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पद्मावत विवाद: सरकारों का डिफेंसिव खेल लोकतंत्र का 'जौहर' न करा दे

वोटबैंक के नाम पर पद्मावत विवाद में चल रहे सरकारों का डिफेंसिव तरीका पूरे देश के लिए नुकसानदायक है

Arun Tiwari

किसी फिल्म में फिल्माए दृश्यों के बारे में सबसे ऑथेंटिक सोर्स क्या हो सकता है? निश्चित रूप से उस फिल्म का डायरेक्टर. तो जब पद्मावती, जो कि अब पद्मावत है, के डायरेक्टर संजय लीला भंसाली ने एक वीडियो जारी कर लोगों के बीच यह बात स्पष्ट कर दी कि फिल्म में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच कोई ड्रीम सीक्वेंस नहीं फिल्माया गया है तो आखिर ये विवाद खिंचता ही क्यों जा रहा है?

आखिर ऐसा कौन है वो जो करोड़ों रुपए से तैयार फिल्म और सैकड़ों कलाकारों की मेहनत को बर्बाद करके ही मानना चाहता है? लोकेंद्र सिंह सिंह काल्वी करणी सेना के नेता के तौर पर पूरे देश में फिल्म को बैन करने की वकालत आखिर किस हैसियत से कर रहे हैं? वो कौन से शातिर दिमाग लोग हैं जो फिल्म के रिलीज हो जाने पर राजपूत महिलाओं के जौहर की धमकी दे रहे हैं? सिनेमाघरों पर कर्फ्यू लगाने की धमकी दे रहे हैं.


निश्चित रूप से सबकुछ सिर्फ आत्मसम्मान से नहीं जुड़ा है. दरअसल लोकतंत्र के अनगिनत फायदों के साथ जो कुछ सबसे बड़े नुकसान जुड़े है उनमें तुष्टिकरण भी एक है. सरकारें अपना राजनीतिक हित और वोटबैंक साधने के लिए ऐसी चीजों को बढ़ने देती हैं जो धीरे-धीरे व्यापक स्तर पर फैल जाती हैं. छोटे संगठन जिनकी पूरी वकत बहुत छोटे स्तर तक सीमित होती है उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर बहस का हिस्सा बना दिया जाता है. पद्मावत के साथ भी यही किया जा रहा है.

रानी पद्मावती की ऐतिहासिकता पर किसी भी इतिहासकार की मुहर नहीं है. मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत के अलावा इसका विवरण भी कहीं खोजे नहीं मिलता है. हां यह जरूर है कि राजस्थान के कई इलाकों में रानी पद्मावती के कैरेक्टर को लोग आदर्श के तौर पर देखते हैं.

इन इलाकों में उन्हें बेहद सम्मान के साथ जोड़कर देखा जाता है. और इसी वजह से जैसे ही करणी सेना जैसे संगठन को पता चला कि रानी पद्मावती पर कोई  फिल्म बनाई जा रही है तो फिल्म की शूटिंग के दौरान तोड़-फोड़ की गई फिर बाद में जब रिलीज की बारी आई तो महीनों से देशव्यापी विवाद चल रहा है.

अब इसमें सबसे दिलचस्प बात ये है कि विरोधकर्ताओं में से किसी ने फिल्म देखी नहीं है. लेकिन उन्हें पता है कि रानी के साथ फिल्म में अन्याय किया गया है! आखिर ये कैसी सोच है! जब फिल्म का डायरेक्टर इस बात की जिम्मेदारी ले रहा है तो आप किस पर भरोसा करेंगे? इसके अलावा फिल्म के ट्रेलर में जो राजूपतों की शान में कसीदे पढ़े गए हैं क्या वो विरोधकर्ताओं को झूठे लगते हैं. उस पर भी इनका कोई भरोसा नहीं है?

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दरअसल भारत में भले ही हॉलीवुड की फिल्मों का क्रेज पहले से ज्यादा बढ़ा हो लेकिन समाज में ऐसे तत्व भरपूर मात्रा में सक्रिय हैं जो आर्टिस्टिक लिबर्टी को अपनी सीमाओं में ही रख देना चाहते हैं. पद्मावत तो फिर भी एक बड़े समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है. तकरीबन दशक भर पहले एक छोटी सी लव स्टोरी नाम की एक फिल्म पर पूरे देश में खूब बवाल मचा था. लेकिन फिल्म रिलीज हुई और शायद देश में आज उसे कोई याद भी नहीं रखता.

लेकिन यहां मामला सिर्फ आर्टिस्टिक लिबर्टी तक सीमित नहीं है. राज्य से लेकर केंद्र सरकारों तक को समुदायों का ख्याल रखना होता है. यहां तक कि विपक्ष में बैठी पार्टियों को भी डर सता रहा होता है कि कहीं हमने कोई बयान दिया तो अमुक समुदाय हमसे गुस्सा न हो जाए! लेकिन आखिर में इन सबका निष्कर्ष क्या होता है? इन खबरों से एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर हमें नुकसान होता है या फायदा? आज हमारे सामने राजस्थान का राजपूत समुदाय है. कल शायद किसी और फिल्म के लिए कोई और समुदाय ऐसे ही खड़ा हो जाए तो क्या सरकारें फिर डिफेंसिव खड़ी होंगी? शायद ऐसा ही हो.

फिल्मों के लिए हमारे पास फिल्म प्रमाणन बोर्ड है लेकिन पद्मावती विवाद में ये संस्था बिल्कुल औचित्यहीन खड़ी है. गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया जिसमें उसने सभी राज्यों में बैन को खारिज कर दिया. लेकिन जैसे ही निर्णय आया उसके बिहार में एक सिनेमाघर में तोड़-फोड़ शुरू हो गई.

तो क्या माना जाए एक फिल्म के मसले पर हमारे देश की संवैधानिक संस्था का कोई सम्मान रह गया है? कोई छोटा सा संगठन सेंसर बोर्ड और सुप्रीम कोर्ट से ऊपर हो गया? क्या हमारी सरकारों के लिए भी तय करने का समय नहीं है कि करणी सेना जैसे संगठनों के उत्पात को कैसे रोका जाए. वरना धीरे-धीरे हमारे लिए कला की स्वतंत्रता सिर्फ किताबों में पढ़ने की बात बनकर रह जाएगी.