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प्रदूषण: आस्था और विकास के नाम पर हम अपने शहरों को नर्क बना रहे हैं

मसूरी में दिख रहे साफ आसमान का मतलब साफ हवा हो, जरूरी नहीं

tara kartha

दोगलेपन में आप नेताओं का मुकाबला नहीं कर सकते. पहले इस बात पर गौर कीजिए. आज की तारीख मे दिल्ली इस धरती का सबसे ख़तरनाक शहर है. दिल्ली के मुकाबले खड़ा दूसरा शहर मेक्सिको सिटी है, जहां पर पीएम लेवल यानी पार्टिकुलेट मैटर 825 है. ये पटना के 824 पीएम के कमोबेश बराबर है.

देश के ज्यादातर शहरों में प्रदूषण का यही स्तर है. किसी भी शहर में रहना आपकी सेहत के लिए बेहद नुकसानदेह हो सकता है. सैटेलाइट से ली गई तस्वीरें बताती हैं कि करीब-करीब पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत में भूरे रंग की धुंध छाई हुई है. असल में ये प्रदूषित हवा की परत है, जिसमें कालिख है, धुआं है. और धूल भी मिली है. इसका मतलब ये है कि अगर आप मसूरी में छुट्टी मना रहे हैं और ये सोच रहे हैं कि आप साफ़ हवा में सांस ले रहे हैं, तो ये गलत है. सच तो ये है कि आप सांस के साथ जहरीली हवा अपने अंदर ले रहे हैं.


ये विकास के भारतीय मॉडल का नतीजा है. हम ये भी कह सकते हैं कि इसमें हम विकास के चीन वाले मॉडल का अक्स भी देखते हैं. लेकिन बीजिंग ने तो प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए कुछ सख्त नियम बना डाले हैं.

नतीजा ये कि चीन आज भारत की तरफ इशारा करके कह रहा है कि ये देखो, जो कभी हमें कहा जाता था, वो सबसे प्रदूषित शहर आज तुम्हारी दिल्ली है.

अब राजनेता तो एक-दूसरे पर आरोप लगाने में जुटे हुए हैं. अब तक कोई भी ऐसा फैसला नहीं लिया गया है, जो बुनियादी परेशानी को हल करे. जैसे शहरों का बेतहाशा, बेलगाम विकास. न तो साफ-सुथरी बिजली का इंतजाम हो रहा है. और न ही प्लास्टिक के बढ़ते ढेर को रोकने की कोशिश हो रही है. ये प्लास्टिक सिर्फ थैलियों से नहीं, बल्कि थर्मोकोल की शक्ल में भी हमारे शहरों मे जमा हो रहा है. ये अक्सर मंदिरों में मुफ्त खाना बांटने के लिए इस्तेमाल होता है. फिर पैकेजिंग उद्योग में भी थर्मोकोल का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है. कुल मिलाकर ये फेहरिस्त ऐसी है, जो कहीं खत्म होती नहीं नजर आती.

मंदिरों से निकलने वाला 'पवित्र कचरा' जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है. फोटो सोर्स- रॉयटर्स

गायब होती हरियाली

बहुत बुनियादी स्तर पर सोचें तो हमारे शहरों से हरियाली पूरी तरह से गायब हो रही है. धड़ल्ले से जंगल काटे जा रहे हैं. वूड्स होल रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट  के मुताबिक दस सालों में निकलने वाली खराब हवा यानी 100 अरब टन प्रदूषित कार्बन को जंगलों में रोका जा सकता है. कहने का मतलब ये है कि प्रदूषण को रोकने का सटीक इलाज पेड़ लगाना है. ये काम हमें जल्द से जल्द शुरू कर देना चाहिए.

लेकिन केंद्र हो या राज्यों की सरकारें, कर इसका उल्टा रही हैं. अब 2016 के एक फैसले को ही लीजिए. सरकार ने तय किया कि दिल्ली के लुटियंस जोन में सात नई सरकारी कॉलोनियां बसाई जाएंगी. ये इलाके हैं सरोजिनी नगर, नेताजी नगर, नौरोजी नगर, त्यागराज नगर, श्रीनिवासपुरी, कस्तूरबा नगर और मोहम्मदपुर. इन कॉलोनियों को बनाने में करीब 32 हजार करोड़ रुपए का खर्च आएगा. ये बहुत बड़ी रकम है. इस प्रोजेक्ट का एक बड़ा हिस्सा नेशनल बिल्डिंग्स कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन बनाएगा. बाकी का काम केंद्रीय लोक निर्माण विभाग करेगा.

दिल्ली से गुजरने वाला हर शख्स ये जानता है कि दिल्ली की हर पुरानी सरकारी कॉलोनी में खूब हरियाली दिखती है. ये ब्रिटिश राज की इमारतें हैं. यहां पर आप को ढेर सारे पेड़ मिलेंगे. परिंदों और कीड़ों का आशियाना दिखेगा. पूरा का पूरा इकोसिस्टम है. जो ज़िंदगी से लबरेज़ है. सीपीडबल्यूडी के मुक़ाबले एनबीसीसी का इमारत बनाने का तरीक़ा ज़्यादा बेहतर है.

इसका तरक्की का जो मॉडल है वो मिले-जुले विकास की बात करता है. जिसमें किसी भी इलाके में कारोबारी और रिहाइशी इमारतें बनाई जाती हैं. किसानों को उनकी ज़मीन की बेहतर कीमत भी दी जाती है. यानी ये विभाग अपना खर्च खुद निकालता है. हाल ही में मोती बाग इलाके में एनबीसीसी ने एक शानदार प्रोजेक्ट तैयार किया.

इस प्रोजेक्ट में हालांकि ज्यादातर जमीन इमारतों के लिए इस्तेमाल कर ली गई, लेकिन हरियाली के लिए भी कुछ हिस्सा छोड़ा गया था. हालांकि एनबीसीसी ने ईस्ट किदवई नगर में इमारतों का एक जंगल सा खड़ा कर दिया. इस प्रोजेक्ट को बनाने में इलाके की हरियाली को भी तहस-नहस कर दिया गया था. आज की तारीख में ईस्ट किदवई नगर में बने फ्लैट सबसे ज्यादा प्रदूषित इलाके में बनी रिहाइश हैं. पता नहीं, वहां कौन रहना चाहेगा. आज की तारीख में वेस्ट किदवई नगर और ईस्ट किदवई नगर के बीच फर्क साफ दिखता है.

दिक्कत एनबीसीसी के साथ नहीं, बल्कि इसे दी गई जिम्मेदारी के साथ है. इसे कहा जाता है कि हर वर्ग फुट के हिसाब से इमारत बनाए. कुल मिलाकर इस मॉडल पर बनी इमारतों के नतीजे में ढेर सारी कारें, ढेर सारे मकान, पानी और बिजली की सुविधाओं पर बढ़ता दबाव ही मिलेगा.

खूब कट रहे हैं पेड़

इमारतें बनाने के लिए एनबीसीसी बहुत से पेड़ काट डालता है. इस साल 10 अप्रैल को राज्यसभा में एक लिखित जवाब में उस वक्त के पर्यावरण मंत्री अनिल माधव दवे ने बताया था कि 2014 से विकास के लिए दिल्ली में 15 हजार पेड़ काटे गए हैं. इसमें वो 1700 पेड़ नहीं शामिल हैं, जिन्हें प्रगति मैदान में नया हॉल बनाने के लिए काटा गया. इससे पहले मेट्रो के लिए एक लाख पेड़ काटे गए थे. इस साल के आखिर तक विकास के लिए एक लाख 86 हजार के पेड़ और काटे जा चुके होंगे.

दिल्ली मेट्रो और एनबीसीसी ये दावा करते हैं कि वो पेड़ लगाने को बढ़ावा देते हैं. हालांकि पेड़ों की कटाई के एक मामले की सुनवाई कर रहे दिल्ली हाई कोर्ट को इस दावे पर यकीन नहीं है. हाई कोर्ट ने नगर निगम से पूछा था कि जितने पेड़ लगाए गए, उनमें से कितने बचे. अब तक इस बारे में अदालत को जवाब नहीं मिला है.

कोई पेड़ लगने के साथ ही कार्बन सोखना शुरू नहीं करता. उसे विकसित होने में भी वक्त लगता है. यानी आज पेड़ लगाने से आगे चलकर तो फायदा होगा. मगर अभी हालात नहीं सुधरेंगे. सरकार जहां हजारों की तादाद में पेड़ काट डालती है. वहीं आप का बच्चा दस साल की उम्र तक फेफड़ों की स्थाई बीमारी का शिकार हो चुका होगा.

कोई ये तो नहीं कहता कि दिल्ली का विकास नहीं होना चाहिए. दिक्कत विकास के मॉडल में है. मिसाल के तौर पर एनबीसीसी, कतार में बनने वाले मकानों के मॉडल पर ही काम कर सकता था. इन्हें ही दो या तीन मंजिला बनाया जा सकता था. इससे मौजूदा पेड़ नहीं काटने पड़ते. या फिर एक कॉलोनी सिर्फ कारोबारियों को दी जा सकती थी. जबकि दूसरी रिहाइश के लिए इस्तेमाल होती. इससे भी पेड़ कटने से बच जाते. कुल मिलाकर जब तक हम पर्यावरण के हिसाब से विकास का प्लान नहीं बनाएंगे, तब तक बात बनेगी नहीं. हमारे शहरी विकास मंत्रालय को इसे अपना पहला नियम बनाना चाहिए.

हाई कोर्ट ने हाल ही में एक आदेश से इन नई कॉलोनियों को बनाने पर रोक लगा दी है. दिल्ली का वन विभाग शहर की हरियाली को बचाने में पूरी तरह नाकाम रहा है. सात पुरानी कॉलोनियों को ढहाने के फैसले पर शहरी विकास मंत्रालय को फिर से गौर करना चाहिए. हमें दिल्ली के विकास मॉडल पर फिर से गौर करना होगा. एनबीसीसी को आज सिर्फ राजनैतिक दशा-दिशा की जरूरत है. इसमें काबिल लोगों की कमी नहीं है. सरकार को इसे बस ये बताना है कि लोगों को ढंग से सांस लेने दो.

ट्रैफिक के शोर के बीच घिरा नेताजी नगर यूं लगता है कि एक मॉल है. जिसमें ढेर सारे परिंदे-कीड़े और दूसरे जानवर रहते हैं. पास का एक छोटा सा हरियाली वाला इलाका दिल्ली को जरूरी ऑक्सीजन मुहैया कराता है. लेकिन ये लंबे वक्त तक नहीं रहेगा. इसी साल के आखिर तक ये पेड़ काट डाले जाएंगे. नेताजी नगर की कॉलोनी भी बाकी छह कॉलोनियों के साथ ढहा दी जाएगी. इस कदम के चलते दिल्ली में रहने वाले लोगों के लिए सांस लेना और भी मुश्किल हो जाएगा.

गणित साफ है.

दिल्ली में 2016 में 9 लाख नई गाड़ियां रजिस्टर हुईं. शहर में पहले से ही 88 लाख रजिस्टर्ड वाहन थे. आने वाले बरसों में भी हालात यही रहने वाले हैं. एक कार से साल भर में करीब 4.7 टन कार्बन डाई ऑक्साइड बनती है. एक पेड़ एक साल में 0.024 टन कार्बन डाई ऑक्साइड सोख सकता है.

ऐसे में तेजी से पेड़ लगाने के बजाय हम दोगुनी तेजी से उन्हें काट रहे हैं. इससे प्रदूषण बढ़ रहा है. गर्मी बढ़ रही है. बीमारियां भी बढ़ रही हैं. हाल में हुई कुछ रिसर्च ने चेतावनी दी है कि दिल्ली में तापमान इतना बढ़ जाएगा कि इसे बर्दाश्त करना इंसान के बस की बात नहीं होगी.

अस्पताल भी लगातार बता रहे हैं कि सांस और दिल की बीमारियां बढ़ रही हैं. सरकार सिर्फ प्रदूषण के निगरानी केंद्र बनाने में मसरूफ है. इसके अलावा वो लगातार पेड़ काट रही है. ये हारी हुई लड़ाई है. प्रदूषण से निपटने का सबसे आसान और सस्ता तरीका ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाना है. घास और झा़ड़ियां भी इसमें काफी मददगार हो सकती हैं.

एनबीसीसी और दिल्ली मेट्रो जैसी संस्थाएं ये जरूर कहती हैं कि वो हरियाली को बढ़ावा देती हैं. लेकिन हकीकत इसके उलट ही है.