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पार्ट 1: भारत में रहने वाले पाकिस्तानी हिंदुओं की कहानी...न खुदा मिला न विसाल-ए-सनम

आंखों में चमक के साथ वह कहते हैं कि सिंध जैसी जगह दुनिया में कहीं नहीं मिल सकती, सिंध और पश्तो जैसी मेहमान नवाजी कोई कर ही नहीं सकता

Nitesh Ojha

(नोट: हाल के समय में भारत में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या लोगों को वापस भेजे जाने का मसला राष्ट्रीय फलक पर छाया रहा है. देश के अलग-अलग तबकों से इस पर भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं आई हैं. ऐसे समय में फ़र्स्टपोस्ट हिंदी के लिए नीतेश ओझा ने दिल्ली में रह रहे उन पाकिस्तानी हिंदुओं की खोज-खबर ली है जो सालों से देश की राजधानी में रह रहे हैं. दो पार्ट की इस सीरीज में हमने जानने की कोशिश की है कि वो क्या कारण थे जिसकी वजह से इन लोगों ने भारत में शरण ली और यहां आने के बाद हमारी सरकार की तरफ से इन्हें क्या मदद दी जा रही है. )

हाल ही में भारत सरकार ने कुछ रोहिंग्या शरणार्थियों को देश से बाहर म्यांमार वापस भेज दिया है. भारत पहले ही संयुक्त राष्ट्र की 'शरणार्थियों की नीति' और उनके द्वारा दिए जाने वाले शरणार्थी कार्ड की मान्यता से इनकार कर चुका है. ऐसे में देशभर में रहने वाले रोहिंग्या शरणार्थियों को भी निकाले जाने का भय सता रहा है.


भारत में सिर्फ मुस्लिम रोहिंग्या शरणार्थी ही नहीं बल्कि कई और देशों के शरणार्थी भी रहते हैं. इनमें पड़ोसी देश पाकिस्तान के भी कुछ लोग हैं. गौर करने वाली बात है कि पाकिस्तान से आने के बाद दिल्ली में जिस जगह पर ये लोग बस गए हैं. उसे वहां के भारतीयों ने 'पाकिस्तानी मोहल्ला' नाम दे दिया है. गौरतलब है कि इस पाकिस्तानी मोहल्ले में रहने वाले शरणार्थी हिंदू हैं.

कहां मिलेगा आपको ये पाकिस्तानी मोहल्ला

साउथ दिल्ली के छतरपुर मेट्रो स्टेशन से 15 किलोमीटर दूर हरियाणा के फरीदाबाद की तरफ भाटी माइंस में संजय कॉलोनी है. इसी संजय कॉलोनी के आखिर में जंगल की तरफ एक मोहल्ला है. जिसका नाम है 'पाकिस्तानी मोहल्ला'. इस मोहल्ले के नाम से ही अंदाजा हो जाता है कि इसका जरूर पाकिस्तान के साथ कोई न कोई संबंध होगा.

यह बात सच भी है. इस मोहल्ले में रहने वाले ज्यादातर लोग पाकिस्तानी हैं. पाकिस्तानी हिंदू. जो पाकिस्तान से भाग कर भारत आए हैं. इनमें से कुछ के पास पासपोर्ट हैं तो कुछ गैरकानूनी तरीके से आए हैं. इनका आने का मकसद पूछो तो जवाब होता है 'धर्म के लिए आए हैं.'

पाकिस्तान से आए उन लोगों में से कुछ के पास पासपोर्ट है, जिन पर उनका धर्म हिंदू बताया गया है

हालांकि पाकिस्तान में मुस्लिम बहुल आबादी की प्रताड़ना से बच कर यह लोग धर्म की तलाश में हिंदुस्तान तो आ गए लेकिन हिंदुस्तानी न बन सके. साल 1984 में भारत आने वाले कालूराम हो या दो साल पहले आई कानोबाई सब अभी भी पाकिस्तानी के नाम से जी रहे हैं.

1984 में आए कालू राम, कहा- मुसलमान अपने पास नहीं बैठाते थे

इस मोहल्ले में हजारों की संख्या में रहने वाले इन पाकिस्तानी हिंदुओं में से यह पता लगा पाना की सबसे पहले यहां कौन आया, थोड़ा मुश्किल है. लेकिन यहां आपको 1947 बंटवारे के बाद से ही लोगों के आने के कई उदाहरण मिल जाएंगे. 1984 में कालू राम राठौर पाकिस्तान के अमरकोट के एक गांव से भारत आए. उनका कहना है कि वह पाकिस्तान में हिंदू होने के कारण प्रताड़ित किए जाते थे. उन्हें पाकिस्तानी मुसलमानों के बराबर बैठने का हक भी नहीं था.

पाकिस्तान में अपने दिनों को याद करते हुए कालू राम कहते हैं कि 'जब 1971 की जंग छिड़ी थी. तब एक भारतीय लड़ाकू विमान चार पाकिस्तानी लड़ाकू विमानों के बीच फंस गया था. हमें यह बात सुन कर दुख हो रहा था क्या करें हिंदू हैं न.' तभी खबर आई कि भारतीय लड़ाकू विमान पाकिस्तानियों को चकमा देता हुआ सुरक्षित निकल गया. यह सुन कर हिंदू मजहबी लोग ताली बजाने लगे. यह बात किसी मुस्लिम को पता चल गई और उसने इसकी शिकायत गांव के मुखिया से कर दी.

70 वर्षीय कालू राम का कहना है कि उस समय गांव के मुखिया ने उन्हें यह कह कर बचा लिया कि ये गरीब लोग हैं, ये क्या कर लेंगे. कालू राम के मुताबिक 'गांव का मुखिया भी हिंदू ही था जिसने बंटवारे के समय धर्म परिवर्तन कर लिया था. अगर वो न होता तो शायद उसी दिन मैं भी मारा जाता.'

पाकिस्तान के बारे में बताते हुए वहां से आए कुछ बुजुर्ग लोग

कालू राम राठौर के समय जो लोग भारत आए थे उन सभी का कहना लगभग यही है कि पाकिस्तान में उन्हें हिंदू होने के लिए प्रताड़ित किया जाता था. उन पर धर्म परिवर्तन करने के लिए दवाब बनाया जाता था. उन्हें अपने पास बिठाना तो दूर पानी भी पिला दें तो बड़ी बात थी. ऐसे में वह सब एक ही स्वर में कहते हैं 'हम अपना धर्म नहीं बदल सकते थे. इसलिए अपने धर्म के खातिर हम हिंदुस्तान आए.'

कालू राम जिस समय भारत आए तब बॉर्डर पर कोई तार-वार नहीं था. वह अपनी पत्नी को बुरका पहना कर आसमान में तारों के हिसाब से दिशा पता करते हुए हिंदुस्तान पहुंचे.

हालांकि इस से इतर 1998-99 में जो लोग आए उनका कहना है कि पाकिस्तान में उस समय तक धर्म के नाम पर प्रताड़ित नहीं किया जाता था. वह बस अपने सगे संबंधियों के कारण इस देश में आए थे. जो आजादी के पहले से ही हिंदुस्तान में रह रहे हैं. ऐसे में करीब 20 साल पहले भारत आने वाले कई लोगों के पास अब भारतीय नागरिकता भी है और उनका काम-धंधा भी जम चुका है.

12 साल पहले आया मंतार अब पूरी तरह से हिंदुस्तानी हो गया है

करीब 12 साल पहले भारत आने वाला मंतार तो अब पूरी तरह से भारतीय हो चुका है. उसने एक घर बना लिया है. उसके पास पैन कार्ड, लाइसेंस, वोटर कार्ड और आधार कार्ड भी है. उसने एक सेकेंड हैंड कार भी खरीद ली है. मंतार कालू राम का भतीजा है. वह भारत में ही पला-बड़ा है. उसको पाकिस्तान में गुजारे अपने बचपन के दिनों का कुछ खासा याद तो नहीं है. लेकिन आम हिंदुस्तानियों की तरह वह भी काल्पनिक आधार पर पाकिस्तान में हिंदुओं की दुर्गति की कहानियां सुनाता है.

टूटे मकानों के मलबे से बने अपने मकानों को दिखाते हुए पाकिस्तानी मोहल्ले के लोग

वह भाटी के बाकी पाकिस्तानी लोगों से मिलवाता हुआ कहता है कि यहां तो पाकिस्तान से लोग आते-जाते रहते हैं. काम-धंधे के सवाल पर मंतार कहता है, 'यहां कोई पुरानी बिल्डिंग तोड़ने का काम करता है तो कोई गड्ढे खोदने का. न कोई सरकारी नौकरी है न ही कोई सरकारी सहायता.' बातों-बातों में उसके मुंह से निकल जाता है कि अब यहां सब आपसी रंजिश में लग गए है. लोग एक दूसरे की चुगली करते हैं.

आपसी रंजिश की बात पर राणाराम और मुखर हो कर बोलते हैं. लेकिन उसके पहले वह मंतार की बात को काटते हुए कहते हैं कि अब वहां धर्म के नाम पर प्रताड़ित नहीं किया जाता. 1998 में पाकिस्तान से आने वाले एक और बुजुर्ग कहते हैं, 'मैं झूठ नहीं बोलूंगा, वहां सब ठीक है.' वह पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आए हैं. उनका कहना है कि 'पाकिस्तान हमारी जन्मभूमी है हम उसके बारे में झूठ नहीं बोलेंगे.'

यह कहते हुए उनकी आंखों में चमक आ जाती है. वह कहते हैं कि सिंध जैसी जगह दुनिया में कहीं नहीं मिल सकती. सिंध और पश्तो जैसी मेहमान नवाजी कोई कर ही नहीं सकता. ऐसे में जब मंतार बीच में सांप्रदायिकता की बात छेड़ देता है तब वह लोग कहते हैं कि वो तो दोनों मुल्कों में है, 'जैसे यहां भगत (धर्म के ठेकेदार) हैं ना वैसे ही वहां मुल्ला हैं. जो नफरत फैलाने का काम करते हैं.'

ऐसे में जब उन से सवाल किया गया कि जब वहां सब ठीक है तो यहां आने का क्या कारण है. इस बात पर वह एकमत होते हुए कहते हैं, 'बस तालीम और मजहब का मसला है. वह लोग कहते थे कि बच्चों को कुरान पढ़ाओ. हम कुरान नहीं पढ़ाते तो बच्चों के कम नंबर आते. फिर हमारे रिश्तेदार भी तो हिंदुस्तान में हैं. हिंदुस्तान से उनका मतलब सिर्फ हिंदुओं का देश है.'

इस बात पर और मुखर हो कर बोलते हैं राणा सिंह. वह कहते हैं, 'लोग कहते हैं कि वहां ये तंगी है वो तंगी है ये सब बकवास है. ये बातें वो लोग करते हैं जो वहां लूट के आते हैं. मैं 2017 में वहां (पाकिस्तान) गया था. मेरी मां है भाई है वो आज भी वहीं हैं.' राणा सिंह वहां के प्रशासन में काफी कमियां निकालते हैं और वहां कि पुलिस के बारे में साफ शब्दों में कहते हैं कि उनके पास इतनी ताकत नहीं है जितनी यहां कि पुलिस के पास है.

बकौल राणा सिंह, 'यहां सरदारी निजाम है पुलिस वाले लूट रहे हैं. वहां वह खुद आपस में लूट रहे हैं.' उनकी बातों से दोनों मुल्कों की स्थिति समान सी लगती है. तो फिर सवाल उठता है कि यहां क्यों आए हो. इस पर राणा सिंह बोलते हैं, 'हिंद देश है, हिंद देश के लिए आए हैं.'

पाकिस्तानी मोहल्ले में रहने वाले लोगों के पाकिस्तानी पासपोर्ट

लेकिन थोड़ी देर बाद उनका असली दर्द उभर कर आता है. दरअसल उनका कहना है कि उनके सगे भाई ने जो उनसे पहले भारत आया था. उसने उनकी जमीन पुलिस वालों के साथ मिल कर बेच दी. 'हम कुछ कर भी नहीं सकते.' उनका कहना है कि यहां भाई-भाई को काट रहा है. रिश्तेदार भी साथ नहीं दे रहे हैं. सरकार भी साथ नहीं दे रही है.

ऐसे में जब उनसे पूछा गया कि फिर वापस क्यों नहीं चले जाते. तो राणा सिंह भावुक हो कर कहते हैं, 'वहां जो जायदाद थी फूंक के यहां आ गए. सरकार किराया दे तो हम वापस चले जाएंगे. हम तो यहां आ कर फंस गए हैं. जो थोड़ा बहुत था वो खत्म कर के बैठे हैं अब.'

राणा भावुकता में बोल बैठते हैं 'पाकिस्तान लुटेरा है, पर यहां उस से ज्यादा लुटेरे हैं, खासकर ये भाटी. जो इनके खिलाफ बोलेगा ये उनको परेशान करेंगे. भगवान की कसम इनसे ज्यादा मुसलमान साथ देते थे.' इतने में काफी देर से बगल में शांत बैठा विशाल बोलता है कि जिन रिश्तेदारों के भरोसे यहां आए थे वो तो अब बोलना भी नहीं चाहते. हम जिस दिन आए थे उसके दो दिन बाद से ही पेट पालने के लिए काम पर लग गए थे. ये साथ दिया हमारे रिश्तेदारों ने.

18 साल के विशाल के साथ उसका हमउम्र उमेश भी था. उनसे पूछा कि क्या वहां तुम्हारे मुस्लिम दोस्त तुम्हें परेशान करते थे. तो वह दोनों एक आवाज में इनकार करते हैं. वह कहते हैं 'हमारे कई दोस्त मुसलमान हैं. बस मुल्ला लोग ही अपने बच्चों को हमारे साथ रहने से मना करते थे. बाकि वहां के कई दोस्त तो अभी भी हमसे वॉट्सऐप पर वीडियो कॉल करते हैं.'

18 साल के इन युवकों से भी जब सवाल किया गया कि यहां आने का क्या कारण है तब उन्होंने मासूमियत से कहा, 'शौक था अपना (हिंदुओं) देश है. गली गली में मंदिर मिलेंगे.'यह कह कर वो चुप हो जाते हैं. जब उन से सवाल किया कि वापस जाने का मन करता है तो बड़ी दबी सी आवाज में कहते हैं, 'मन तो करता है वापस जाने का लेकिन कैसे जाएं.' तभी उमेश बोल उठता है कि मौका मिला तो जरूर जाएंगे.

दिल्ली के एक छोर पर बसा है पाकिस्तानी मोहल्ला

पाकिस्तान में दोस्तों के बारे में पूछने पर वह बोलते हैं कि 'जावेद, इरफान लोग याद करते हुए बहुत खुश होते हैं. बॉलीवुड स्टार सलमान खान और शाहरुख खान का नाम सुनते हैं तो उनका भी मन करता है कि यहां आ जाएं.' बात बॉलीवुड की चल रही थी तो क्रिकेट कैसे पीछे रह जाता. ऐसे में वह लोग क्रिकेट की बातों में खो गए

जब सवाल किया गया कि क्या भारत मैच जीतता है तब वो लोग कुछ कहते हैं. इस पर राणा ने जवाब दिया, 'भारत जब वर्ल्ड कप जीता तब हम होटल में मैच देख रहे थे. इस दौरान वो लोग (सचिन) तेंदुलकर को गाली देने लगे तो कई लोगों ने उन्हें रोका. मैंने तो अपने घर पर डीटूएच लगवा लिया था.' तभी पीछे से विशाल बोलता है, यहां तो कुछ भी नहीं है वहां मैच के दो दिन पहले से ही सड़कों पर टीवी लग जाती है... (जारी)