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पार्ट 1: बस्तर में रंग ला रही है प्रधानमंत्री की योजना, दिखने लगा है विकास

केंद्र और राज्य की सरकारों की तरफ से बस्तर इलाके में युद्धस्तर पर किए गए विकास के काम नतीजा देने लगे हैं

Debobrat Ghose

(एडिटर्स नोट: इस साल अप्रैल में, गृह मंत्रालय ने वामपंथी अतिवाद से ग्रस्त जिलों में से 44 जिलों के नाम हटा लिए थे. ये इस बात का इशारा था कि देश में माओवादी प्रभाव कम हुआ है. ये एक ऐसी बहुआयामी रणनीति का नतीजा है, जिसके तहत आक्रामक सुरक्षा और लगातार विकास के जरिए स्थानीय लोगों को माओवादी विचारधारा से दूर लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. हालांकि, ये नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादियों के कब्जे का अंत नहीं है. खतरा अब भी जंगलों में छुपा हुआ है- हारा हुआ, घायल और पलटकर वार करने के लिए बेताब. माओवादियों के गढ़ में घुसकर अतिवादियों की नाक के ठीक नीचे विकास कार्यों को बढ़ाना प्रशासन के सामने असली चुनौती है. तो फिर जमीन पर असल स्थिति क्या है? फ़र्स्टपोस्ट के रिपोर्टर देवव्रत घोष छत्तीसगढ़ में माओवादियों के गढ़ बस्तर में यही देखने जा रहे हैं. बस्तर वामपंथी अतिवाद से सबसे ज्यादा बुरी तरह जकड़ा हुआ है और यहीं माओवादियों ने अपने सबसे बड़े हमलों को अंजाम दिया है. इस सीरीज में हम देखेंगे कि यहां गांवों में कैसे बदलाव आए हैं, गांव वाले इन बदलावों को लेकर कितने उत्सुक हैं और ये भी कि खत्म होने का नाम नहीं लेने वाले माओवादियों के बीच में विकास कार्यों को बढ़ाने की मुहिम में प्रशासन और सुरक्षा बल कितने खतरों का सामना करते हैं.)

शाम के सवा 7 बज रहे थे. शाम के झुटपुटे में बस्तर की दरभा घाटी सुरमई और दैवीय लगने लगी थी. लेकिन मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था. जगदलपुर अब भी 38 किलोमीटर दूर था. इस इलाके में रिपोर्टिंग का जो मेरा अनुभव था, उसके हिसाब से सूरज ढलने के बाद यहां रिपोर्टिंग के लिए रुकना खतरनाक था.


चारों ओर पसरा हुआ भयानक सन्नाटा, अंधेरे में डूबे जंगल, दूर-दूर तक कोई आबादी नहीं और खुद को कवरेज क्षेत्र के बाहर बता रहा मोबाइल... यह सब कुछ मिल कर एहसास करा रहे थे कि ऐसे माओवादी इलाके से गुजरना ठीक नहीं है.

कैब में बैठा मैं और मेरा ड्राइवर उमाशंकर ही उस काली और खाली पड़ी सड़क पर जिंदगी के अकेले नमूने थे. थोड़ी देर पहले ही हम झीरम घाटी से निकले थे. इस घाटी की यादें कुछ अच्छी नहीं थीं. मई 2013 में माओवादियों के खूनी हमले में कांग्रेस के कई नेताओं समेत 31 लोग इसी इलाके में मारे गए थे. जगदलपुर पहुंचने की जल्दी में मैंने ड्राइवर से पूछा- पहुंचने में अभी और कितनी देर लगेगी. यह पूछते हुए मैंने पूरी कोशिश की कि उसे मेरा डर न दिखे. मैंने अपना डर छुपाने की पूरी कोशिश की, लेकिन ड्राइवर उमाशंकर ने किसी खुली किताब की तरह मेरा भय पढ़ लिया और सीधे मुद्दे पर आ गया और बोला, 'सर, अब यहां पहले जैसा आतंक नहीं है. आज आप दंतेवाड़ा, सुकमा या कांकर जैसे शहर तक कभी भी आ-जा सकते हैं. अब तो सड़कें भी बढ़िया हैं, कोई दिक्कत नहीं होगी सर.'

बस्तर को वामपंथ के उग्रवाद का केंद्र माना जाता रहा है

बस्तर दरअसल अलग-अलग भाषाओं और बोलियों वाले कई आदिवासी गुटों से बसा हुआ इलाका है. इसे वामपंथ के उग्रवाद का केंद्र माना जाता रहा है. सुरक्षाबलों पर उनके हमले भी बड़े भयानक होते रहे हैं. तुरत-फुरत फैसले कर न्याय करने वाली उनकी जनअदालतें अपनी बर्बरता के लिए कुख्यात हैं. इन अदालतों में पुलिस के मुखबिरों के साथ जो सुलूक होता है, उसके बारे में सभी को मालूम ही है. मकसद सिर्फ इतना कि खुले तौर पर सजा मिलने से लोगों में इतना डर फैले कि आगे से कोई कभी उनकी मुखबिरी न करे.

छत्तीसगढ़ का बस्तर पहले कभी देश का सबसे बड़ा जिला होता था. बाद में इसे 7 अलग-अलग जिलों में बांट दिया गया जिससे प्रशासन आसानी से चलाया जा सके. आज भी बस्तर डिवीजन (कुल इलाका 39,117 वर्ग किलोमीटर), केरल (38,863 वर्ग किलोमीटर) जैसे कई राज्यों से क्षेत्रफल में बड़ा है.

क्षेत्रफल में कई राज्यों से बड़े बस्तर इलाके को 7 जिलों में बांट दिया गया है (फोटो साभार: छत्तीसगढ़ सरकार)

बस्तर जब से माओवादी आतंक की गोद में गया, उसने इस इलाके की हर पहचान पर अपना कब्जा जमा लिया है. बदले में इस इलाके ने कितनी बेशकीमती चीजें खोई हैं, अब यह भी समझिए. इस इलाके के लोग तो हमने खोए ही, प्रकृति की गोद में खेली एक अद्भुत संस्कृति से भी हम हाथ धो बैठे. साथ ही कई तरह की प्राकृतिक संपदाओं और बेशकीमती खनिज से भी हम महरूम हुए जो, इस इलाके में अटे पड़े हैं.

हालांकि अब वो बीते वक्त की बात हो गई, लेकिन मुझे वही बस्तर याद है. उमाशंकर का कहना सही था. 2013 में मैं आखिरी बार बस्तर गया था. तब और आज के बस्तर में जमीन-आसमान का अंतर है. खैर, घंटे भर में हम बिना किसी अप्रिय घटना के घटे जगदलपुर पहुंच गए. एक बड़ा सरप्राइज हमारा यहां इंतजार कर रहा था. जगदलपुर शहर, जो बस्तर का मुख्यालय है, रात 8 बजे बिजली की रोशनी में नहाया हुआ था. खाने-पीने की दुकानें, आइसक्रीम पार्लर, चाय की दुकानें और डिपार्टमेंटल स्टोर लोगों से भरे पड़े थे. लोगों ने मुझे बाद में बताया कि यहां 11 बजे रात तक ऐसा ही मजमा लगा रहता है.

डर के बावजूद लोगों ने बस्तर के कुछ इलाकों में जिंदगी जीना सीख लिया 

कुछ बरस पहले ऐसे जीवंत बस्तर के बारे में तो कोई सोच भी नहीं सकता था. हालांकि शाम बड़ी फीकी थी और उससे यह महसूस नहीं हो रहा था कि बस्तर में माओवाद का खात्मा हो चुका है. लेकिन इतना अंदाजा तो जरूर लगाया जा सकता था कि माओवादियों के डर के बावजूद लोगों ने बस्तर के कुछ इलाकों में जिंदगी जीना सीख लिया है.

केंद्र और राज्य की सरकारों की तरफ से युद्धस्तर पर किए गए विकास के काम नतीजा देने लगे हैं. इसके तहत सुरक्षाबल कोई इलाका अपने घेरे में ले लेते हैं और प्रशासन की ओर से इंफ्रास्ट्रक्चर या ढांचागत निर्माण के कामों को पूरा किया जाता है. इस तरह माओवादियों को हाशिए पर फेंक देने की यह योजना आखिरकार काम आई. नतीजतन कभी माओवादियों का गढ़ रहा यह इलाका धीरे-धीरे ही सही लेकिन पक्के तौर पर अब सिकुड़ रहा है.

बता दें कि तेज, संगठित और मजबूती से किया गया यह विकास, साल 2011 में तत्कालीन यूपीए सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की ओर से शुरू किया गया था. उसी साल अगस्त के महीने में झारखंड के सिंहभूम जिले में सारंदा इलाके में सीआरपीएफ ने माओवादियों पर जबरदस्त हमला किया था. उस साल पहली बार करीब एक दशक के बाद, सारंदा में तिरंगा फहराया गया.

जयराम रमेश ने दरअसल ताड़ लिया कि सुरक्षाबलों की सफलता को इसी घटना के बाद स्थायित्व का जामा पहनाने का काम किया जा सकता है. इसका नतीजा सारंदा डेवलेपमेंट प्लान के तौर पर सामने आया. इसी योजना से सारंदा के इलाके को वह सुरक्षा घेरा मिला जो माओवादियों के खिलाफ एक मजबूत ढाल साबित हुई. इस सुरक्षा की वजह से ही केंद्र, राज्य और जिला प्रशासन यहां वो विकास कर पाए, जिसकी कमी बड़ी शिद्दत से यहां के आदिवासी वाशिंदे एक अर्से से महसूस कर रहे थे. अब तक राज्य सरकारों की उदासीनता और माओवाद के डर से यहां के लोग इस विकास से वंचित थे.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने सारंदा डेवलेपमेंट मॉडल का जिम्मा खुद उठाया

चूंकि जयराम रमेश इस काम में खुद भी लगे थे, एसडीपी यानी सारंदा डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट ने शुरुआत में कुछ उम्मीदें जगाईं. हालांकि प्रशासनिक कमियों के चलते यह योजना बाद में यूपीए के शेष बचे शासनकाल में बिखर गई. बाद में नरेंद्र मोदी की सरकार ने सारंदा डेवलेपमेंट मॉडल का जिम्मा खुद उठाया, जबरदस्त काम किया. मोदी की सरकार ने माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों के ऑपरेशन जबरदस्त तरीके से बढ़ा दिए. ये ऑपरेशन उस समय के गृहमंत्री रहे पी चिदंबरम के ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ से ज्यादा सफल भी साबित हुए.

यूपीए के वक्त, ग्रीन हंट की सफलता के खूब चर्चे थे. दूसरी ओर उन इलाकों में, जो फ्री-जोन थे, यानी जहां आतंक का डर नहीं था, विकास का काम खूब तेजी से शुरू किया गया. उन इलाकों के आदिवासियों को दिया संदेश साफ था- माओवाद के आतंक और विकास की मिठास में से कोई एक चुन लें. गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर ने मार्च 2018 में लोकसभा में अपने लिखित जवाब में कहा भी- 'सरकार ने वामपंथी आतंकियों से निपटने के लिए जो योजना बनाई है, उसके तहत सुरक्षा को लेकर कदम उठाए जाने हैं, विकास के काम किए जाने हैं और स्थानीय लोगों को उनके अधिकार और हक दिलाने का काम किया जाएगा. माओवादियों का भौगोलिक विस्तार जिस तरह से कम हुआ है और जितनी तेज़ी से हिंसा की घटनाओं में कमी आई है, उसके चलते कहा जा सकता है कि इस नीति के चलते कुल मिलाकर सुरक्षा का स्तर काफी अच्छा हुआ है. जाहिर है इससे विकास के काम में भी तेजी आई है.'

लेकिन बस्तर की तस्वीर सारंदा से बिल्कुल अलग है. माओवाद के आतंक से मुक्त किसी गांव में विकास का काम करना और बात है. और आतंक के डर में जी रहे गांव में इंफ्रास्ट्क्चर का काम करना बिल्कुल अलग बात. इन गांवों में तो सरकारी कर्मचारी और गांववालों, दोनों को वामपंथी आतंक का डर रहता है. बस्तर के सातों जिलों के गांवों में यही स्थिति है, जो आज भी माओवादी उग्रवाद के गढ़ माने जाते हैं. इसके अलावा यह 7 जिले, देश के महत्वाकांक्षी जिलों की सरकारी लिस्ट में भी हैं. शायद इसीलिए जगदलपुर को, माओवाद के असर वाले दंतेवाड़ा, सुकमा, बीजापुर, कोंडागांव, कांकर और नारायणपुर जिलों से जोड़ने वाली सड़क का एक खास मतलब है.

सड़कों ने यहां के लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई 

अगले 10 दिन तक जैसे-जैसे मैं इन इलाकों के और अंदर गया, मैंने देखा कि इन इलाकों में बनी सड़कों ने यहां के लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. माओवादियों के गढ़ रहे यहां के गांवों तक विकास की यात्रा सिर्फ इन सड़कों के जरिए ही मुमकिन हो पा रही है. सड़कों ने यही नहीं किया, आदिवासियों को जरूरी चीजें भी मुहैया करवाईं, जैसे अस्पताल, प्रशासन, स्कूल-कॉलेज और बाजार.

यह सड़के ही हैं, जिन्होंने यहां के लोगों का आत्मविश्वास इतना बढ़ा दिया है कि वो अब बेखटके यहां के माओवाद के असर वाले गांवों में भी आ-जा सकते हैं. निश्चित तौर पर माओवादियों को सबसे बड़ा खतरा सिर्फ सुरक्षाबलों की राइफल से ही नहीं है, बल्कि वो नई बनी सड़कें हैं जो स्थानीय आदिवासियों को विकल्प के और मौके मुहैया करा रही हैं.

बहरहाल, देश को आतंक के ऐसे इलाकों में सड़कें बनवाने की बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी है. इन्हें बनाने में बहुत सारे सीआरपीएफ के जवानों, पुलिसकर्मियों और निर्माण के काम में लगे लोगों को, माओवादियों ने अपनी गोलियां का निशाना बनाया है. सीआरपीएफ के जिन जवानों की जान इन सड़कों की रक्षा करने में गई, उनकी याद में बीजापुर जिले में बीजापुर-बासागुडा मार्ग पर शहीद स्मृति द्वार बनाया गया है, जो बस्तर इलाके में सड़क निर्माण से जुड़ी कड़वे जमीनी सच्चाइयों से भी रू-ब-रू कराता है.

बस्तर के कमिश्नर दिलीप वासनिकर ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'पिछले 5 साल में बस्तर मंडल में संपूर्ण विकास का काम बड़ी तेजी से हुआ है और इसी की नतीजा है कि माओवादी इन इलाकों में काफी पीछे हट गए हैं. आप पाएंगे कि सड़कों के किनारे जो ढाबे चल रहे हैं, वो रात में भी खुले रहते हैं, बिना किसी डर. हमारे यहां के बच्चे सिविल सेवा में जा रहे हैं, आईआईटी के इम्तिहान पास कर रहे हैं. और अब तो बस्तर रेल और हवाई यातायात से भी जुड़ गया है.'

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत हजारों कि.मी बनी हैं नई सड़कें 

पिछले 5 साल में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत 3,998 किलोमीटर सड़कें बनाई गईं. वासनिकर बताते हैं, 'इस योजना के तहत सड़कों का निर्माण रिकॉर्ड स्तर पर हुआ है. आज सिर्फ बस्तर डिवीजन में जिला मुख्यालयों को गांवों से जोड़ने के लिए 8,588 किलोमीटर लंबी सड़कें बना दी गई हैं. यह इस सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है. इन सड़कों के जरिए ही यहां के आदिवासी गांव वाले की रोजमर्रा की जरूरतें भी पहले के मुकाबले ज्यादा बेहतर ढंग से पूरी होती हैं.'

केंद्रीय सड़क और परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने जनवरी 2015 में रायपुर में ऐलान किया था कि आरआरपी यानी रोड रिक्वायरमेंट प्लान के तहत सरकार नक्सल प्रभावित इलाकों में 7,294 किलोमीटर लंबी सड़कें बनाएगी. यह वो महत्वपूर्ण सड़कें हैं, जो नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित इलाकों को जोड़ने का काम करेंगी, जैसे दंतेवाड़ा और सुकमा को जोड़ने वाली सड़क. सीआरपीएफ के एक अधिकारी के मुताबिक, 'आरआरपी के तहत बस्तर में सीआरपीएफ की सुरक्षा में 14 राष्ट्रीय राजमार्गों (नेशनल हाईवे) की 451 किलोमीटर लंबी सड़क बनानी थी, इसमें से 244 किलोमीटर लंबी सड़क पूरी कर ली गई है.

इन इलाकों से होकर सफर करते हुए अच्छी सड़कों के अलावा दूसरी चीजें भी ध्यान खींचती हैं. सड़क के दोनों ओर नई शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बने हुए दिखते हैं और सरकारी कोशिशें रंग लाती हुई जान पड़ती हैं. केंद्र की योजनाओं के अलावा छत्तीसगढ़ सरकार की विकास योजनाएं भी काम कर रही हैं. बस्तर के इलाके में, पिछले 5 साल में राज्य सरकार ने 9 नए सरकारी कॉलेज खोले. इनमें इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज भी शामिल हैं. इसके अलावा, 2 सरकारी अस्पताल, 101 आयुर्वेदिक अस्पताल, 140 आयुष सेंटर, 8 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 13 उप-स्वास्थ्य केंद्र, 41 हायर सेकेंडरी स्कूल और 58 हाई स्कूल खोले हैं. कौशल विकास केंद्र, एक नर्सिंग ट्रेनिंग कॉलेज, सिविल सर्विसेज, आईआईटी और दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए फ्री कोचिंग सेंटर्स भी सरकार की ओर से खोले गए हैं.

बीते 5 साल में बस्तर में खुले हैं नए बैंक, बेहतर हुई है मोबाइल कनेक्टिविटी

एक बड़े बैंक की रिपोर्ट दर्शाती है कि वर्ष 2013 से लेकर 2018 तक बस्तर मंडल में बैंकों की कुल 112 नई शाखाएं और 115 एटीएम खोले गए हैं. दशक भर पहले बस्तर में मोबाइल कनेक्टिविटी एक बुरे सपने की तरह होती थी. मोबाइल चलने में दिक्कत होने से पुलिस और सुरक्षाबलों के लिए भी दुर्गम जंगलों में ऑपरेशन चलाना मुश्किल होता था. मोबाइल कनेक्टिविटी ठीक करने के लिए 225 नए मोबाइल टावर लगाए गए. किसी बाहरी के लिए यहां का कनेक्शन लिए बिना मोबाइल पर बात कर पाना तो अब भी लगभग असंभव है. खास कर जब आप यात्रा कर रहे हों.

छत्तीसगढ़ में एंटी नक्सल अभियान के मुखिया डी एम अवस्थी का कहना है, 'रुकावटों के बावजूद नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास का काम तेजी से चल रहा है. खास कर सड़कों की वजह से हमें नक्सलियों को पीछे खदेड़ने में मदद मिल रही है. और अब तो खैर लोगों का विकास के प्रति नजरिया भी बदल रहा है.'

रायपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार रमेश नय्यर का कहना है, 'सरकार की शिक्षा योजना ‘प्रयास’ के जरिए बड़ी संख्या में आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने में मदद मिली है. जो आदिवासी इलाके नक्सलवाद के लिए बदनाम थे, वहां स्कूल, कॉलेज और प्रोफेशनल संस्थाएं खोल दी गई हैं. इन कोशिशों से आदिवासी इलाकों के बच्चों में पढ़ने के प्रति चाव भी खूब बढ़ा है. इन इलाकों में माओवादियों ने स्कूल जाला दिए थे. मुझे उम्मीद है कि माओवादी आतंक के चलते जो अध्यापक स्कूल छोड़कर चले गए थे, सड़कों और विकास देखकर वो सब वापस लौट आएंगे.'

दिलीप वासिनकर और डी एम अवस्थी दोनों, इस विकास का श्रेय राज्य के पूर्व मुख्य सचिव विवेक ढांड को देते हैं, जो हाल ही में इस पद से रिटायर हुए हैं. डी एम अवस्थी ने बताया कि 'राज्य के सीईओ की तरह विवेक ढांड ने बस्तर के इलाके में विकास की तमाम योजनाओं को दिशा दी. सड़क निर्माण के काम का जायजा लेने के लिए तो वो ठेकेदारों से सीधे संपर्क कर लेते थे और इन परियोजनाओं में काम करने वालों को लगातार प्रेरित करते थे.'

वासिनकर का मानना है कि 'चूंकि ढांड साहब बस्तर के इलाके के कमिश्नर भी रह चुके हैं, इस पूरे मंडल के किलों से वो वाकिफ हैं. पिछले साढ़े 3 साल में इस इलाके में सड़क से लेकर नई संस्थाएं खोलने तक विकास के सारे कामों का जायजा वो खुद लेते रहे हैं.'

माओवादी आतंक, अनदेखी की वजह से बस्तर रेल से नहीं जुड़ पाया

दशकों से, बस्तर की ऊबड़-खाबड़ जमीन, माओवादी आतंक और राजनेताओं की अनदेखी जैसी कई वजहों से यह इलाका रेल से नहीं जुड़ पाया. बस्तर तक पहुंचने या कहीं आने-जाने का सिर्फ एक ही रास्ता था, वहां की बीमार सड़कें. अब जगदलपुर से विशाखापत्तनम तक रेल रूट तो है ही, दो और रेल रूट खुलने वाले हैं, जगदलपुर और दल्ली-राजहारा, दोनों जगहों से भानुप्रतापपुर तक. इस रेल रूट का खुलना स्थानीय लोगों के लिए वरदान साबित होगा.

दक्षिण-पूर्व सेंट्रल रेलवे के एक बड़े अधिकारी ने बताया, 'दल्ली-राजहरा और रावघाट के बीच के 350 किलोमीटर लंबे ट्रैक का निर्माण हो रहा है. बावजूद वामपंथी उग्रवादियों के विरोध के, इस रूट का 60 किलोमीटर का हिस्सा पूरी हो चुका है. इस छोटे रास्ते पर ट्रेनें चलने भी लगी हैं. हम जल्दी ही रावघाट तक काम पूरा कर लेंगे. सीआरपीएफ की 3 कंपनियां रेलवे ट्रैक की सुरक्षा में लगी हैं और रेलवे का काम करने वालों और मशीनों की सुरक्षा भी कर रहे हैं.'

प्रधानमंत्री ने इसी साल 14 अप्रैल को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग कर भानुप्रतापपुर रेलवे स्टेशन का उद्घाटन किया था (फोटो: देवव्रत घोष)

उन्होंने आगे कहा, 'लौह खनिज को ले जाने के लिए दुर्ग से दल्ली-राजहारा तक के लिए एक रूट है. रायपुर से दुर्ग पहले ही जुड़ा हुआ है. धीरे-धीरे, पैसेंजर गाड़ियों के लिए रायपुर से जगदलपुर तक की पूरी लाइन वाया दल्ली-राजहारा, हम पूरी कर लेंगे.'

दल्ली-राजहारा में देश की सबसे महत्वपूर्ण लोहे की खानें हैं और यहां से लोहे की सप्लाई भिलाई स्टील प्लांट को होती है. दल्ली-राजहारा और खनिज से समृद्ध यहां के दूसरे इलाकों को रेल से जोड़ना बहुत महत्वपूर्ण योजना है. विकास के इन सारे स्तंभों में जिसने मुझे सबसे ज्यादा चौंकाया, वो था जगदलपुर में एयरपोर्ट का निर्माण. बीते 14 जून से इस एयरपोर्ट पर यात्री विमानों की आवा-जाही शुरू हो गई है.

जगदलपुर में नया बनकर तैयार हुआ बस्तर एयरपोर्ट (फोटो: देवव्रत घोष)

रेल और एयर रूट दोनों, नगरनार के स्टील प्रोजेक्ट के लिए खास साबित होंगे, जो जगदलपुर से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर है. यह स्टील प्रोजेक्ट न सिर्फ माओवादियों के असर वाले इलाके में स्थापित पहला ग्रीनफील्ड इंटिग्रेटेड प्रोजेक्ट है, बल्कि नेशनल मिनरल डेवलेपमेंट कॉरपोरेशन का पहला महत्वपूर्ण स्टील प्लांट है जो वैल्यू एडीशन और फॉरवर्ड इंटिग्रेशन के लिए जाना जाता है. अब तक एनएमडीसी बस्तर के बैलाडीला खान से सिर्फ लोहा निकालने का काम करता था.

'पिछले 4-5 साल में यहां जितना विकास हुआ है, वह पिछले 30 बरस में नहीं हुआ' 

बस्तर के कलेक्टर धनंजय देवांगन का कहना है, 'नगरनार स्टील प्लांट से बड़े स्तर पर रोजगार के मौके सामने आएंगे. साथ ही स्थानीय स्तर पर आर्थिक व्यवस्था को भी इस प्लांट से मजबूती मिलेगी.' जगदलपुर के व्यवसायी लखन साव का कहना है कि 'पिछले 4-5 साल में यहां जितना विकास हुआ है, वह पिछले 30 बरस में नहीं हुआ. बस्तर बदल रहा है.'

जगदलपुर से 20 किलोमीटर दूर नगरनार में लगाए जा रहे एनएमडीसी स्टील प्लांट की तस्वीर (फोटो: देवव्रत घोष)

हां, बस्तर अब बदल रहा है. पहली बार माओवादियों को पीछे धकेला जा रहा है, सुरक्षाबल लगातार सफलता का स्वाद चख रहे हैं, प्रशासन पहली बार सड़कों के जाल से गांवों को जोड़ रहा है और आदिवासी जनता पहली बार अपनी जरूरतों की पूर्ति होते देख रही है. अपनी अगली रिपोट्स में मैं बताउंगा कि बाहरी दुनिया से जुड़ाव, कैसे बस्तर के आदिवासियों को जिंदगियों को बदल रहा है.

अपनी अगली रिपोर्ट में मैं आपको पलनार ले चलूंगा, जो दंतेवाड़ा का एक छोटा सा गांव है. वही दंतेवाड़ा, जो नक्सलियों का अब तक जबरदस्त असर रहा है. कुछ दिन पहले तक किसी गांव वाले को अगर गांव से बाहर किसी काम से जाना होता था, तो उसे माओवादियों से इसकी इजाजत लेनी पड़ती थी. बाहर का कोई शख्स गांव में बिना उनकी आज्ञा के नहीं आ सकता था. लेकिन अब ऐसा नहीं है.

जब मैं पलनार पहुंचा तो देखा कि गांव के कुछ बच्चे एक बड़ी एलईडी स्क्रीन पर नेशनल ज्यॉग्राफिक चैनल देख रहे हैं. हां... पलनार गांव बदल रहा है.