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दुष्कर्म और हत्या का जश्न: भेड़ियों के समाज में इंसान कहां हैं?

समाज में बढ़ रही यौन हिंसा को सिर्फ कानून के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता

Rakesh Kayasth

दिल्ली एनसीआर उबल रहा है. इंटरनेट और न्यूज़ चैनलों के ज़रिए ख़बर देश के जिन घरों तक पहुंच रही है, वहां हर कोई स्तब्ध है. गुरुग्राम के रायन इंटरनेशनल स्कूल में दुष्कर्म की कोशिश नाकाम होने के बाद बस कंडक्टर ने सात साल के एक बच्चे की गला काटकर हत्या कर दी. घटना से नाराज़ लोग जब प्रदर्शन करने स्कूल के बाहर पहुंचे तो भीड़ बेकाबू हो गई. पुलिस ने लाठियां चलाईं और बदले में भीड़ ने स्कूल के करीब मौजूद शराब की एक दुकान को  आग के हवाले कर दिया.

प्रद्युम्न की मौत कई गंभीर सवाल पूछ रही है. जवाब हमें देना होगा. 


रायन इंटरनेशल स्कूल की घटना को लेकर माहौल गर्म था कि अचानक दिल्ली के और मशहूर पब्लिक स्कूल से ऐसी ही एक और खबर आ गई. स्कूल के चपरासी ने पांच साल की एक बच्ची के साथ दुष्कर्म किया. बच्ची बेहद गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती है.

ये दोनो घटनाएं अपनी तरह की पहली नही हैं और अफसोस इस बात का है कि आखिरी भी नहीं होगी. घटनाओं को लेकर होनेवाली प्रतिक्रियाएं भी वैसी ही हैं, जैसी हर बार होती हैं. आखिरी नतीजा भी वैसा ही होगा जैसा हर बार होता है, यानी कुछ भी नहीं.

प्रद्युम्न की उम्र के बच्चे लगभग हर घर में होते हैं. पांच साल की हर बच्ची बस में बैठकर उसी तरह स्कूल जाती है, जिस तरह दुष्कर्म की शिकार दिल्ली की बच्ची गई थी. ज़ाहिर घटनाएं गहरा डिप्रेशन पैदा करने वाली हैं. लेकिन इस मानसिक स्थिति में भी हम उन सवालों पर सोचना बंद नहीं कर सकते जो इन घटनाओं के बाद उठ रहे हैं.

दिल्ली से सटे हरियाणा स्थित गुरुग्राम के रायन इंटरनेशन स्कूल में प्रद्युम्न मर्डर केस मामले में हरियाणा पुलिस ने बस कंडक्टर अशोक को गिरफ्तार किया है.

सवाल एक नही है बल्कि कई हैं? समाज मे इतनी दरिंदगी आखिर क्यों है? क्या भारतीय समाज मानसिक रूप से सचमुच इतना बीमार है कि उसका इलाज नहीं हो सकती है? अगर इलाज है, तो क्या है? क्या समाज, मीडिया और सरकार इन सवालों को लेकर वाकई उतने गंभीर हैं, जितना उन्हे होना चाहिए?

यौन हिंसा सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला नहीं 

जब दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था,  तब भी देश इसी तरह उबला था. मुझे याद है, कई विदेशी अख़बारों ने भारतीय समाज की मानसिकता को लेकर बहुत गंभीर और तीखी टिप्पणियां की थीं. चीनी अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने भारत को सेक्स के भूखे लोगो का देश बताया था जबकि वॉशिंगटन पोस्ट ने संवेदना शून्य अराजतक समाज कहा था. ये चुभने वाली बाते हैं. लेकिन इनके सच होने से भला कौन इनकार कर सकता है.

क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो भारत में औसतन हर रोज़ 92 रेप केस होते हैं. ये वो मामले हैं, जो पुलिस दर्ज करती है. इससे कई गुना ज्यादा तादाद उन मामलों की है, जहां पीड़ित पक्ष पुलिस के पास जाता ही नहीं है या कई बार पुलिस वाले रिपोर्ट नहीं लिखते. छेड़खानी, यौन हिंसा और बच्चो के साथ आपत्तिजनक व्यवहार अगर इन सबको मिला लें तो मतलब एक ही निकलता है. हम जिस समाज में रहते हैं, वहां हमारे चारों तरफ भेड़िये ही भेड़िये हैं.

सबकुछ देखने के बाद भी अगर हम यह मानते हैं कि रेप या यौन उत्पीड़न सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला है, तो हमें दोबारा सोचने की ज़रूरत है. दुनिया की बेहतर से बेहतर पुलिस इस तरह की घटनाओं को पूरी तरह रोक नहीं सकती. तेज रफ्तार से चलने वाली कानूनी प्रक्रिया पीड़ित पक्ष को कुछ संतोष ज़रूर दे सकती है.

लेकिन कानून के डर से भी ऐसी घटनाओं का रुकने की उम्मीद बेमानी है. निर्भया के उदाहरण से इस बात को समझें. क्या रेप के वाकये रूक गये? एनसीआर के आंकड़ो देखे तो पता चलता है कि ऐसी घटनाएं कतई कम नहीं हुई हैं.

हिंसा को लेकर बेपरवाह समाज

सच ये है कि हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं, जिसमें हिंसा के प्रतिकार को लेकर कोई संकल्प नहीं है. यह वही समाज है, जिसका एक तबका किसी महिला पत्रकार की हत्या पर तालियां बजाता है और उसे कुतिया और वेश्या बताता है. ऐसा समाज अगर किसी घटना पर विचलित भी हो जाए तो क्या होगा? कुछ दुकाने बंद हो जाएंगी, कुछ बसे जली दी जाएंगी, लेकिन बदलेगा कुछ भी नहीं. निर्भया कांड को लेकर दिल्ली में कई दिनों तक हिंसक प्रदर्शन हुए. समाज ने पूरी जिम्मेदारी सरकार पर डाल दी और कुछ दिन के हंगामे के बाद सबकुछ पहले की तरह हो गया.

अगर समाज में ऐसी घटनाओं को रोकने का संकल्प होता तो मानसिकता बदलने की कोशिशें दिखाई देती. एक छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा. दिल्ली में हर शुक्रवार की रात बहुत से नौजवान बिना हेलमेट बाइक लेकर झुंड में निकलते हैं. रास्ते में बिना किसी बात के अनजान लोगो को पीटते हैं और महिलाओं के सरेआम छेड़खानी करते हैं.

दस नौजवानों की भीड़ के बीच फंसे पति-पत्नी को रहम की भीग मांगते हुए मैने अपनी आंखों से देखा है. इन बेलगाम नौजवानों का संबंध एक विशेष समाज है. क्या समाज ने इन नौजवानों को रास्ते पर लाने कुछ किया है? मुझे नहीं लगता कि दिल्ली में ऐसी  घटनाएं रुकी हैं. फिर निर्भया हो प्रद्युम्न  कांड सिर्फ गला फाड़कर सरकार विरोधी नारे लगाने से क्या हल होगा?

समाज और सरकार बराबर दोषी

रेप हिंसा का सबसे विकृत रूप है. यह पीड़ित को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी ऐसा आघात पहुंचाता है कि वह ताउम्र उबर ना पाए.समाज का काम सरकार पर इस बात का दबाव बनाना है कि वह हर तरह की हिंसा से सख्ती से निपटे. हिंसा की घटनाओं को लेकर सरकारों का रवैया हमेशा से सलेक्टिव रहा है. अगर हिंसा किसी ऐसे ताकवर समूह की तरफ से की गई हो, जो वोट बैक है, तो फिर सरकारें लाचार नज़र आती हैं.

मुरथल जैसी  गैंगरेप की घटनाएं इस बात का उदाहरण है. एक दूसरी मिसाल सिरसा में गुरमीत राम रहीम की गिरफ्तारी के दौरान हुई हिंसा है. मुर्दाघर में कई लाशें अब भी पड़ी हैं. समाज को अपनी सरकारों से पूछना चाहिए कि लोगो की जान इतनी सस्ती क्यों है?

जब केंद्र सरकार करदाताओं के अरबो रुपए अपने प्रचार पर खर्च कर सकती हैं, तो थोड़ा सा पैसा महिलाओं और बच्चो की सुरक्षा और समाज में अहिंसा को प्रमोट करने पर भी कर सकती है. आपने चाइल्ड हेल्पलाइन वाले कितने सरकारी विज्ञापन देखे हैं? यौन हिंसा की शिकार महिलाओं को कानूनी, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मदद पहुंचाने वाला कोई सरकारी सेंटर आपने आसपास देखा है?

अहिंसा भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी सभ्य समाज का सबसे बड़ा जीवन मूल्य होना चाहिए. लेकिन अहिंसा के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार कितनी गंभीर है? गांधी की अहिंसा को दरकिनार करके उन्हे सफाई का प्रतीक बनाया जाना बताता है कि इस मामले में सरकार की सोच क्या है.

मेन स्ट्रीम मीडिया से उम्मीद बेमानी

एक और आखिरी बात. जब तक प्रघुम्मन का मामला गर्म होगा, मेन स्ट्रीम मीडिया इसे खूब हवा देगा, फिर अपने हिस्से की टीआरपी बटोरकर आहिस्ता से निकल जाएगा. मीडिया में लंबा समय गुजारने का मेरा अनुभव यही कहता है कि इस तरह की घटनाओं का फॉलोअप नहीं होता है. गोरखपुर के अस्पताल में बच्चो की मौत पर खूब रोना धोना हुआ.

फर्रूखाबाद के सरकारी अस्पताल में  भी बहुत बड़ी तादाद में बच्चे मरे लेकिन वह सीएम आदित्यनाथ का इलाका नहीं था, इसलिए खबर उतनी बड़ी नहीं बनी. अब महाराष्ट्र के नासिक से भी ऐसी ख़बर आ रही है. लेकिन इन ख़बरों का एक सिलसिला बन चुका है, इसलिए मेनस्ट्रीम मीडिया की नासिक की घटना में कोई खास दिलचस्पी नहीं है.

कहने का मतलब यह है कि सिर्फ मीडिया की कवरेज के आधार पर किसी भी घटना की अहमियत को मत आंकिये. स्थायी और सकारात्मक बदलाव की लड़ाई हमेशा धीमी होती है और एक तरह की निरंतरा की मांग करती है. मामला प्रद्युम्न का हो या सरकारी अस्पताल में मरने वाले बच्चो का समाज के एक संवेदशनील नागरिक के रूप में हम अपने स्रोतो से प्रमाणिक जानकारी इकट्ठा करना चाहिए. तथ्यों की ठीक से जांच करके सही बात सोशल मीडिया के ज़रिए लोगो तक पहुंचानी चाहिए. मौजूदा समय की सबसे बड़ी ज़रूरत यही है.