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जल्लीकट्टू के समर्थक तो राममोहन राय को भी फांसी पर लटका दें?

जल्लीकट्टू पर बैन के विरोध में पूरे तमिलनाडु में लोग सड़कों पर उतरकर विरोध कर रहे हैं

Sandipan Sharma

सती प्रथा भारत की पुरानी परंपरा थी, लेकिन वो भी खत्म हो गई. विधवाओं की फिर से शादी हिंदुओं के ऊपरी तबके में प्रतिबंधित थी, मगर बाद में इसने भी कानूनी चोला पहन लिया.

बाल विवाह का कभी उत्तर भारत में खूब प्रचलन था, लेकिन वक्त के साथ-साथ यह भी लगभग खत्म हो गया. पर्दा प्रथा कभी हिंदू महिलाओं के लिए गर्व की बात मानी जाती थी, पर यह भी अब प्रचलन से बाहर है.


ये चीजें दिखाती हैं कि किसी परंपरा और प्रथा में वक्त के साथ हमेशा बदलाव होता रहा है. इंसानी इतिहास को गौर से देखें तो वक्त के साथ कदमताल कर यह क्रूरता, अनैतिक और दमन को कोसों पीछे छोड़कर समानता का अधिकार और ऐसे समाज में तब्दील होता गया, जहां प्रेम और करुणा कूट-कूट कर भरी हो.

तो फिर सवाल उठता है कि तमिलनाडु में पारंपरिक त्योहार पोंगल के दौरान खेले जाने वाले जल्लीकट्टू को क्यों जारी रखना चाहिए? ये भी क्या बस इसीलिए कि यह 'खूनी खेल' सदियों पुराना है? कुछ लोग दावा करते हैं कि यह 2500 साल पुराना है.

क्या तमिलनाडु में आम लोगों की खुशी के लिए सांडों को 'खूनी खेल' में धकेलना सही फैसला है? वैसे भी उत्सव जिंदगी में खुशी और ईश्वर की पूजा के लिए मनाए जाते हैं. किसी त्योहार में पशुओं के साथ क्रूरता होती है और उसे ईश्वर की पूजा का नाम दिया जाए, यह कहां तक सही है?

सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू को पशुओं के प्रति कूरता मानते हुए बैन लगा दिया है

किसी भी शान और इज्जत को परंपरा और पाखंड का नाम तो नहीं दिया जा सकता है? सती प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह और अन्य सामाजिक कुरीतियों को सिर्फ परंपरा के नाम पर ढोया नहीं जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट का सही फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू पर पाबंदी लगाकर बिल्कुल सही फैसला लिया था. इस पाबंदी को जारी रखकर किसी शख्स को जानवरों के साथ क्रूरता करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है.

खासकर यही तो सही समय है कि जल्लीकट्टू को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देश के हर कोने तक पहुंचाया जाए. खासकर त्योहारों के नाम पर जो पुरानी परंपराएं हैं, उसे इसी पहल के साथ खत्म करने की जरूरत है. कोई भी उत्सव जो पर्यावरण और ईश्वरीय रचना (जीव-जंतु) को नुकसान पहुंचाए, उसे तुरंत बंद करने की जरूरत है.

उदाहरण के तौर पर दिवाली प्रकाश का उत्सव है. अब यह प्रदूषण और कानफोड़ू पटाखों के शोर में तब्दील हो गई है. हर साल पटाखों की फैक्ट्री में धमाके से कई लोगों की जान जाती है. सैकड़ों जख्मी होते हैं. जो लोग इन हादसों में बच जाते हैं, वे पूरी जिंदगी दर्द झेलते हैं. कुछ लोग पटाखों पर बैन के खिलाफ आवाज भी उठा सकते हैं, बस इसलिए कि वह हिंदुओं का पुराना उत्सव है.

तमिलनाडु के सीएम पनीरसेल्वम ने जल्लीकट्टू के मसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की (फोटो: पीटीआई)

पशुओं और इंसानों में समानता की दुहाई 

मकर संक्रांति किसानों का त्योहार है, जिसका अलग ही सामाजिक और धार्मिक महत्व है. अब यह उत्तर भारत के कई इलाकों में पतंग उत्सव का रूप ले चुका है. इस दिन पतंगों की डोर की वजह से इंसानों के साथ कई पंछियों को जान से हाथ धोना पड़ता है.

वैसे कम ही लोगों को पता होगा कि जल्लीकट्टू की शुरुआत कैसे और कब हुई? क्या इसका कोई सबूत है कि इस उत्सव के दौरान सांडों की खूनी लड़ाई और जमकर शराब पी जाती थी?

कुछ इतिहासकारों में जल्लीकट्टू शब्द को लेकर अभी भी बहस होती है. यह दो शब्दों सल्ली (सिक्के) और कट्टू से मिलकर बना है. इसका मतलब सोने-चांदी के सिक्के होता है, जो सांड के सींग पर टंगे होते हैं. बाद में सल्ली की जगह जल्ली शब्द ने ले ली. इस खेल में लोग सांडों के सींग में सिक्के बांधने की कोशिश करते थे. बाद में यही खेल सांडों का 'खूनी खेल' बन गया.

मौजूदा समय में जहां समाज में इंसानों और पशुओं के साथ समानता की दुहाई दी जाती है. इस तरह का खूनी खेल कहां तक उचित है? इसे भला कैसे किसी उत्सव का नाम दिया जा सकता है. पशुओं और इंसानों के साथ इस तरह की क्रूरता कैसे सही हो सकती है?

जल्लीकट्टू के खेल में लोगों  की भीड़ के बीच सांड छोड़ दिया जाता है

पशुओं के अधिकार के कानून में कई बार बदलाव

सुप्रीम कोर्ट ने जल्लीकट्टू को बैन करते समय अपने फैसले में पशुओं को पांच आजादी देने की बात साफ तौर पर कही थी. इसमें पशुओं को भूख, प्यास, कुपोषण के इलाज सहित डर और तनाव से दूर रखना था. यहां तक इस संबंध में अदालत ने केंद्र से संसद में कानून बनाने को कहा था. इस तरह का कानून दुनिया के अन्य देशों में है, जो पशुओं की सुरक्षा को लेकर बनाए गए हैं.

पिछले कुछ वर्षों में पशुओं के अधिकार को लेकर कई बार कानून में बदलाव किए गए हैं. कई साल पहले सर्कस मालिकों को मनोरंजन के नाम पर जानवरों को ट्रेनिंग देने और उन्हें रखने का अधिकार था, लेकिन अब उस पर भी पाबंदी लगा दी गई है. इससे सर्कस तो मर नहीं गया? यहां तक कि अदालती हस्तक्षेप के बाद तमाशा के नाम पर भालू़, बंदरों और सांपों को पकड़ना लगभग बंद हो गया है.

कुछ लोग पशुओं के अधिकार के लिए लड़ने वाले लोगों को राष्ट्रविरोधी का नाम दे देते हैं. ऐसे में क्या ऐसे लोगों के फैसले को सही ठहराया जा सकता है जो ईश्वर और प्रकृति के खिलाफ जाते हैं? जल्लीकट्टू का समर्थन करने वाले लोग भी इसी तबके के हैं जो पशुओं के साथ क्रूरता को सही ठहराते हैं.

जल्लीकट्टू पर बैन के विरोध में पूरे तमिलनाडु में लोग सड़कों पर उतर आए  (फोटो: पीटीआई)

वैसे भी कोई परंपरा केवल तभी टिक सकती है जब उसमें समानता का अधिकार, करुणा और हर किसी के लिए आजादी हो. यदि इस तरह से किसी के दिल को चोट पहुंचती है तो फिर हमें राजा राममोहन राय को फांसी पर लटका देना चाहिए, जिन्होंने सती प्रथा, बाल विवाह और पर्दा प्रथा का विरोध किया था.