प्रधानमंत्री मोदी की बातों का बड़ा असर होता है. कम से कम इतना तो होता ही है कि उनके बयान के बाद समर्थन वाले व्हाट्सएप मैसेज की बाढ़ आ जाती है. मन की बात में उनके कैशलेस इकोनॉमी पर जोर दिए जाने के बाद भी यही होगा.
लोग मानकर चलने लगेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी की अपील के बाद अर्थव्यवस्था कैशलेस इकोनॉमी की ओर बढ़ने वाली है. लेकिन सवाल है कि भारत जैसे देश में ऐसी इकोनॉमी के लिए कितनी जगह है और इसके सामने कितनी बड़ी चुनौतियां हैं. किसी अर्थशास्त्री के भारीभरकम आंकड़ों के बगैर इसे समझने की कोशिश करते हैं.
मन के फसाने से हकीकत का वास्ता
सबसे पहले प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात में ही झांकते हैं. बड़े भरे दिल से प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कुछ लोग अपने पैसे बचाने के लिए गरीबों को भ्रमित कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि मेरे प्यारे गरीब भाइयों को अपने पाप का भागीदार मत बनाइए. इसका मतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी भी ये समझते हैं कि देश की बैंकिंग व्यवस्था से बाहर रह रहे नागरिकों को उसमें शामिल करने की मुहिम यानि जनधन योजना वाले एकाउंट्स में कितनी गड़बड़ियां चल रही हैं.
रातोंरात खुले जनधन एकाउंट्स में रातोंरात हजारों करोड़ रुपए ठूंसे गए हैं तो इसमें भारी पैमाने पर पैसों का खेल हुआ है. कैशलेस इकोनॉमी का पहला बड़ा विरोधाभास यहीं दिख जाता है. अगर गरीब जनता अपने बैंक खातों का सही इस्तेमाल तक नहीं कर सकती है तो वो कैशलेस इकोनॉमी में अपनी सही भागीदारी कैसे सुनिश्चित कर सकती है.
प्यारे गरीब भारतवासी प्रधानमंत्री मोदी की अपील पर जनधन खाते तो खुलवा सकते हैं लेकिन इतनी समझ कहां से लाएं ताकि वो उन अकाउंट्स का सही इस्तेमाल सीख सकें. प्रधानमंत्री मोदी की अपील पर बैंकों ने टार्गेट रखककर जनधन खाते खुलवाए लेकिन उनके सही इस्तेमाल का कोई टार्गेट फिक्स्ड नहीं किया जा सकता है.
गांव वाले इस 'मन की बात' के कितना करीब?
आंकड़ों में उलझे बगैर आप खुद बता सकते हैं कि ग्रामीण इलाकों के कितने गरीब परिवार बैंक खातों का इस्तेमाल कर रहे हैं. कितने लोग चेक से पैसों का लेनदेन कर रहे हैं. उनमें से कितने लोगों के पास एटीएएम कार्ड्स हैं और कितने लोग इंटरनेट बैंकिंग ट्रांजेक्शन की मुश्किल कला के माहिर हो चुके हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की गरीबों की सरकार को ये समझना चाहिए कि उनकी नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर ऐसे लोगों पर पड़ रहा है जो कैश में लेनदेन करते हैं और वो सिर्फ दो नंबर का धंधा करने वाले लोग ही नहीं हैं. वो मजदूर हैं, जो रोज की दिहाड़ी पर काम करते हैं. वो किसान हैं जो अपनी फसलों का सौदा मंडी के आढ़तियों से सीधे कैश में करते हैं, वो ठेले खोमचे वाले गरीब हैं जो बिना किसी पेटीएम की सुविधा के सौ-पचास की रोजी कमा रहे हैं. ऐसे लोग कैशलेस इकोनॉमी में अपनेआप को कहां से फिट कर पाएंगे, इसका कोई रोडमैप नजर नहीं आता.
आंकड़ों से मेल नहीं खातीं उम्मीदें
एक छोटे से आंकड़े पर ही गौर फरमा लें. इंडियन एक्सप्रेस ने अपने एक लेख में जानकारी दी है कि गूगल इंडिया और बोस्टन कंसलटिंग ग्रुप की एक रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल कुल बैंकिंग ट्रांजेक्शन का करीब 75 फीसदी कैश ट्रांजेक्शन के जरिए हुआ.जबकि अमेरिका, जापान, फ्रांस और जर्मनी जैसे विकसित देशों में कैश ट्रांजेक्शन करीब 20 से 25 फीसदी ही रहता है. हमारी ये मजबूरी है कि काला धन को बढ़ावा दिए बगैर भी हम मजदूर-किसानों की पेमेंट कैश से करना मुश्किल है. ये सही बात है कि कैश पेमेंट में गड़बड़ियां होती हैं. लेकिन बिना रोडमैप के इसे बदलना संभव नहीं है.
अभी तक इसका सही सही अनुमान लगाना भी मुश्किल है कि नोटबंदी की वजह से गरीब मजदूर किसानों को कितना नुकसान उठाना पड़ा है. ग्रामीण इलाकों का व्यापार व्यवसाय उधारी के भरोसे चल रहा है. कुछ पिछड़े इलाके अठाहरवीं सदी में चले गए हैं जहां एक चीज के बदले दूसरी चीज खरीदी जा रही है. मसलन किसान धान की फसल के बदले साबुन तेल खरीद रहा है. ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग व्यवस्था पस्त पड़ी हुई है.
शहरों का हाल भी कुछ ज्यादा अच्छा नहीं है. एटीएम पर भीड़ कम नहीं हुई है. प्रधानमंत्री मोदी युवाओं को भरोसे कैशलेस इकोनॉमी के साकार होने का सपना देख रहे हैं. लेकिन उन परिवारों को क्या जो गांव कस्बे में अकेले पड़े हैं. युवा लड़के काम धंधों की तलाश में दिल्ली मुंबई की खाक छान रहे हैं. कैशलेस इकोनॉमी बड़ा भारी सपना है. बिल्कुल बुलेट ट्रेन की तरह का. कानपुर ट्रेन हादसों के होते हुए ऐसे सपने कोरा मायाजाल से ज्यादा कुछ नहीं लगते.
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