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भंसाली अगर अख़लाक़ होते तो मारे जाते

यूं ही रातों-रात कोई समाज सोशियोपैथ नहीं हो जाता. यूं ही रातों-रात आप उसे ठीक भी नहीं कर सकते.

Gaurav Solanki

अख़लाक़ मुसलमान नहीं था. भेड़ियों की भीड़ से घिरा एक इंसान था. भेड़िये मुसलमान भी हो सकते थे. अख़लाक़ हिंदू भी हो सकता था.

भंसाली अगर अख़लाक़ होते तो मारे जाते. तब उन पर हमले का कोई वीडियो भी नहीं बनता और पुलिस आती तो उनके पोस्टमॉर्टम से पहले उनकी स्क्रिप्ट को जांच के लिए भेजती. स्क्रिप्ट शायद अब भी जांची जाए पर फिर भी भंसाली अख़लाक़ नहीं हैं. हां, उनके हमलावर कुछ कुछ दादरी के हमलावरों जैसे ही हैं.


एक अफ़वाह फैलती है कि अपमान हुआ है या कत्ल - वहां गाय का, यहां इतिहास का - और भीड़ निकल पड़ती है, मां-बहन की इज्जत बचाने को मां-बहन की गालियाँ देती हुई. बेंगलुरु से बीकानेर तक लगभग वैसी ही भीड़, जिसके नाम में अक्सर सेना लगा होता है. यह बस संयोग ही है क्या कि इस देश के कई न्यूज एंकर पिछले एक-दो साल से हर बहस को सेना तक ले जाते रहे हैं और आपने उनके विरोध में कुछ कहा तो उसे सेना का अपमान बताते रहे हैं?

उन्हीं की लड़ाई को आगे बढ़ाती रही है ट्विटर पर एक सेना, जिसे कहते हैं कि कुतर्क करने का पैसा दिया जाता है, कि कॉल सेंटर में लोग नौ से पांच की नौकरियां करते हैं- नौकरियां जिनमें उन्हें अफवाहें फैलानी होती हैं, कलाकारों, विचारकों, लेखकों, पत्रकारों और दूसरी पार्टियों के नेताओं को गालियां देनी होती हैं, उन पर भद्दे चुटकुले गढ़ने होते हैं, बलात्कार की धमकियां देनी होती हैं सवाल उठाने वाली औरतों को और यूं डराना होता है बाकी सबको. इस तरह एक दंगा चलता है - नौ से पांच और पांच से एक और एक से नौ, तीन शिफ्टों में और इस पर घर चलते हैं उन नौजवानों के. ट्विटर पर एक सौ चवालीस भी नहीं लगती.

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जैसे भंसाली को करणी सेना ने मारा, अख़लाक़ को उसके ही गांव के लोगों ने मारा, वैसे ही मुझे लगता है कि ओम पुरी को कम से कम थोड़ा सा तो ट्विटर और न्यूज चैनलों ने भी मारा.

कौन हैं ये लोग, जो मार रहे हैं? कौन हैं जो कह रहे हैं कि ठीक मारा?

जिन्हें लगता है कि उनका सही दूसरों के सही से इतना ज़्यादा सही है कि उसकी रक्षा के लिए कुछ भी किया जा सकता है - हत्या या बलात्कार भी. नेताओं, लुटेरों और आतंकवादियों के गिरोह भी उनके ही भेस में आते हैं पर उन गिरोहों के बाहर भी करोड़ों लोग हैं - आम लोग - जिनका लश्कर-ए-तैयबा से कुछ लेना देना नहीं, जो किसी पार्टी की साइबर सैल में नौ से पांच की नौकरियां नहीं करते और न ही उन्हें गाली देने या मारने के पैसे मिलते हैं. वे घर परिवार वाले लोग हैं - सादे लोग - जिनकी भावनाएं एक विकृत से ढंग से बहुत जल्दी आहत हो जाती हैं.

यूं कि दुनिया भर में बेगुनाहों को मारते आतंकवादी इस्लाम का उतना अपमान नहीं करते, जितना इश्क करती, बुरका उतारती या मस्जिद में घुसती एक औरत कर देती है.

यूं कि एक राजपूत रानी पद्मावती को किसी कहानी में खिलजी सपने में भी देख ले तो सबका खून खौल उठता है पर सैंकड़ों राजपूत मर्द 18 साल की रूप कंवर को उसके पति के शव के साथ जिंदा जला देते हैं और किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आती. बल्कि वह सती घोषित कर दी जाती है, उस जगह पर मेला लगता है, उसमें लाखों लोग आते हैं.

एक मेले से दूसरे मेले के बीच वे लगातार गुस्से में रहते हैं क्योंकि अंदर कहीं, बहुत डरे हुए हैं या बहुत नाराज़ हैं.

इस देश का हिंदू इसलिए डरा हुआ है क्योंकि दिल्ली में सदियों पहले बही खून की नदियां उसे भुलाए नहीं भूलतीं और इसीलिए मोहम्मद गोरी और मोहम्मद अख़लाक़ में उसे बस ताकत का फ़र्क़ लगता है, नीयत का नहीं.

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इस देश का मुसलमान उन हिंदुओं की याददाश्त से डरा हुआ है, 'गदर एक प्रेमकथा' से डरा हुआ है, संसद में बैठे योगी आदित्यनाथ और ढहती हुई बाबरी मस्जिद से डरा हुआ है, और इससे भी डरा हुआ है कि उसे किसी भी सुबह किसी घर, गली या जेल में उन गुनाहों का हिसाब देना है, जो उसके धर्म के नाम पर किसी और ने किए हैं.

पर इतनी नाराजगी क्यों? क्या इसलिए भी कि उनके आज में उदासियों और नाइंसाफियों के अलावा कुछ भी नहीं? ऐसा आज, जिसमें छठी क्लास के किसी निबंध की लाइन की तरह अमीर और गरीब के बीच की खाई लगातार बढ़ रही है. वो बेकार बैठा है, उसके पास किराए के पैसे नहीं हैं, उसके कलेजे में एक प्रेशर कुकर है और इसीलिए अच्छा फील करने के लिए उसे पड़ोस में एक हारा हुआ पाकिस्तान चाहिए, अपनी जाति और धर्म के गौरव की कहानियां चाहिए और एक औरत चाहिए, जिसे वो भोग सके, मार सके, जला सके. हर रात जब वो भारत या हिंदुत्व या इस्लाम की महानता के वाट्सऐप मैसेज आपको फॉरवर्ड करता है तो दरअसल वह खुद से कह रहा होता है कि सब ठीक हो जाएगा. पर कुछ भी ठीक नहीं होता.

जब आप उदास होते हैं तो आप उन उदासियों के बड़े अर्थ ढूंढ़ते हैं. यही उसका एग्जिस्टेंश्यल क्राइसिस है. वो ढूंढ़ता है कुछ, जिस पर गर्व किया जा सके, जिसके लिए लड़ा जा सके और जो उसे महसूस करवाए कि वो जिंदा है. वहीं से धर्म दाखिल होता है उसकी जिंदगी में, वहीं से राष्ट्र.

और वैसे भी जिस समाज के पास वर्तमान में कुछ गर्व करने लायक नहीं होता, वह या तो अपनी शर्मनाक क्रूरताओं में गर्व ढूंढ़ता है या पीछे जाता है इतिहास में. मंदिर और मस्जिद में, राजाओं और उनकी बहादुरी की झूठी-सच्ची गाथाओं में और कभी-कभी उन बदसूरत मूल्यों में, जो उसे बताया गया है कि महान हैं. क्योंकि वही एक कुशन है इस चुभते हुए समय में. तभी पद्मिनी को महान होने के लिए जलना पड़ता है और उनमें से किसी को भी फर्क नहीं पड़ता कि उसके घर की पद्मिनियों पर क्या बीतती है, जब वे पंद्रह की उम्र में ब्याही जाती हैं और तीन बच्चों की मां बन जाती हैं उन्नीस तक.

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यही वो रास्ता है, जिसपे मर्द तो क्या, औरत भी औरत को भूल जाया करती है.

इस रास्ते पर जो भी अच्छा फील करवाता है, भगवान बन जाता है - कभी कोई किताब, कभी कोई इंसान और कभी कोई खयाल बस. ये सब ऑक्सीजन हो जाते हैं उसके लिए और जब मैं और आप, पद्मिनी को औरत समझकर उसकी कहानी कहते हैं, तब उसकी सांस घुटने लगती है. तब वो झपट्टा मारता है आपका हाथ अपनी गरदन पर से हटाने के लिए, अपनी नजरों में अपना अस्तित्व बचाने के लिए और हम समझते हैं कि यह अचानक हुआ है, कि यह पागलपन है. शायद है भी, पर इस पागलपन के पीछे एक लंबी कहानी है.

यूं ही रातों-रात कोई समाज सोशियोपैथ नहीं हो जाता. यूं ही रातों-रात आप उसे ठीक भी नहीं कर सकते.