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दलित पुजारी की नियुक्ति से उभरी राजनीतिक चुनौती

हालांकि इस ऐतिहासिक घड़ी का सूत्रधार संविधान ही है जिसमें सरकारी नौकरियों में दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है

Anant Mittal

देश के धुर दक्षिणी तट पर बसे मलयाली बहुल, कम्युनिस्ट शासित केरल राज्य ने समाज के सबसे उपेक्षित तबके दलित वर्ग के व्यक्ति को सनातनी मंदिर में पुजारी के पद पर नियुक्ति देकर 21वीं सदी में नई परिपाटी डाली है. केरल में मंदिर के गर्भ गृह में दलित पुजारी की उपस्थिति मंदिर प्रवेश की अधिसूचना जारी होने के 81 साल बाद हो पा रही है.

यह अधिसूचना त्रावणकोर रियासत के राजा की आज्ञा थी. दलित पुजारी की नियुक्ति के देश-विदेश में चर्चित हो जाने का कारण यह है कि देश के अनेक अंचलों में सनातन धर्म प्रेरित अनेक मंदिरों में दलितों का प्रवेश आज भी वर्जित है.


केरल के ही पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में मंदिर के पुजारी से प्रसाद मांगने पर आठ साल के बच्चे को पिछले साल पिटाई खानी पड़ी थी. इतना ही नहीं दक्षिण से लेकर उत्तर और पश्चिम से पूरब तक देश के कमोबेश हरेक राज्य में दलितों के जातीय आधार पर उत्पीड़न और उनसे छुआछूत की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं आए दिन सुर्खियों में रहती हैं.

आजादी के 70 साल बाद भी देश की लगभग बीस फीसद आबादी के प्रति इस निष्ठुर भेदभाव के बावजूद वर्तमान अद्वैत सिद्धांती सनातन धर्म के सूत्रधार आदि शंकराचार्य के जन्मना राज्य केरल में से दलित विद्यार्थी को पुजारी बनाया जाना बेशक नई परिपाटी की शुरूआत है.

शंकराचार्य ने भी अछूत गुरू से ही पाई थी शिक्षा 

हालांकि महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि शंकराचार्य ने अद्वैत के सिद्धांत की रोशनी भी अपने किसी अछूत गुरू से ही पाई थी! ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि सनातन धर्म प्रणाली की ओर से संचालित सभी संस्थाओं में अब दलितों को निर्बाध प्रवेश और पूजा आदि का अधिकार मिल जाएगा? ऐसा हालिया घटनाओं के बरअक्स संभव तो नहीं लगता.

अभी पिछले ही साल, पत्रकार से उत्तराखंड के सांसद बने, तरूण विजय को राजधानी देहरादून से लगे चकराता में सिलगुड़ देवता के मंदिर में दलित नेताओं के साथ प्रवेश करने पर अपना सिर फुड़वाना पड़ा था.

सनातन धर्म की अधिशासी संस्थाओं ने भी दलितों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति देने की कोई घोषणा नहीं की है. मगर लोकतंत्र में घोषणाओं से ज्यादा महत्व आचार-व्यवहार का है. इसलिए केरल में यह नई लकीर पड़ने के बाद दलितों से मंदिर प्रवेश में भेदभाव खत्म होने की आशा करना निरर्थक भी नहीं है.

बहरहाल इन दलित पुजारी का नाम यदुकृष्णन है. इन्होंने संस्कृत और तंत्र विद्या में पूरे दस साल लंबी पढ़ाई-लिखाई की है. इनकी उम्र अभी मात्र 22 वर्ष है और संस्कृत में एम.ए. की पढ़ाई-लिखाई अभी जारी है. यदु की तरह अन्य पांच दलित पुजारी भी मंदिरों में पूजा-पाठ के लिए चुने गए हैं.

इन छह दलित पुजारियों समेत कुल 36 गैर-ब्राह्मण युवकों को त्रावणकोर देवास्वम बोर्ड ने हाल में अपने ओर से संचालित विभिन्न मंदिरों में पूजा-पाठ की रस्मों को निभाने और अन्य संबद्ध कामकाज के लिए चुना है. त्रावणकोर देवास्वम बोर्ड के तहत राज्य में 1248 मंदिरों का प्रबंध है.

महिलाएं जीत चुकी हैं यह लड़ाई 

इनमें सबसे मशहूर और गहरी आस्था का प्रतीक पश्चिमी घाट की पहाड़ी पर बसा भगवान अयप्पा का सबरीमाला मंदिर है. विडंबना यह है कि सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश पर रोक संबंधी गैर-बराबरी के खिलाफ राज्य में आंदोलन अब भी चल रहा है. इस हक को पाने के लिए महिला संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा भी दायर कर रखा है.

शनि शिंगणापुर मंदिर और हाजी अली दरगाह में प्रवेश पाने की लड़ाई महिलाएं जीत चुकी हैं. सबरीमाला में प्रवेश संबंधी याचिका हालांकि केरल हाईकोर्ट 1990 में परंपरा का हवाला देकर ठुकरा चुका है.

त्रावणकोर देवास्वम बोर्ड की दलील है कि अयप्पा चूंकि नैश्ठिक ब्रह्मचारी हैं इसलिए दस से पचास साल के बीच उम्र की महिलाओं को मंदिर में नहीं घुसने दिया जा सकता.

उम्र के इस दौर में स्त्रियां चूंकि रजस्वला होती हैं इसलिए बोर्ड के अनुसार मंदिर में उनके प्रवेश से ब्रह्मचारी अयप्पा की मर्यादा भंग हो जाएगी. सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि इन दलीलों को संवैधानिक लैंगिक समानता के प्रावधान के सामने पहली नजर में बेबुनियाद पाया है मगर अंतिम निर्णय बाकी है. इस लैंगिक भेदभाव के बावजूद त्रावणकोर देवास्वम बोर्ड ने अपने मंदिरों में कम से कम जातीय भेदभाव तो खत्म कर दिया.

पुजारी यदु के माता-पिता दिहाड़ी मजदूर हैं 

मूलतः पुलय अनुसूचित जाति से होने के बावजूद पुजारी बने यदु के मां लीला और पिता पी. के. रवि दिहाड़ी मजदूर हैं. वे त्रिशूर जिले के कोराट्टी गांव के निवासी हैं. यदु ने 15 साल की उम्र से ही अपने घर के पास वाले मंदिर में पूजा-पाठ में शामिल होना शुरू कर दिया था मगर वे पुजारी अब बन पाए हैं.

यदु को पत्तनमथित्ता जिले में तिरूवल्ला स्थित मणप्पुरम भगवान शिव मंदिर में पूजा-पाठ में लगाया गया है. बोर्ड ने हालांकि यह नियुक्ति सरकारी नौकरियों में दलितों को आरक्षण के प्रावधान के अनुरूप की है मगर इसे समतामूलक समाज की स्थापना की दिशा में महत्वपूर्ण शुरूआत माना जा रहा है.

सनातनी मंदिर में किसी दलित के पुजारी बनने की हालांकि देश में यह पहली घटना नहीं है. कभी सांप्रदायिक वैमनस्य के लिए कुख्यात हुए गुजरात के अहमदाबाद जिले के झंझारका कस्बे में स्थित सनातनी श्रीकृष्ण मंदिर के पुजारी दलित ही हैं. इतना ही नहीं मंदिर के भक्त उन्हें बाइज्जत महाराज बलदेवदास जी कह कर पुकारते हैं.

यह, वही गुजरात है जिसे पिछले साल दलितों की अगड़े युवकों द्वारा बेल्ट से पिटाई का वीडियो वायरल होने पर जातीय भेदभाव का गढ़ कहा गया. हालांकि इसी गुजरात की धरती पर मोहनदास करमचंद गांधी भी पैदा हुए थे जो बाद में सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों अहिंसा और सत्याग्रह पर अमल के कारण महात्मा और राष्ट्रपिता कहलाए.

यदु के अनुसार वे इससे पहले अर्नाकुलम जिले के वालियकुलंगर देवी मंदिर में भी पूजा-पाठ में हाथ बंटा चुके हैं मगर वहां किसी ने भी उनसे कभी भेदभाव नहीं किया. इसके बजाए वे अपनी नियुक्ति होने पर जब वहां से मणप्पुरम के लिए रवाना हुए तो जातपात निरपेक्ष अनेक भक्त उनसे मिलने आए और उन्हें विदा करते हुए भावुक हो गए. यदु के गुरू हैं के. के. अनिरूद्धन तंत्री और मंदिर के मुख्य पुजारी गोपकुमार नंबूदिरी हैं जो मंत्रोच्चार के बीच उन्हें गर्भगृह में उनकी नौकरी शुरू कराने लेकर गए.

संविधान ने दिया समाज को यह मौका 

केरल की सनातनी संस्था केरल हिंदू ऐक्य वेदी के महासचिव ई.एस. बिजू भी इसका समर्थन करते दिखते हैं. उनके अनुसार दलित पुजारियों की बात होने पर पहले इसका विरोध होता था मगर अब लोगों की मानसिकता बदल रही है. अलबत्ता उन्होंने चेतावनी भी दी है कि पुजारी को पूजा-पाठ के रिवाज का भलीभांति ज्ञान होना चाहिए और वे मर्यादित जीवन जिएं.

यूपी के सहारनपुर में दलितों और ठाकुरों के बीच पिछले दिनों हुए दंगों से समाज में घटती समरसता और जातीय वैमनस्य का रूप सबने देखा था. ऐसे में दलित यदु का सनातनी मंदिर में पूजा-पाठ करना, चिंता एवं निराशा के बीच निश्चित ही उम्मीद भरा पैगाम है.

हालांकि इस ऐतिहासिक घड़ी का सूत्रधार हमारा संविधान ही है जिसमें सरकारी नौकरियों में दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है. इसके बावजूद कम्युनिस्ट शासित राज्य केरल में दलित पुजारी का सनातनी मंदिर में पूजा-पाठ देश के अन्य राज्यों में दीगर दलों की सरकारों के लिए बड़ी चुनौती है. खासकर तब, जबकि केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा वहां अपनी पैठ बढ़ाने का बड़ा दाव खेल रही है.

साल 2014 के आम चुनाव और फिर यूपी के विधानसभा चुनाव में भी शहरी और युवा दलितों ने मायावती का साथ छोड़कर जिस तरह भाजपा का समर्थन किया है उससे जाहिर है कि उनके सामाजिक हालात बदलने की ऐसी ही कोई ठोस पहल, उन्हें बांधे रखने के लिए, पार्टी के कर्णधारों को जल्दी ही करनी पड़ेगी.