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सेंसर बोर्ड क्यों करना चाहता है पद्मावती का नाम पद्मावत!

देखने वाली बात ये होगी कि क्या भंसाली की फिल्म भी उसी महानता को छू पाएगी जितना साहित्य की दुनिया में जायसी के पद्मावत का सम्मान है

Mahendra Saini

संजय लीला भंसाली की विवादित फिल्म पद्मावती को देखने के बाद सेंसर बोर्ड ने फिल्म का नाम पद्मावत करने का सुझाव दिया है. पद्मावत मलिक मोहम्मद जायसी का लिखा हुआ एक महाकाव्य है. जबकि महारानी पद्मावती को राजपूत अपने शान से जोड़ कर देखते हैं. फिल्म पद्मावती का नाम पद्मावत करने का मतलब है कि इस यह फिल्म जायसी के महाकाव्य पर बनाई गई है न कि राजस्थान की महारानी पद्मावत पर.

700 साल पहले की वीरगाथा अब एक बार फिर साकार होने को है. संजय लीला भंसाली उस महान कहानी को उसी भव्य अंदाज में पेश करने जा रहे हैं जितने भव्य रूप में मलिक मोहम्मद जायसी ने इसे 16वीं शताब्दी में साहित्य में उतारा था.


रानी पद्मिनी/पद्मावती हमेशा से दरबारों की कहानी कहने वाले भाट, चारणों का पसंदीदा पात्र तो रही ही हैं. वे आज भी कौतूहल का विषय हैं. शायद यही कारण है कि फिल्म के ट्रेलर को 4 दिन में ही 2.5 करोड़ से ज्यादा लोग देख चुके हैं. ट्रेलर में पद्मावती कहती है, ‘राजपूती कंगन में उतनी ही ताकत है, जितनी राजपूती तलवार में.’

कहानियों में पद्मावती की जिस तरह की भव्यता जिक्र मिलता है उससे लगता है कि वो किसी रियासत की रानी भर नहीं थी बल्कि एक बेहद खूबसूरत, दिमागी रूप से शक्तिशाली और कलाओं में दक्ष महान महिला थी.

जायसी की पद्मावती

मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत के मुताबिक रानी पद्मिनी चित्तौड़गढ़ के रावल रतन सिंह की पत्नी थी. 450 साल पहले सूफी-साहित्यकार मलिक मोहम्मद जायसी के लिखे 'पद्मावत' के मुताबिक वो सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की राजकुमारी थी. हरिमन तोता पद्मावती और रतन सिंह के प्यार से स्वयंवर तक की कड़ी और संदेशवाहक था.

चित्तौड़गढ़ से करीब 800 किलोमीटर दूर दिल्ली में ये समय सल्तनत काल था. 1303 ईस्वी में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला किया. चित्तौड़ पर यह किसी मुस्लिम शासक का पहला हमला था. इतिहास में इस हमले से जुड़ी कई कहानियां मिलती हैं.

'पद्मावत' के अनुसार चित्तौड़ से निष्कासित राघव पंडित ने अलाउद्दीन के सामने पद्मिनी की खूबसूरती का इतना बखान किया था कि उसने पद्मावती को पाने के लिए चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी. महीनों चित्तौड़ किले का घेरा डाले वह पड़ा रहा. लेकिन कोई नतीजा निकलता न देख उसने छल कपट की नीति अपनाई. संधि का नाटक कर उसने रतन सिंह को बंदी बना लिया.

इसके बाद बहादुर रानी पद्मिनी ने योजना के तहत सुल्तान को मिलने आने का पैगाम भिजवाया. 1600 डोलियों में रानी का लवाजमा दुश्मन के खेमें में पहुंचा. लेकिन इन डोलियों में रानी की दासियां नहीं बल्कि चित्तौड़ के सैनिक थे.

पद्मिनी गोरा और बादल नाम के अपने सेनापतियों की मदद से रावल को छुड़ाने में कामयाब रही. सुल्तान को पद्मिनी की इस चतुराई भरी वीरता का पता लगा तो उसने राजपूत सेना का पीछा किया. लेकिन रावल किले में पहुंचने में सफल रहे.

रतन सिंह के सुल्तान की कैद में होने के दौरान कुंभलनेर के राजा देवपाल ने पद्मिनी को विवाह प्रस्ताव भिजवाया था. रतन सिंह को पता चला तो वह देवपाल से युद्ध करने पहुंच गया. युद्ध मे देवपाल की मौत हो गई लेकिन रतन सिंह भी घायल हो गया.

कुछ दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई और पद्मिनी, रावल की पहली पत्नी नागमती के साथ सती हो गई. इसी समय अलाउद्दीन भी चित्तौड़ में घुस चुका था लेकिन पद्मिनी को पाने की उसकी इच्छा अधूरी ही रह गई.

एक कहानी ऐसी भी

एक दूसरी कहानी के मुताबिक, राघव पंडित से पद्मिनी की खूबसूरती की चर्चा सुनकर चित्तौड़ पहुंचे अलाउद्दीन ने रानी की एक झलक के बदले रतन सिंह को घेरा उठाने का प्रस्ताव भेजा. उसे शीशे में रानी का चेहरा दिखाया गया. लेकिन ये मुंह दिखाई ही चित्तौड़ के लिए काल बन गई.

पद्मावती की खूबसूरती देख कर तो जैसे अलाउद्दीन पागल ही हो गया. अब उसने अपना इरादा बदल दिया. उसने रतन सिंह को पद्मावती या चित्तौड़ के राज्य में से एक चुनने का पैगाम भेजा. रावल ने युद्ध चुना.

पद्मावती ने जौहर का साहसिक फैसला किया. अलाउद्दीन को उसके खूबसूरत शरीर की राख भी नसीब नहीं हुई. पद्मावती ने सैकड़ों दूसरी महिलाओं के साथ 'जौहर' कर राजपूताने के दूसरे 'साके' को पूरा किया.

क्या होता है साका?

राजपूत राज्यों में युद्ध के दौरान जब दुश्मन पर जीत की संभावना पूरी तरह खत्म हो जाती थी तो साका किया जाता था. साका के तहत दो काम किए जाते थे- केसरिया और जौहर. जौहर महिलाएं करती थी जबकि केसरिया पुरुष करते थे.

केसरिया अंतिम युद्ध होता था. इसमें सभी योद्धा सिर्फ मारने या मरने की ही शपथ लेते थे. यानी उन्हें जिंदा लौटना ही नहीं होता था. सभी योद्धा सिर पर केसरिया पगड़ी बांध लेते थे, किले के सभी दरवाजे खोल दिए जाते थे और ये केसरिया दस्ता इतनी तेजी से दुश्मन पर टूट पड़ता था कि वो भौंचक्का रह जाता था.

चूंकि इस केसरिया दस्ते को जिंदा नहीं लौटना होता था इसलिए पीछे रही रानियां और बाकी सभी महिलाएं भी जौहर के जरिए अपनी जान दे देती थी. जौहर यानी आग में जिंदा जल जाना. ये इसलिए होता था ताकि दुश्मन के नापाक हाथ उनके शरीर को छू न सकें.

1303 के तुरंत पहले और बाद के 250 वर्षों में रणथंभौर, चित्तौड़गढ़, झालावाड़, जैसलमेर में कई और साके हुए. जौहर का ये सिलसिला अकबर की राजपूत राजाओं के साथ संधि और वैवाहिक संबंधों के बाद ही खत्म हुआ.

पद्मावती का अर्धसत्य

पद्मावती और रतन सिंह की प्रेम कहानी के पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं. राजस्थान विश्वविद्यालय में इतिहास के शोधार्थी रामानंद यादव का कहना है कि ये जानकारी हमें सिर्फ साहित्य से मिलती है. साहित्य में भी या तो मलिक मोहम्मद जायसी इसका उल्लेख करते हैं या फिर फरिश्ता.

लेकिन जायसी ने चित्तौड़ युद्ध के करीब 300 साल बाद इसके बारे में लिखा तो फरिश्ता ने युद्ध के करीब 375 साल बाद पद्मिनी के बारे में बताया. जाहिर है, इसी वजह से इसकी सच्चाई पर सवाल उठ रहे हैं.

हालांकि, जायसी ने कहानी के लौकिक और अलौकिक रूप, प्रेम के समर्पण और वासना भरे दो पहलू और रूपक अलंकार का शानदार चित्रण किया है, लेकिन सच्चा इतिहास वो माना जाता है जिसका साक्ष्य हो.

राजस्थानी इतिहास के पुरोधा गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने पद्मिनी के श्रीलंका की होने या रतन सिंह से प्रेम-प्रसंग जैसी बातों का कहीं जिक्र नहीं किया है. अलाउद्दीन खिलजी के दरबारी साहित्यकार और युद्ध में साथ रहे अमीर खुसरो भी सिर्फ युद्ध का जिक्र करते हैं.

यही वजह है कि संजय लीला भंसाली की ये फिल्म विवादों में भी घिरी रही है. पहले राजपूतों ने भंसाली पर ऐतिहासिक तथ्यों से खिलवाड़ करने का आरोप लगाया. जयपुर में शूटिंग के दौरान उनसे हाथापाई भी की गई.

कुछ दिन पहले एक न्यूज चैनल के स्टिंग ऑपेरशन में ये भी दावा किया गया कि राजपूतों ने ये विरोध सिर्फ पैसा बनाने के लिए किया था. श्री राजपूत करणी सेना ने कुछ साल पहले आशुतोष गोवरिकर की जोधा अकबर को भी राजस्थान में रिलीज नहीं होने दिया था.

अब एक बार फिर ऐतिहासिक फिल्म को विरोध और बैन की मांग का सामना करना पड़ रहा है. हालांकि 4 दिन में ही पद्मावती के ट्रेलर को जैसा रिस्पॉन्स मिला है, उसे देख कर लगता नहीं कि लोग फिल्म देखने का मोह छोड़ पाएंगे. बस देखने वाली बात ये होगी कि क्या भंसाली की फिल्म भी उसी महानता को छू पाएगी जितना साहित्य की दुनिया में जायसी के पद्मावत का सम्मान है.

(यह लेख पहली बार 15 अक्टूबर, 2017 को प्रकाशित हुआ था, इसे हम दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं)