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परेश रावल को कोसिए पर जरा अरुंधती रॉय के बयान पर भी तो नजर डालिए

अरुंधती रॉय बोली थी “भारत घाटी में अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता".

Nazim Naqvi

सवाल ये है कि सोशल मीडिया पर जो लोग, फिल्मी दुनिया से राजनीती में आये, परेश रावल के एक ट्वीट पर हंगामा मचा रहे हैं, वह हंगामा क्यों मचा रहे हैं? वामपंथी विचारधारा की लेखिका और सामाजिक-कार्यकर्ता, अरुंधति रॉय के खिलाफ, मशहूर अभिनेता और संसद सदस्य परेश रावल ने यह कहकर पूरे सोशल मीडिया को नए काम पर लगा दिया कि “पत्थरबाजों के बजाय अरुंधति रॉय को सेना की जीप पर बंधना चाहिए!”.

जाहिर है कि परेश रावल का इशारा कश्मीर में, हाल ही में हुई उस घटना कि तरफ था, जहाँ सेना ने पत्थर बाजों से बचने के लिए एक कश्मीरी नौजवान को जीप के सामने बाँध लिया था (हालांकि सेना इस घटना कि जांच कर रही है).


सेना का ये क़दम सही था या गलत इसपर सहमती और असहमति कि बहुत सी बातें/बहसें सोशल मिडिया के लिए नई नहीं हैं. ये घटना एक ऐसी केस-स्टडी है जिस पर आगे भी बातें होती रहेंगी लेकिन सेना का ये क़दम राजनीति से किसी भी तरह प्रेरित नहीं था. हो भी नहीं सकता. जो लोग ऐसा समझते हैं उन्हें देश की सेना के बारे में अपनी समझ थोड़ी और बढ़ानी चाहिए.

अरुंधती रॉय का बयान

सोशल मिडिया में हो रहे इस हो-हल्ले पर कोई बात करने से पहले अरुंधती रॉय का वो कमेंट भी गौरतलब है जो 16 मई को एक वेब-साईट पर प्रकाशित हुआ. इसके मुताबिक, “मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुंधति राय ने कश्मीर में भारतीय आक्रमण को शर्मनाक बताया और कहा है कि “नई दिल्ली का दमन कश्मीरी संघर्ष को कमजोर नहीं कर सकता है”.

रिपोर्ट आगे कहती है कि; श्रीनगर की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने कहा कि “भारत अपने कब्जे वाली घाटी में अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता, भले ही सेना की तैनाती 7 लाख से बढ़ाकर 70 लाख हो जाय” उन्होंने ये भी कहा कि “कई वर्षों से कश्मीरी, भारत-विरोधी भावनाओं के प्रति लामबंद हैं”.

ये है वो बयान जिसके रिएक्शन में परेश रावल ने अपना ट्वीट किया. लेकिन सोमवार की सुबह से ही जिस तरह परेश रावल को निशाना बनाया जाता रहा वो सोशल मिडिया का एक तरफ़ा हमला है. लेखक यहाँ इस बात से इनकार नहीं कर रहा है कि ये एक-तरफा ट्रेंड कोई पहली बार हुआ है. ‘मोदी-भक्तों’ के नाम से भी ये एक-तरफा हमला हम कई बार देख चुके हैं या देख रहे हैं.

दरअसल हम अरुंधती रॉय से इससे बेहतर टिपण्णी कि उम्मीद कर भी नहीं सकते. उनके जो विचार 16 मई को प्रकाशित हुए वो उनका कोई नया स्टैंड नहीं है. वह घोषित तौर पर कश्मीर समस्या में एक विचार का प्रतिनिधित्व करती है जो भारतीय विचार से अलग है, और सीमा-पार बैठे कश्मीरी आकाओं के नज़रिए को खुश करता हुआ दिखता है.

किसकी बात कह रही हैं अरुंधती 

सच तो ये है कि अरुंधती जिन विचारों कि नुमैन्दगी करती हैं उसके लिए ये समय-काल बहुत उपजाऊ है. देश में मोदी सरकार पूरे बहुमत में है और इस विचारधारा से विपरीत है. पकिस्तान, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगातार अलग-थलग पड़ता जा रहा है.

ऐसे में कश्मीर ही ज़मीन का वो टुकड़ा है जहाँ से विपरीत विचारों की इस जंग में तेजी लाई जा सकती है. कभी सेना को निशाना बनाकर कभी मानवाधिकारों कि दुहाई देकर. इसके अलावा चीन-पकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का निर्माण भी इन हालात में घी डालने जैसा है.

कश्मीर के सिचुएशन सामान्य नहीं हैं, इससे किसी को भी इनकार नहीं हो सकता. कश्मीर में अलगाववादी सेना से जूझते रहने के नए-नए तरीके खोजते रहते हैं इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता. कश्मीर में सेना संयम दिखाने कि हर कोशिश करती है क्या इससे भी आखिर किसी को इंकार हो सकता है?

उमर फ़य्याज़ का भी कश्मीर

सवाल ये है कि अलगाववादियों कि नज़र से कश्मीर कि समस्या को देखना चाहिए, या कश्मीरी जनता कि नज़र से?

ज़ाहिर है कि लोगों कि सहमती कश्मीरी समस्या को कश्मीरी जनता कि नज़र से देखने पर ही बनेगी और बननी भी चाहिए. लेकिन इस सहमती में एक पेंच है. पेंच ये है कि कश्मीरी जनता दो हिस्सों में बंटी हुई है. एक कश्मीरी जनता वो है जो अपने बच्चे को लेफ्टिनेंट उमर फ़य्याज़ बनती है और एक कश्मीरी जनता वो है जो अपने बच्चे के हाथ में पत्थर थमाती है. कश्मीर में इन दोनों चरित्रों के पालनहारों के लिए एक ही शब्द है ‘कश्मीरी-जनता’.

अब इस जनता कि सीधी मुठभेड़, सेना से है. एक तरफ आतंकी हमले हैं और उन हमलों से टकराती सेना के बीच ये पत्थरबाज़ भीड़ की शक्ल में आते हैं ताकि सेना की एकाग्रता को विचलित किया जा सके. और जैसे ही सेना कि ये एकग्रता विचलित होती है, नतीजे में जनता हताहत होती है. जैसे ही ये होता है, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रेस का एक तबक़ा, फ़ौरन मानवाधिकार के चश्मे से घटनाओं कि पड़ताल करने लगता है.

ये एक न ख़त्म होने वाला सिलसिला है जिसकी आग पर हर विचार अपनी-अपनी रोटियाँ सेंक रहा है, और लेफ्टिनेंट उमर फ़य्याज़ जैसे बांके सैनिको की जानें जा रही हैं. क्या अरुंधती रॉय जैसों से कोई ये पूछेगा कि उनके बारे में उनका क्या ख़याल है जिनसे उमर फ़य्याज़ का भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट बनना बर्दाश्त नहीं हो पाता? और अगर ये सवाल पूछ भी लिया जाय तो ज़रूरी नहीं कि इसका जवाब मिल ही जाय.

बहरहाल, कश्मीर की वर्तमान स्थितियां दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही हैं. ऐसे में सोशल मिडिया से कोई निवेदन करना फुजूल है, वो एक खुला हुआ सांड है जो किसी तरफ भी मुड़ सकता है. हाँ, हम अपने नेताओं / सांसदों और विचारकों से ऐसी उम्मीद ज़रूर रख सकते हैं कि वे इस घड़ी में संयम का प्रदर्शन करें. कुलमिलाकर ये संयम कि परीक्षा का समय है.