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नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल का कॉम्बिनेशन बनने की तैयारी में राहुल!

नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल के बाद राहुल गांधी ने भी भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों का समर्थन जुटाने में कोई कसर नहीं उठा रखी है.

Anant Mittal

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अमेरिका दौरे की देश-विदेश में राजनीतिक प्रतिक्रिया तो हो ही रही है मगर उनके दौरे से भारतीय राजनीति में प्रवासी भारतीयों की भूमिका का महत्व फिर उजागर हो रहा है.

उनसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी विदेशों में खट रहे भारतीयों अथवा भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों का समर्थन जुटाने में कोई कसर नहीं उठा रखी है. आप के तो राजनीतिक दल के रूप में उदय और उसके चुनाव कोष को जुटाने में भी प्रवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.


इसी तरह नरेंद्र मोदी को भी 2013 में जब बीजेपी की केंद्रीय चुनाव अभियान समिति का प्रभारी बनाया गया तो वे सबसे पहले विदेशों में बसे गुजरातियों सहित प्रवासी भारतीयों की शरण में ही गए. यह बात दीगर है कि उन्होंने 2014 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने धुआंधार विदेश दौरों में प्रवासी भारतीयों से अपना संपर्क जीवंत बनाए रखा है. प्रवासियों की हालिया सभा को उन्होंने अपने म्यांमां दौरे में संबोधित किया है.

राहुल के दौरे के आयोजन में प्रवासियों का बड़ा हाथ

बहरहाल, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अपने विदेश दौरे के माध्यम से 2019 में प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी को सार्थक जताने की जो कोशिश की है, उसके पीछे प्रवासी भारतीयों का ही हाथ है. उनके इस दौरे के संयोजक सैम पित्रोदा हैं जो गुजराती मूल के ही हैं. वे ओवरसीज कांग्रेस के संयोजक हैं.

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उन्होंने प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में राहुल के पिता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सपनों को अमली जामा पहनाने में बहुत मदद की है. उसके बाद सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सदारत में यूपीए की दस साल चली सरकारों का एजेंडा लागू करने में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही है. अब राहुल गांधी के पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने और साल 2019 के आम चुनाव की रणभेरी बजाने की तैयारी से पहले उनकी परिपक्व नेता की छवि बनाने की मुहिम में पित्रोदा फिर से अगुआ हैं.

बड़ी हस्तियों का रहा दबदबा

पित्रोदा की प्रबुद्ध भारतीय बहुल अमेरिका की सिलिकॉन वैली ही नहीं बल्कि अमेरिकी प्रशासन तथा उसके लॉबी समूहों में भी गहरी पैठ है. इसका सबूत वाशिंगटन में राहुल गांधी की बैठकों और मुलाकातों में मौजूद हस्तियों से मिला.

व्हाइट हाउस में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की दक्षिण एशिया संभाग की प्रमुख लीजा कर्टिस ने सुबह के नाश्ते के दौरान राहुल के साथ चर्चा की. अमेरिका-भारत व्यापार परिषद की ओर से आयोजित कार्यक्रम के दौरान यूएस चेंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष-सीईओ थॉमस जे. डोनोह्यू ने राहुल गांधी और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से भेंट की. गौरतलब है कि डोनोह्यू की सदारत में ही पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका की रक्षा उत्पादन और अन्य सेक्टरों की बड़ी कंपनियों के संचालकों से मुलाकात हुई थी. इस मुलाकात का मकसद मेक इन इंडिया मुहिम के तहत इन निवेशकों को भारत में अपने कारखाने लगाने के लिए प्रोत्साहित करना था.

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राहुल के लिए एक अन्य बैठक का आयोजन रिपब्लिकन रणनीतिकार पुनीत अहलूवालिया और अमेरिकन फॉरेन पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने संयुक्त रूप से किया. इसके अलावा वे थिंक टैंक सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस (सीएपी) के भारतीय-दक्षिण एशियाई विशेषज्ञों के गोलमेज सम्मेलन में भी बोले. डेमोक्रेटिक पार्टी के रूझान वाले इस थिंक टैंक की बैठक में सीएपी प्रमुख नीरा टंडन, भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत रिचर्ड वर्मा और हिलेरी क्लिंटन के शीर्श कैंपेन सलाहकार जॉन पोडेस्टा मौजूद थे.

राहुल की इमेज बिल्डिंग

राहुल इसके अलावा अमेरिका के प्रमुख विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञ प्रोफेसरों और विद्यार्थियों से भी बातचीत करके अपने ‘भोंदू’ होने की छवि को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. इस सिलसिले में बर्कले में उनसे जब सवाल किया गया तो उन्होंने मोदी को अपने से बेहतर वक्ता तो बताया मगर अपनी नकारात्मक छवि बनाने की तोहमत भी उन्हीं पर मढ़ दी. अलबत्ता बैठक के बाद अहलूवालिया का कहना था कि वे सामयिक मुद्दों के प्रति अनजान व्यक्ति प्रतीत नहीं हुए. उनके अनुसार राहुल, मुद्दों को बखूबी समझते हैं. और वे जमीनी हकीकत समझने वाले नेता लगे.

दो हफ्ते लंबे दौरे में राहुल, अमेरिकी प्रशासन, कारोबार और प्रवासी भारतीयों के समूहों में भी अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वे असहिष्णुता और बेरोजगारी को ही भारत की राश्ट्रीय सुरक्षा और विकास के लिए गंभीर चुनौती बता रहे हैं.

प्रवासियों की आर्थिक क्षमता पर होती है नेताओं की नजर

राहुल की प्रवासी भारतीयों के बीच अपनी छवि बनाने की कोशिश का कारण अमेरिकी प्रशासन में उनके रसूख के साथ ही साथ भारत में भी उनका ठोस दखल है. दुनिया भर में मौजूद भारतीय मूल के डॉलर मद में 1,80,000 करोड़पतियों में से अधिकतर अमेरिका और ब्रिटेन में ही हैं. इनकी कुल दौलत 634 अरब डॉलर के बराबर है.

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भारत सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार भारतीय मूल के लगभग सवा दो करोड़ लोग विभिन्न देशों में बसे हैं अथवा कामकाज के लिए वहां हैं. यह लोग सालाना करीब 70 अरब डॉलर यानी चार लाख, बीस हजार करोड़ रूपए भारत में भेजते हैं. यह रकम भारत सरकार के कुल सालाना योजनागत खर्च के 75 फीसद के बराबर है.

प्रवासी भारतीयों की लगातार बढ़ती आर्थिक क्षमता और इतनी भारी संख्या में भेजे गए डॉलर देसी राजनीति में उनके दखल को भी पुष्ट कर रहे हैं. इसकी शुरूआत मोटे तौर पर साल 1991 में भारत सरकार के सामने पेश आए विदेशी मुद्रा के गंभीर संकट को सुलझाने में प्रवासी भारतीयों की सक्रिय और रचनात्मक भूमिका के बाद से ही मानी जा सकती है. उसी के बाद अर्थव्यवस्था को उदार बनाया गया और प्रवासी भारतीयों को भारत में डॉलर जमा करने को प्रोत्साहित किया गया.

बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने किया सबसे ज्यादा प्रयोग

अलबत्ता प्रवासियों का राजनीतिक प्रयोग सबसे ज्यादा खुलकर बीजेपी और आम आदमी पार्टी ने किया. इन दोनों ही दलों ने प्रवासियों के मन में अपनी मातृभूमि के प्रति लगाव का डटकर दोहन किया. प्रवासियों के माध्यम से इन दलों ने देश-विदेश में अपनी छवि चमकाई और दोनों हाथों से चुनाव कोष भी बटोरा.

प्रवासियों के बीच बीजेपी की पैठ बनाने में ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी (ओएफबीजेपी) की प्रमुख भूमिका रही है. संघ के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क में से उपजी (ओएफबीजेपी) यानी बीजेपी के विदेशी मित्रों की यह मंडली विदेशों में मोदी की सभा आयोजित करने में अगुआ रही है.

साल 2014 के आम चुनाव के बाद से यह लोग मोदी के दौरों में अलग-अलग देशों में लगातार उनकी सभा करवाते आ रहे हैं. प्रवासी भारतीयों को महत्व देने की एक वजह उन्हें वोट देने का हक मिल जाना भी है. ऐसे मतदाताओं की संख्या एक करोड़ से अधिक है. इन मतदाताओं का रवैया चूंकि दुनिया देख लेने के बाद वैश्विक होने लगता है इसलिए स्थानीय मुद्दों के बजाए यह लोग नेता की छवि और उसकी क्षमताओं पर ज्यादा ध्यान देते हैं. मोदी, केजरीवाल और अब राहुल के इस प्रवासी बिरादरी का समर्थन बटोरने की गहरी कोशिश की शायद यही वजह है.

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घर-बार छोड़ कमाने के लिए विदेश गए ज्यादातर मर्दों का घर भारत में उन्हीं की कमाई से चलता है, इसलिए वे परिवार के मतदाता सदस्यों के वोट भी प्रभावित कर सकते हैं. केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन की भ्रष्ट्राचार के खिलाफ दिल्ली में छेड़ी गई मुहिम के जमाने से ही बड़े पैमाने पर प्रवासी भारतीयों का जबरदस्त समर्थन मिला है.

इस आंदोलन द्वारा बाद में आप का राजनीतिक चोला ओढ़ लेने के बाद भी प्रवासी बिरादरी ने दिल खोलकर केजरीवाल का समर्थन किया. विभिन्न देशों के प्रवासियों की करीब 30 टीमों ने आप को चुनाव लड़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई. इन लोगों ने चंदा जुटाने से लेकर प्रचार की रणनीति बनाने, उसे ठीक से लागू करने और चुनाव के दिन मतदान केंद्रों पर कार्यकर्ताओं के प्रबंध तक सारी व्यवस्था बनाने और उसे निभाने में सक्रिय भागीदारी की. आप को मिले राजनीतिक चंदे में से एक-चौथाई रकम प्रवासियों की थैली में से ही निकली है.