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पद्म पुरस्कार: संविधान ने उपाधि पर रोक लगाई तो अलंकरण प्रदान करने लगी केंद्र सरकार

सरकार की ओर से दिए जाने वाले अलंकरणों पर सवाल उठते हैं. क्या ऐसे अलंकरणों के औचित्य पर विचार करने की जरूरत नहीं है? पद्म पुरस्कारों पर एक नजर!

Surendra Kishore

संविधान निर्माताओं ने जब अंग्रेजों के जमाने की उपाधियों पर रोक लगा दी तो आजादी के बाद की भारत सरकार ने अलंकरण प्रदान करने शुरू कर दिए. पर ऐसे अलंकरण अक्सर विवादों में रहते हैं. ऐसे अलंकरण गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश की महत्वपूर्ण हस्तियों को प्रदान किए जाते हैं.

अगला गणतंत्र दिवस करीब आ रहा है लिहाजा इसको लेकर चर्चाएं शुरू हो चुकी हैं. इस पृष्ठभूमि में ऐसे अलंकरणों की एक बार फिर समीक्षा कर ली जाए.


अंग्रेजों के शासन काल में किसी को ‘राय बहादुर’ की उपाधि मिलती थी तो किसी को ‘खान बहादुर’ की. पर जब आजाद भारत के लिए  संविधान बनने लगा तो संविधान निर्माताओं ने यह तय किया कि ‘सेना या विद्या संबंधित सम्मान के सिवाए सरकार और कोई अन्य उपाधि प्रदान नहीं  करेगी.’

अब उपाधि नहीं अलंकरण का दौर

यह बात भारतीय संविधान के अनुच्छेद-18 में दर्ज है. पर, कुछ ही साल बाद जब केंद्र सरकार ने कुछ लोगों को उपाधियां देनी शुरू कर दीं तो उनका नाम ‘अलंकरण’ रख  दिया. जबकि अनेक प्राप्तकर्ता उन अलंकरणों का उपयोग अपने लिए उपाधि के रूप में ही करते हैं.

यह मामला कोर्ट में भी गया था. सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने यह वादा किया था कि कोई प्राप्तकर्ता पद्म पुरस्कार और भारत रत्न जैसे अलंकरण को अपने नाम के साथ आगे-पीछे उपाधि की तरह इस्तेमाल नहीं करेगा. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे जारी रखने की अनुमति दे दी. अदालत ने यह भी कहा था कि इस तरह के अलंकरणों की अधिकतम संख्या हर साल 50 से अधिक नहीं होनी चाहिए.

इसके बावजूद अदालती आदेश से दो फिल्मी हस्तियों को चार साल पहले पद्म पुरस्कार वापस करने पड़ गए थे. क्योंकि वे अलंकरण का अपने नाम के साथ इस्तेमाल कर रहे थे. उनका अलंकरण तो वापस ले लिया गया. पर अब भी देश में ऐसे अनेक लोग मौजूद हैं जिन्होंने अपने लेटरहेड तक में अपने नाम के साथ इन पद्म पुरस्कारों को छपवा रखा है. कुछ लोगों के आवास के नेमप्लेट में भी यह दर्ज हैं. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. आखिर ऐसे मामलों में कितने लोग अदालत जाएंगे?

दरअसल संविधान निर्माताओं को इस बात की आशंका थी भी कि कुछ लोग अन्य सामान्य लोगों से खुद को विशिष्ट दिखाने के लिए ऐसे अलंकरणों का इस्तेमाल करेंगे ही.

1977 में बंद कर दिया गया था अलंकरणों का चलन

साल 1977 में केंद्र में जब पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसने ऐसे अलंकरणों का चलन बंद कर दिया था. लेकिन 1980 में जब कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई तो इसे फिर से शुरू कर दिया गया.

इस संबंध में संविधान सभा में श्रीप्रकाश ने कहा था कि ‘यदि जनता किसी नेता को सम्मनित करना चाहती है तो वह कर सकती है. लेकिन हम इस घातक दुराचार उत्पन्न करने वाली प्रथा को मिटाना चाहते हैं,जो व्यक्तियों को विवश करती है कि किसी सम्मान विशेष की प्राप्ति के लिए अधिकारियों से अनुग्रह भिक्षा मांगता फिरे.’

सेठ गोविंद दास ने कहा था कि ‘फ्रांस की क्रांति और रूस की क्रांति के बाद वहां पर जितनी उपाधियां थीं, वे तमाम वापस ले ली गईं. क्या गुलामी के उन तमगों से हम लोगों का उद्धार करना नहीं चाहते? मैं चाहता हूं कि इस समय के उपाधिधारी भी स्वतंत्र भारत में उसी प्रकार के व्यक्तियों की तरह रह सकेंगे जिस तरह अन्य व्यक्ति रहेंगे.’

दरअसल संविधान निर्मातागण आजाद भारत में ऐसे नागरिक चाहते थे, जो किसी उपाधि के दबाव में आकर निर्णय नहीं कर सकें पर ऐसा नहीं हो सका.

विवादों में ही रहते हैं पुरस्कार

आजादी के 70 साल बाद भी इन पद्म पुरस्कारों के बारे में आम लोगों की क्या राय है? अपवादों को छोड़ दें तो पुरस्कार पर आए दिन विवाद होते रहते हैं.

नामों के चयन में कई बार प्रतिभा, योग्यता और क्षमता तथा देशसेवा की जगह किन्हीं अन्य बातों का ही अधिक ध्यान रखा जाता है.

यदि तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम.जी.रामचंद्रन को भारत रत्न 1988 में और सरदार बल्लभ भाई पटेल को 1991 में मिलेगा तो सवाल तो उठेंगे ही.

वह सर्वोच्च सम्मान कैसा जो भगत सिंह और मेजर ध्यान चंद को न मिल सके! इन दिनों उत्तर प्रदेश के एक अखबार ने हाॅकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद को भारत रत्न दिलाने के लिए अभियान चला रखा है. याद रहे कि ध्यानचंद की खेल प्रतिभा से हिटलर इतना प्रभावित था कि उसने ध्यानचंद को जर्मनी में बस जाने का आॅफर दे दिया था. उसने कई अन्य प्रलोभन भी दिए थे. पर ध्यानचंद ने उस आॅफर को ठुकरा दिया था.

मेजर ध्यान चंद को भारत रत्न न देने पर खेल प्रेमियों का एक तबका नाराज भी हुआ था

इन अलंकरणों के बारे में सरदार खुशवंत सिंह ने सन 2008 में अपने काॅलम में लिखा था कि ‘हर साल होने वाले इन चयनों में किस बात का ध्यान दिया जाता है, यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया. मेरा मानना है कि इन चयनों के लिए सिर्फ नेतृत्व क्षमता ही नहीं बल्कि आम आदमी के लिए सेवा भाव भी देखना चाहिए. क्योंकि यही वह भाव है जो इन लोगों को नेता बनाता है.’

लेकिन पद्म पुरस्कारों को लेकर पक्षपात की बात तब खुलकर सामने आई जब 1989 में केंद्र में सत्ता में आई गैर कांग्रेसी सरकार ने पत्रकारों में से उन हस्तियों को पद्म पुरस्कार दे दिए जिन्होंने बोफर्स घोटाले के खिलाफ जमकर लिखा था. यहां तक तो ठीक है. लेकिन बाद की सरकार ने उन पत्रकारों को पद्म पुरस्कार दे दिए जिन्होंने बोफर्स घोटाले को लेकर तब की उस सरकार का बचाव किया था जिस पर घोटाले का आरोप लग रहा था.

कई लोग पूछते हैं कि क्या अब भी ऐसे अलंकरणों के औचित्य पर विचार करने की जरूरत नहीं है?