view all

पैसिव यूथेनेशिया: लेकिन कई सवालों के जवाब ढूंढने जरूरी हैं

इच्छा मृत्यु की वसीयत पूरक होना चाहिए, और उसमें परिजनों को ये अधिकार मिलना चाहिए कि वो मरीज की इच्छा मृत्यु या उसे जिंदा रखने का फैसला ले सकें

S Murlidharan

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कुछ शर्तों के साथ इच्छामृत्यु को सहमति दे दी है. सालों से इस मुद्दे पर कोर्ट में बहसें होती रही हैं. सवाल था कि एक इंसान, जिसकी जिंदगी की सभी आस खत्म हो चुकी हों, जो कोमा जैसे हालात में मौत के बिस्तर पर लेटा हो, उसे इच्छा मृत्यु का हक मिलना चाहिए या नहीं?

मुंबई की अरुणा शॉनबाग के मामले में सुप्रीम कोर्ट पहले ही पैसिव यूथेनेशिया यानी इच्छा मृत्यु की जरूरत की बात मान चुकी थी. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण की एनजीओ की तरफ से दायर एक याचिका पर भी सुनवाई हुई है.


कॉमन कॉज ने दिया अनुच्छेद 21 का हवाला

कॉमन कॉज नाम के इस एनजीओ ने याचिका दायर करके मांग की गई थी कि लाइलाज बीमारी से पीड़ित किसी इंसान को सम्मान के साथ इच्छा मृत्यु का हक मिलना चाहिए.

अपनी याचिका में एनजीओ ने संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला दिया जिसमें कहा गया कि हर व्यक्ति को सम्मान के साथ जिंदगी जीने का अधिकार है. एनजीओ की दलील है कि अगर व्यक्ति को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है, तो उसे सम्मान के साथ मरने का अधिकार भी मिलना चाहिए.

एनजीओ का कहना है कि एक इंसान, जिसकी जिंदगी की सभी आशाएं खत्म हो चुकी हों, जो कोमा जैसे हालात में मौत के बिस्तर पर लेटा हो, तो मेडिकल सपोर्ट सिस्टम को हटाकर उस इंसान को पीड़ा से मुक्ति दी जानी चाहिए.

द मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेशेंट्स (प्रोटेक्शन ऑफ पेशेंट्स एंड मेडिकल प्रेक्चिसनर्स) बिल, 2016 नाम के इस विधेयक के मुताबिक, लाइलाज बीमारी से जूझ रहे किसी इंसान का इलाज जारी रखा जाए या उसका लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा लिया जाए, इसका फैसला एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव्स (अग्रिम चिकित्सा निर्देश) या किसी आधिकारिक व्यक्ति की मेडिकल पावर ऑफ अटार्नी के आधार पर लिया जाएगा. लेकिन ऐसा करने के लिए कोई भी चिकित्सक बाध्य नहीं होगा.

केंद्र सरकार ने भले ही सीधे तौर पर इच्छा मृत्यु की इजाजत देने से इनकार कर दिया, लेकिन अपने विधेयक में उसने अपरोक्ष रुप से इच्छा मृत्यु की वसीयत की इजाजत दे दी है. लेकिन इसके लिए मरीज के परिजनों की इजाजत को जरूरी माना गया है. केंद्र सरकार से पहले सुप्रीम कोर्ट भी मेडिकल बोर्ड के सामने ये मान चुका है कि कोमा जैसी हालात में पड़े मरीज को उसके परिजनों की इजाजत से इच्छा मृत्यु दी जा सकती है.

दरअसल अरुणा शानबाग के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि असाधारण परिस्थितियों में कोर्ट की निगरानी में लाइलाज बीमारी से ग्रसित मरीज को पैसिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है. लेकिन सरकार के विधेयक के मसौदे को देखकर ऐसा लगता है कि उसे मरीज के परिजनों की दुविधा की चिंता है. क्योंकि परिजनों के लिए अपने किसी प्रिय की मौत के फरमान पर दस्तखत करना आसान नहीं होगा. इसीलिए सरकार ने अपने विधेयक में इच्छा मृत्यु की वसीयत की वकालत की है.

यानी कोई भी इंसान अपने जीते जी ये वसीयत कर सकता है कि भविष्य में लाइलाज बीमारी होने, कोमा में जाने या ब्रेन डेड होने पर उसे सम्मान के साथ इच्छा मृत्यु दे दी जाए. दरअसल यूथेनेशिया की जरूरत ही इस बात को लेकर पड़ी है कि दिमागी तौर पर मर जाने के बाद किसी इंसान को सम्मान के साथ मौत दे दी जाए. क्योंकि ब्रेन डेड इंसान को कोई अनुभूति नहीं होती है, न तो उसे दर्द का एहसास होता है और न ही खुशी का. और न ही वो इंसान किसी से बातचीत कर सकता है.

हालांकि सेहतमंद होते हुए भी इच्छा मृत्यु की वसीयत करना लोगों के लिए खतरनाक और मुसीबत भरा कदम भी हो सकता है. क्योंकि इच्छा मृत्यु की वसीयत करने के बाद अगर उस इंसान का कोई परिजन उस वसीयत को मानने से इनकार कर दे तो परिस्थियां काफी जटिल हो सकती हैं.

लेकिन इस मामले में दलील दी जाती है कि किसी इंसान का अपने शरीर पर सबसे ज्यादा अधिकार होता है, लिहाजा उसकी इच्छा को ही सर्वोपरि माना जाना चाहिए. परिजनों और नजदीकी रिश्तेदारों की मर्जी को मरीज की वसीयत पर वरीयता नहीं दी जा सकती है. जाहिर है, जितना खतरनाक ये मुद्दा है, उतनी ही तरह के तर्क इसके पक्ष-विपक्ष में दिए जा सकते हैं.

इच्छा मृत्यु की वसीयत को संभाल के रखने की समस्या भी पैदा होगी. यानी ऐसी वसीयत को धरती पर कहां संभाल के रखा जाएगा? क्या इसे इंसान के ड्राइविंग लाइसेंस के साथ रिकॉर्ड के तौर पर रखा जाए, या बाकी दूसरे पहचान पत्रों जैसे आधार कार्ड वगैरह के साथ रखा जाए? वैसे स्पेन में ऐसा ही कुछ प्रावधान है.

वहां कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपने ड्राइविंग लाइसेंस में ये जिक्र कर सकता है कि एक्सीडेंट में मौत होने या ब्रेन डेड होने पर उसके जरूरी अंगों को दान किया जा सकता है.

कई सवाल हैं जिनके जवाब जरूरी

सवाल ये भी उठता है कि इच्छा मृत्यु की वसीयत क्या जायदाद की वसीयत की तरह होनी चाहिए. यानी इंसान अपनी जिंदगी में जब चाहे, जितनी बार चाहे उसमें बदलाव कर सकता है. और दिमागी तौर पर स्वस्थ्य और जिंदा रहने तक लिखी गई आखिरी वसीयत को ही वैध माना जाए?

लेकिन समस्या तब भी पेश आएगी जब मरीज का कोई परिजन इच्छा मृत्यु की वसीयत की प्रमाणिकता पर सवाल उठाएगा. यानी अगर परिजनों ने ये शक जताया कि इच्छा मृत्यु की वसीयत किसी ने षडंयत्र के तहत मरीज से उसकी मर्जी के खिलाफ लिखवाई, तब क्या होगा? उस वक्त क्या उस इंसान की इच्छा मृत्यु की वसीयत की फोरेंसिक जांच कराई जाएगी? इसके अलावा ये भी तय करना होगा कि जायदाद की वसीयत और इच्छा मृत्यु की वसीयत एक साथ लिखी जाएं तभी मान्य होंगी या अलग-अलग लिखे जाने पर उन्हें मान्यता मिलेगी?

एक वाजिब सवाल और भी उभर कर सामने आएगा कि क्या कोई इंसान इच्छा मृत्यु के खिलाफ भी अपनी वसीयत में लिख सकता है, यानी वो अपनी वसीयत में ये जिक्र कर सकेगा कि उसे किसी भी हालत में इच्छा मृत्यु न दी जाए? कई बार ये भी देखा गया है कि लोग गुस्से में आकर या किसी सनक के चलते अपनी वसीयत लिख देते हैं, और बाद में उसपर काफी विवाद खड़ा हो जाता है. च्छा मृत्यु की वसीयत के मामले में ऐसा होना संभव है, तब सरकार क्या करेगी?

सबसे अहम सवाल ये है कि कोमा की हालत में मौत के बिस्तर पर पड़े एक ऐसे इंसान को इच्छा मृत्यु की इजाजत दी जानी चाहिए, जिसे न दर्द का एहसास है, न खुशी का और न ही सम्मान का? एक इंसान को अगर किसी तरह का एहसास ही नहीं है तो उसके लिए सम्मानजनक इच्छामृत्यु के क्या मायने? इसलिए ये मामला उस इंसान के परिजनों पर ही छोड़ना बेहतर होगा.

परिजन ही मरीज की जिंदगी और मौत के मामले में बेहतर फैसला कर सकते हैं. एक इंसान अपना जीवन साथी चुन सकता है, अपना व्यवसाय और नौकरी चुनने की भी उसे आजादी है, इसके अलावा अपने पहने की जगह चुनने का अधिकार भी उसके पास होता है, तब उस इंसान के मां-बाप और बाकी परिजन उसके फैसले को चाहे-अनचाहे मान लेते हैं.

लेकिन क्या वो मां-बाप उस इंसान के इस फैसले को आसानी से मान लेंगे कि लाइलाज होने पर उसे इच्छा मृत्यु दे दी जाए? वो भी तब जबकि उसे जिंदा रखने के उपाय यानी लाइफ सपोर्ट सिस्टम मौजूद हैं. लिहाजा कहना गलत नहीं होगा कि इच्छा मृत्यु के मामले में केंद्र सरकार का पक्ष सही है. यानी इच्छा मृत्यु की वसीयत पूरक होना चाहिए, और उसमें परिजनों को ये अधिकार मिलना चाहिए कि वो मरीज की इच्छा मृत्यु या उसे जिंदा रखने का फैसला ले सकें.

(ये लेख हमने सबसे पहले 11 अक्टूबर को प्रकाशित किया था. 9 मार्च को पैसिव यूथेनेशिया को सुप्रीम कोर्ट की ओर से सहमति मिलने पर हम इसे फिर से प्रकाशित कर रहे हैं)