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‘आधार’ की अनिवार्यता: सुप्रीम कोर्ट से जल्द फैसला क्यों नहीं

नोटबंदी और जीएसटी जैसे तथाकथित गेम चेंजर जब अर्थव्यवस्था के लिए बोझ बन गए तब ‘आधार’ पर जल्दबाजी सरकार के लिए कहीं संवैधानिक संकट का सबब न बन जाए?

Virag Gupta

रिजर्व बैंक ने सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) के जवाब में बताया है कि प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग कानून में जून 2017 में हुए बदलाव के अनुसार अब सभी बैंक खातों को ‘आधार’ से लिंक करना जरूरी है. क्या रिजर्व बैंक को नियामक के तौर पर इस बारे में बैंकों को व्यापक दिशा-निर्देश नहीं जारी करने चाहिए थे?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा फरवरी 2017 में दिए गए फैसले की आड़ में दूरसंचार विभाग ने भी 23 मार्च, 2017 को सर्कुलर जारी कर के सभी मोबाइल नंबरों को ‘आधार’ से लिंक करना जरूरी कर दिया है. सरकार द्वारा ‘आधार’ को जरूरी बनाए जाने की बेजा पहल से उपजे सवालों के जवाब, लोकतांत्रिक व्यवस्था में बेहद जरूरी हैं.


सुप्रीम कोर्ट में ‘आधार’ पर जल्द फैसला क्यों नहीं

सभी बैंक खातों को दिसंबर 2017 और मोबाइल को फरवरी 2018 तक ‘आधार’ से लिंक करने की अनिवार्यता को नई याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. दूसरी तरफ ‘आधार’ की वैधता और अनिवार्यता को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाएं पिछले 5 साल से सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं. ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ की तर्ज पर देर से किए गए अदालती फैसलों से मरीज को समय पर इलाज ही नहीं मिलता. ‘आधार’ पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा जल्द फैसला न्यायिक अनुशासन के साथ, आम जनता का अदालतों के प्रति सम्मान भी बढ़ाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया

सरकारी योजनाओं का लाभ न लेने वालों के लिए ‘आधार’ की अनिवार्यता पर जोर क्यों

सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त और फिर 15 अक्टूबर, 2015 को आधार को ऐच्छिक रखने के लिए सरकार को स्पष्ट निर्देश दिए थे. ‘आधार’ की अनिवार्यता से सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार कम होने के सरकारी दावों पर किसे विरोध हो सकता है. सवाल यह है कि जो लोग सरकारी योजना का लाभ नहीं ले रहे, उनके मोबाइल, बैंक खातों, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, पैन, इनकम टैक्स, हवाई टिकट जैसे रुटीन मामलों में ‘आधार’ को जरूरी बनाने की जिद से क्या हासिल होगा?

केवाईसी प्रक्रिया पूरी करने वाले ग्राहकों पर ‘आधार’ का बेजा दबाव क्यों?

मोबाइल पोस्टपेड नंबरों में ग्राहकों का विस्तृत वेरिफिकेशन होने के साथ बैंकिंग व्यवस्था से बिल का भुगतान होता है. बैंक खातों में अन्य दस्तावेजों के तहत नियमित केवाईसी जांच के अनेक नियमों के बावजूद ‘आधार’ की अनिवार्यता पर जोर गैरवाजिब है. ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कन्फेडरेशन (एआईबीओसी) ने भी सरकार से मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसला आने तक बैंक खातों से ‘आधार’ से जोड़ने की अनिवार्यता को स्थगित कर देना चाहिए.

जनता के पास सुप्रीम कोर्ट के अलावा अन्य कानूनी उपचार नहीं

संविधान के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश का कानून माना जाता है परंतु भावी फैसले के अनुपालन के लिए तो सरकार कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ रही! सुप्रीम कोर्ट ने 24 मार्च, 2014 के अंतरिम आदेश से ‘आधार’ के डाटा शेयरिंग पर रोक लगाने के साथ ‘आधार’ को जरूरी बनाने पर भी रोक लगाई थी. ‘आधार’ को जरूरी बनाए पर सुप्रीम कोर्ट स्वयं भी अवमानना की कारवाई शुरू कर सकती है, पर आम जनता के पास तो कोई अन्य कानूनी विकल्प नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्राइवेसी और डेटा पर प्रभावी कानून क्यों नहीं

सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों ने सर्वसम्मति से प्राइवेसी को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मूल अधिकार माना है जिन्हें आपातकाल में या फिर कानून के तहत ही निरस्त किया जा सकता है.

मनी बिल के तौर पर पारित कराने के बाद प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग कानून में बदलाव से ‘आधार’ को जरूरी बनाए जाने से, कानून निर्माण में सरकार की विफलता स्पष्ट होती है. प्राइवेसी और डेटा सुरक्षा के उल्लंघन के लिए कठोर दंड के व्यापक समन्वित प्रावधानों से लोगों को कानूनी भरोसे के ‘आधार’ से सरकार क्यों नहीं लिंक करती?

‘आधार’ पर जल्दबाजी संवैधानिक संकट का सबब न बन जाए

देश में अधिकांश परिवारों के पास मोबाइल और बैंक अकाउंट हैं, जिन पर ‘आधार’ को थोपे जाने से सरकार की साख पर आंच आ सकती है. नोटबंदी और जीएसटी जैसे तथाकथित गेम चेंजर जब अर्थव्यवस्था के लिए बोझ बन गए तब ‘आधार’ पर जल्दबाजी सरकार के लिए कहीं संवैधानिक संकट का सबब न बन जाए?