एक विचारधारा को जिम्मेदार ठहरा दिया गया. इसके बाद तो बस इसी बात को सही साबित करने की होड़ सी लग गई.

हत्या बेहद जघन्य अपराध है. ये मानवाधिकार का सबसे बड़ा उल्लंघन है. इसीलिए इससे जुड़े आरोप भी उसी गंभीरता से लिए जाने चाहिए. बिना तथ्यों के आरोप लगाना ठीक नहीं होता. जज्बाती होकर तो किसी को अपराधी ठहराना खुद में एक जुर्म है. लेकिन एक खास माहौल बनाने के मोहताज कुछ लोग गौरी की हत्या के हवाले से यही काम कर रहे हैं.

लोगों ने कहा कि वो दक्षिणपंथी ताकतों की विरोधी थी, इसलिए ऐसे संगठनों ने ही उनकी हत्या की है. तुरंत ही कुछ पुरानी घटनाओं का हवाला दिया जाने लगा. तर्कशास्त्रियों की हत्या के हवाले से कमोबेश ये साबित कर दिया गया कि गौरी की हत्या में संघ और ऐसी ही हिंदुत्ववादी ताकतों का हाथ है.

हो सकता है कि जांच के बाद ये बात सही साबित हो. लेकिन, कुछ लोगों ने तो गौरी की हत्या के कुछ घंटों के अंदर ही इसका फैसला सुना दिया. तो क्या हम अब से हत्या के किसी भी केस को ऐसे ही सुलझाएंगे जहां लोगों के खयाल की बुनियाद पर फैसला होगा, न कि सबूतों के आधार पर.

कत्ल के पीछे कई गैरजाहिर या छुपी हुई वजहें हो सकती है. हमें नहीं मालूम कि कत्ल के पीछे क्या सोच हो सकती है. हमें नहीं मालूम कि इसमें किसका हाथ होगा या हो सकता है. बहुत से पहलुओं की जांच होनी जरूरी है. मीडिया का ये काम नहीं है कि वो माहौल बनाने के लिए अपने हिसाब से किसी भी पहलू को चुनकर उसका शोर मचाने लगे.

सच्चाई पता लगाने की जिम्मेदारी पुलिस की

सच्चाई का पता लगाने की जिम्मेदारी पुलिस की है. मीडिया को तो प्रशासन से सवाल करना चाहिए, और तब तक करना चाहिए जब तक कि जांच किसी नतीजे पर न पहुंचे. पीड़ित को जब तक इंसाफ न मिले, तब तक मीडिया को प्रशासन की जवाबदेही का सवाल उठाते रहना चाहिए. हत्या की वजहों की तलाश तो तब होनी चाहिए, जब हत्यारे पहचाने जाएं, पकड़े जाएं. लेकिन, कुछ पत्रकारों ने गौरी लंकेश के मामले में इन सभी बातों को ताक पर रख दिया.

इस मौके पर हमें ऐसे पत्रकारों को अमेरिकी राजनेता पैट मोइनिहन की वो बात याद दिलानी चाहिए. पैट ने कहा था कि सब को अपनी राय बनाने का हक है, मगर किसी को तथ्यों से खिलवाड़ का अधिकार नहीं.

अब जबकि पुलिस ने गौरी लंकेश की हत्या की जांच शुरू कर दी है, तो कुछ जानकारियां सामने आई हैं. गौरी के भाई इंद्रजीत ने एनडीटीवी से कहा कि गौरी को नक्सलियों से नफरत भरे ई-मेल और धमकियां आती थीं. असल में गौरी लंकेश, नक्सलियों को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिश कर रही थीं. पुलिस इस पहलू की भी जांच कर रही है.

ये भी पता चला है कि गौरी लंकेश, कर्नाटक के कुछ भ्रष्ट नेताओं और कारोबारियों के रिश्तों का खुलासा करने वाली थीं. ये भी हो सकता है कि ये बात भी उनके लिए जानलेवा साबित हुई हो. कहीं कुछ लोग खुलासे में अपना नाम आने से डर न गए हों.

गौरी के करीबी दोस्तों के हवाले से शांतनु गुहा रे ने फर्स्टपोस्ट में ही लिखा था कि गौरी को इन खतरों का एहसास था. फिर भी वो अपनी खोजी रिपोर्टिंग के मोर्चे पर आगे बढ़ रही थीं. उनका ये खुलासा कर्नाटक में विधानसभा चुनावों के आस-पास ही सामने आने वाला था.

इंडियन एक्सप्रेस ने शुरुआती पड़ताल के हवाले से लिखा कि गौरी की हत्या में जो पिस्तौल इस्तेमाल हुई वो उसी तरह की थी जो दूसरे तर्कशास्त्रियों को मारने में इस्तेमाल हुई थी. अखबार ने लिखा कि ये पिस्तौल आसानी से उपलब्ध है.

वहीं अखबार डेक्कन क्रॉनिकल ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि इस हथियार का नक्सली ज्यादा इस्तेमाल करते हैं. अखबार के मुताबिक, उसने मामले की फोरेंसिक रिपोर्ट देखने वाले सूत्र से बात की है. विक्टोरिया हॉस्पिटल में दो घंटे चले पोस्टमॉर्टम के बाद पता चला कि गौरी को तीन गोलियां लगी थीं.

पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट कहती है कि गोलियों के घाव किसी आम हथियार से हुए घाव जैसे नहीं हैं. इस रिपोर्ट पर यकीन करें तो हत्यारे उस ग्रुप का हिस्सा नहीं थे, जिन्होंने तर्कशास्त्री एम एम कलबुर्गी की हत्या की थी. उन्हें 7.65 एमएम की पिस्तौल से गोली मारी गई थी. डेक्कन क्रॉनिकल ने ये बात आधिकारिक सूत्रों के हवाले से लिखी है.

इन बातों का जिक्र करने का ये मतलब नहीं कि गौरी की हत्या की कोई नई थ्योरी समझाई जाए. बल्कि कहने का मकसद ये है कि किसी भी पत्रकार को पुलिस नहीं बन जाना चाहिए, खास तौर से तब और जब कोई सबूत हाथ में न हो. इन तथ्यों से एक बात तो साफ है कि गौरी की हत्या के कई पहलू हो सकते हैं.

विरोध खास विचारधारा के खिलाफ लड़ाई में बदली

हां कुछ लोग माहौल बनाने के लिए जरूर इसे एक खास चश्मे से देख रहे हैं.

निष्पक्ष रिपोर्टिंग के बजाय कई पत्रकारों ने तो गौरी की हत्या होते ही इसे हिंदू कट्टरपंथियों का काम बता डाला था. जबकि तब तक न तो एफआईआर दर्ज हुई थी और न ही कोई गिरफ्तारी.

लेकिन गौरी की हत्या के खिलाफ देश के अलग-अलग हिस्सों में हुई प्रदर्शन ने सियासी रंग ले लिया था. हालांकि कुछ पत्रकारों ने मामले को सियासी रंग दिए जाने का विरोध किया. गौरी की हत्या से उठी गुस्से की लहर को जहां मीडिया की आजादी की आवाज बनना चाहिए था, वो सियासी शोर में तब्दील हो गई. इसका मकसद केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को निशाना बनाना होकर रह गया.

लड़ाई विरोध के अधिकार की नहीं रही बल्कि ये एक खास विचारधारा की लडा़ई बन गई. तो क्या पत्रकारों को धर्मयोद्धा बन जाना चाहिए? या फिर आज की तारीख में एक खास सियासी स्टैंड लेना पत्रकारिता का नया फैशन बन गया है?

गौरी की हत्या को लेकर उठे शोर ने एक बात और उजागर की है.

हफिंग्टन पोस्ट ने कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (CPJ) की रिपोर्ट के हवाले से लिखा कि 1992 से 2017 के बीच 40 पत्रकारों की हत्या की गई. इनमें से कोई भी अंग्रेजी अखबार के लिए काम नहीं करता था.

लेखक और कॉलमनिगार आनंद रंगनाथन ने ट्विटर पर लिखा कि 2013 से अब तक 22 पत्रकारों की हत्या हुई. इनमें से सिर्फ गौरी ही ऐसी पत्रकार थीं जो अंग्रेजी मीडिया के लिए लिखा करती थीं. बाकी सब पत्रकार क्षेत्रीय भाषाओं के लिए काम कर रहे थे.

साफ है कि हमारा गुस्सा पत्रकारों की एक खास बिरादरी को लेकर ही झलकता है. ये बिल्कुल ही इकतरफा मालूम होता है. हालांकि ये बात बेहद अफसोसनाक है. इससे साफ है कि कुछ पत्रकार इकतरफा रिपोर्टिंग में यकीन रखते हैं. वो एक खास तरह का माहौल बनाने के लिए काम करते हैं.

पत्रकारों की आजादी की बुनियाद उनकी निष्पक्षता है. इसी से वो बिना किसी की तरफदारी किए हुए खुलकर अपनी बात कह पाते हैं. इसी से उनके काम को सम्मान और भरोसा हासिल होता है. गौरी लंकेश की हत्या के बाद अगर हम इन बुनियादी उसूलों पर फिर से अमल कर सकें, तो सबसे अच्छी बात होगी.