view all

तो इन वजहों से दिल्ली होती है प्रदूषित...

पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है. वाहन के अलावा और भी चीजें हैं जिनसे राजधानी प्रदूषित होती है

FP Staff

राजधानी दिल्ली और इसके आसपास के शहर अब तक के सबसे बड़े प्रदूषण संकट से जूझ रहे हैं. इससे निपटने के लिए कागजों में आदेश पर आदेश जारी हो रहे हैं, लेकिन ग्राउंड पर इनका कोई असर नजर नहीं आ रहा. प्रदूषण की जड़ें खोजकर उन्हें काटने की कोशिश नजर नहीं आ रही, ऐसे में क्या ऑड-ईवन फॉर्मूले को इसका स्थायी समाधान माना जा सकता है?

बेहताशा बढ़ते वाहन और पंजाब-हरियाणा में जलाई जा रही पराली तो प्रदूषण के कारण हैं ही, लेकिन इस हालत के लिए सिर्फ इन्हीं को गुनाहगार मानना ठीक नहीं हैं. दिल्ली अपने आसपास के शहरों की गतिविधियों से भी प्रभावित हो रही है. आईए, वाहनों के अलावा उन और कारणों को जानते हैं, जिनकी वजह से प्रदूषण इस कदर बढ़ गया है.


सड़कों की धूल इसलिए है दुश्मन

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), कानपुर की एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में सबसे ज्यादा प्रदूषण सड़कों पर उड़ने वाली धूल से हो रहा है. वाहनों से निकलने वाले धुएं का नंबर तो उसके बाद आता है.

पीएम10 (पीएम यानी पर्टिक्युलेट मैटर, ये हवा में वो पार्टिकल होते हैं जिस वजह से प्रदूषण फैलता है) में सबसे ज्यादा 56 फीसदी योगदान सड़क की धूल का है. जबकि पीएम 2.5 में इसका हिस्सा 38 फीसदी है. नगर निगमों और डेवलपमेंट प्राधिकरणों की कामचोरी से सड़कों पर धूल जमा है.

ग्रीन एनर्जी से कतरा रहे हैं उद्योग

दिल्ली के आसपास गाजियाबाद, फरीदाबाद, गुड़गांव, और नोएडा के उद्योगों में पारंपरिक ईंधनों का इस्तेमाल जारी है. उद्योगपति खर्च बढ़ने का रोना रोकर ग्रीन एनर्जी का इस्तेमाल करने के लिए तैयार नहीं हो रहे. इसके लिए हम औद्योगिक नगरी फरीदाबाद का उदाहरण लेते हैं. यहां 17 हजार उद्योग हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ 210 ही गैस से चल रहे हैं. अडानी गैस के वाइस प्रेसीडेंट (मार्केटिंग) बातिश ढोलकिया के मुताबिक फरनेस ऑयल और पेटकोक के इस्तेमाल पर रोक लगने के बाद भी सिर्फ 40 कंपनियों ने गैस कनेक्शन के लिए आवेदन किया है.

नियमों को ताक पर रखकर निर्माण

-दिल्ली और उसके आसपास नियमों को ताक पर रखकर किए जा रहे निर्माण कार्य से निकलने वाली धूल भी इसके लिए जिम्मेदार है. ज्यादातर जगहों पर धूल से बचाने के लिए ग्रीन नेट नहीं लगाई जाती. उदाहरण के लिए चलते हैं दिल्ली के पास नोएडा ओखला बर्ड सेंचुरी मेट्रो स्टेशन के सामने पिछले छह माह से बन रहे एक अंडरपास के पास. यह सरकारी काम है, लेकिन बिना ग्रीन नेट लगाए मिट्टी की खुदाई हो रही है और निर्माण जारी है. इस रास्ते आने-जाने वाले रोजाना यहां धूल के चैंबर से गुजरते हैं.

टूटी सड़कें बढ़ा रही हैं मुसीबत

-दिल्ली सरकार प्रदूषण कम करने के मकसद से 13 तारीख से वाहनों का ऑड-ईवन फार्मूला लागू करने जा रही है. अच्छी बात है. लेकिन सरकार के नुमाइंदे यह भूल गए कि वह टूटी सड़कें भी सही करवा ली जाएं, जिनसे धूल का गुबार उठता है. मीठापुर से शाहीन बाग आने वाली रोड कई जगहों पर नीचे तक उखड़ गई है. सुबह यह क्षेत्र भी धूल के चैंबर में बदल जाता है.

पेड़ काटे तो गए, लगे कहां पता नहीं

-विकास की दौड़ में पर्यावरण की चिंता को हमने पीछे छोड़ दिया है. दिल्ली के पास गुड़गांव का पिछले एक दशक में तेजी से विकास हुआ है. इस दौड़ में कितने पेड़-पौधों की बलि ली गई, क्या किसी को अंदाजा है. अकेले फरीदाबाद में मेट्रो और सिक्स लेन के लिए करीब 20 हजार पेड़ काट दिए गए, लेकिन उसके बदले पेड़ कहां लगाए सरकार नहीं बता रही है. जबकि एक पेड़ काटने के बदले दो पौधे लगाने का प्रावधान है. पर्यावरणविद् एन. शिवकुमार कहते हैं कि बड़े पैमाने पर पौधे नहीं लगाए गए तो आने वाला समय और कष्टकारी बनने वाला है.

...17 हजार में से सिर्फ एक पौधा बचा था

पौधारोपण इसका बड़ा समाधान है, लेकिन यह सिर्फ दिखावे का नहीं होना चाहिए. आरटीआई कार्यकर्ता अभय जैन ने वन विभाग में एक आरटीआई डालकर पौधारोपण अभियान की मूल्यांकन रिपोर्ट मांगी. इसमें पता चला कि पौधे लगाने के अभियान से या तो कागज हरे हो रहे हैं या फिर अधिकारियों की जेब हरी होती है. आरटीआई के जवाब में पता चला कि 2011 से 2015 तक पौधों के जीवित बचे होने की दर महज 25 फीसदी है. गुड़गांव के कादरपुर और भोंडसी गांवों में लगाए गए 17 हजार पौधों में से सिर्फ एक बचा था.

(न्यूज़18 के लिए ओम प्रकाश की रिपोर्ट)