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राजेन्द्र प्रसाद की जन्मतिथि पर विशेष: उनका जीवन, हमारा इतिहास

राजेन्द्र प्रसाद का नाम उन चुनिंदा लोगों में शामिल है जिनका जीवन हमारा इतिहास है.

Rohit Prakash

भारतीय गणराज्य के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद का नाम उन चुनिंदा लोगों में शामिल है जिनका जीवन हमारा इतिहास है. इस तीन दिसंबर को उनके जन्म के 132 बरस पूरे हो गए. उन्हें दुनिया से गए हुए भी 50 से ज्यादा साल हो चुके हैं.

उनकी आत्मकथा जो 1947 में छप कर आई थी, वो उस समय के भारत को जानने का एक अच्छा तरीका है.


इस किताब को लिखने की शुरूआत राजेन्द्र प्रसाद ने सेठ जमनालाल बजाज के घर पर रहते हुए की थी. फिलहाल, खास तौर से मोटरसाइकिल और ऑटो रिक्शा निर्माण में शामिल बजाज ग्रुप बाद की पीढ़ियों को जमनालाल की देन है.

जनवरी 1947 में प्रकाशित उनकी आत्मकथा की भूमिका सरदार वल्लभभाई पटेल ने लिखी थी.

राजेन्द्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल (Source: Getty Images)

पटेल लिखते हैं, 'सन् 1918 के खेड़ा-सत्याग्रह की लड़ाई के दिनों में हम पहली बार मिले थे. उसी समय राजेन्द्र बाबू के प्रति मेरे दिल में आकर्षण उत्पन्न हुआ और हम दोनों के बीच प्रेम की गांठ बंधी. सन् 1905 में बंग-भंग के जमाने से ही राजेन्द्र बाबू पर देशभक्ति का रंग चढ़ने लगा था. सन् 1917 में चंपारण की लड़ाई के समय उन्होंने गांधीजी के कदमों पर चलकर फकीरी अपनाई. उसके बाद उनकी आत्मकथा हमारे देश के पिछले तीस वर्षों के सार्वजनिक जीवन का इतिहास बन जाती है.'

प्रसाद के बारे में महात्मा गांधी का कहना था, 'कम से कम राजेन्द्रबाबू एक ऐसे आदमी हैं, जिन्हें मैं जहर का प्याला दूं तो वह उसे निस्संकोच पी जाएंगे.'

नौकर ने गांधीजी को टरकाया

राजेन्द्र प्रसाद की गांधी से मुलाकात बड़ी नाटकीय रही. कलकत्ते में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक में दोनों मौजूद थे, बल्कि एक-दूसरे के बगल की कुर्सी पर ही बैठे थे. राजेन्द्र प्रसाद आम तौर पर जबरदस्ती आगे बढ़कर किसी से जान-पहचान नहीं करते थे. वे गांधीजी के बारे में कुछ खास जानते भी नहीं थे.

गांधीजी को भी नहीं पता था कि राजेन्द्र प्रसाद बिहार के हैं और अपनी पहली बिहार (चंपारण) यात्रा के दौरान कलकत्ते से पटना जाकर वह उनके यहां ही ठहरने वाले हैं. राजेन्द्र प्रसाद कलकत्ते से जगन्नाथपुरी चले गए और गांधीजी एक किसान नेता के साथ पटना में राजेन्द्र प्रसाद के घर चले आए. वहां एक नौकर के सिवा और कोई नहीं था. नौकर ने समझा कि कोई देहाती मुवक्किल है. उसने गांधी को कोई तवज्जो नहीं दी. गांधी कुछ देर ठहरे. इतने में मजहरुल हक साहब को खबर हुई और वह खुद आकर उनको अपने घर ले गए.

राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज आज के यूपी के अमोढ़ा नाम की जगह से पहले बलिया और फिर बाद में सारन (बिहार) के जीरादेई जा बसे. उनके पिता महादेव सहाय की तीन बेटियां और दो बेटे थे, जिनमे वे सबसे छोटे थे.

उस जमाने के चलन के हिसाब से उनकी शादी पांचवी क्लास में पढ़ने के दौरान हो गई.

अपने विवाह के बारे में बाद में राजेन्द्र बाबू ने लिखा, 'विवाह के 44-45 बरस हो गए होंगे, पर शायद ही सब दिनों के गिनने के बाद भी हम दोनों इतने महीने भी एक साथ रहे हों. पढ़ने का समय पटना, छपरा कलकत्ता में कटा. वकालत के जमाने में कलकत्ते में बराबर अकेला ही रहा और पटने आने पर भी दो-एक ही बार घर के लोग थोड़े दिनों के लिए साथ रहे. असहयोग आरंभ होने के बाद तो घर जाने का समय और भी कम मिला है और घर के लोगों को साथ रखने का न तो सुभीता रहा और न काम के झंझटों में फुरसत रही.'

भारत के पहले राष्ट्रपति

आज लोग उन्हें देश के पहले राष्ट्रपति के तौर पर ज्यादा याद करते हैं, पर वे उससे कहीं ज्यादा हैं.

प्रसाद एक तेज छात्र, बड़े वकील रहे. आंदोलनकारी और राष्ट्रीय नेता तो वे थे ही. वे तीन बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष रहे, भारत के खाद्य एवं कृषि मंत्री और संविधान सभा के अध्यक्ष भी रहे.

अखबारनवीस राजेन्द्र प्रसाद

वे 1918 में पटना से निकलने वाले अंग्रेजी अखबार ‘सर्चलाइट’ के निदेशक मंडल का हिस्सा भी थे.

साल 1920 में सर्चलाइट प्रेस से ही हिन्दी साप्ताहिक ‘देश’ निकलने लगा, जिसके संपादक के रूप में उनका नाम जाता था और बाद में तो वे उसके सर्वेसर्वा ही बन गए.

इन दोनों अखबारों पर उनकी टिप्पणी बड़ी दिलचस्प है, 'असहयोग ने राजनीति को, अंग्रेजी–पढ़े कुछ वकील-बैरिस्टरों और बड़े-बड़े व्यापारियों के अंग्रेजी तरीके से सजे-धजे कमरों से बाहर निकालकर, गांवों के बरगदों के साये के नीचे और गांवों के खेत-खलिहानों तक पहुंचा दिया था. वहां अंग्रेजी का गुजर नहीं था. जो जनता तक पहुंचना चाहता था उसे देशी भाषा की शरण लेनी पड़ती था. इसलिए हम लोगों ने सोचा कि ‘सर्चलाइट’ से ज्यादा उपयोगी ‘देश’ होगा.'

उनका निजी जीवन नहीं था

राजेन्द्र प्रसाद के खत इस बात की गवाही हैं कि उनकी चिंता और सरोकार के केन्द्र में साधारण जनता थी, उनका निजी जीवन नहीं. अपनी बीमारी के बावजूद खाद्य एवं कृषि मंत्री के रूप में 22 सितंबर 1947 को उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा और आस्ट्रेलिया से 5 से 10 लाख टन गेहूं के आयात पर उनकी राय मांगी.

राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू (Source: Getty Images)

राजेन्द्र प्रसाद की मृत्यु के बाद नेहरू ने लिखा, 'उनके राष्ट्रपति के पद पर रहने के बारह सालों का जमाना भारत का अच्छा जमाना गिना जाएगा. इस जमाने में हमने जो कुछ किया, उनकी निगहबानी में किया और शान से किया. हम यदि गलती करते तो वह हमें संभालते थे. यह बारह साल का जमाना तो उनका जमाना समझा जाएगा.'

1921 से 1946 के दौरान अपनी राजनीतिक सक्रियता के दिनों में राजेन्द्र प्रसाद पटना स्थित बिहार विद्यापीठ भवन में रहे. 1962 में राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद उन्होंने उसे ही अपने निवास के रूप में चुना. उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उनका निवास स्थान सुविधाजनक नहीं था तो जय प्रकाश नारायण की पहल पर उनके लिए नया भवन बना. उनकी मृत्यु के बाद उसे ‘राजेन्द्र प्रसाद संग्रहालय’ बना दिया गया. आज बिना किसी आर्थिक सहायता के उनकी स्मृति में बना ये संग्रहालय गिरने की हालत में पहुंच गया है.

बिहार को यह समझना होगा कि इतिहास और विरासत को सहेजने से न सिर्फ पहचान का दावा मजबूत होता है, बल्कि इसके जरिए ही बिहार बौद्धिक दुर्दशा से निकलकर देश के बौद्धिक इतिहास में अपनी हिस्सेदारी बना सकता है. ठहरे हुए अर्थों में नहीं, गतिशील अर्थों में और राजेन्द्र प्रसाद उस गतिशील इतिहास की एक खास नजीर हैं.

इतिहास को लेकर हमारा वर्तमान चाहे जितना भी लापरवाह रहे, लेकिन उसे ये कतई नहीं भूलना चाहिए कि अतीत की कुछ रोशन जिंदगियों ने ही हमारे देश का ‘आज’ गढ़ा है. जब कभी किसी औपचारिकता के बहाने हम उन्हें जानने की सामूहिक गतिविधि में शरीक होते हैं तो हमें ये एहसास होता है कि हम कितने मामूली हैं और हमारा समय कितना औसत, न कोई ‘बड़ा’ बचा है और न किसी तरह का ‘बड़प्पन’.