पर्यावरणविद और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पूर्व वैज्ञानिक महेंद्र पांडे ऑड-ईवन को वायु प्रदूषण रोकने का असरदार उपाय नहीं मानते हैं. वो अति प्रचारित इस कदम के खिलाफ दलीलें देते रहे हैं. पिछले दिनों उन्होंने ऑड-ईवन लागू करने की दिल्ली सरकार की योजना के खिलाफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में याचिका दायर कर सुर्खियां बटोरी थी. आखिरकार दिल्ली सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. उन्होंने शहर में वायु प्रदूषण की समस्या पर फ़र्स्टपोस्ट से विस्तार से बात की.
लंबे वक्त से आपकी दलील है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण का हल ऑड-ईवन नहीं है. क्या आप अपने रुख के बारे में विस्तार से बता सकते हैं?
महेंद्र पांडे: जब पिछले साल पहली बार ऑड-ईवन लागू हुआ था तो केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस दौरान दिल्ली की एयर क्वॉलिटी की स्टडी की थी. रिपोर्ट में सामने आया था कि दिल्ली की खराब वायु गुणवत्ता पर ऑड-ईवन का कोई असर नहीं हुआ. ऑड-ईवन के कुछ शुरुआती दिनों में एयर क्वालिटी और खराब हुई. ऑड-ईवन के दूसरे फेज में दिल्ली के एयर में ओजोन का कॉन्संट्रेशन और बढ़ गया.
मेरा मानना है कि हमलोग वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, लेकिन इससे सकारात्मक नतीजे सामने नहीं आए. वाहनों से होने वाला उत्सर्जन रोकने के लिए शहर में बसों की संख्या बढ़ाई गई, बाद में सीएनजी वाहन चलाए गए. पुराने और डीजल वाहनों को सड़कों से हटा दिया गया, लेकिन वायु प्रदूषण नहीं घटा. इसके बावजूद हाल के सालों में इसमें बढ़ोतरी ही हुई है. ऑड-ईवन लागू करना गलत लक्ष्य पर निशाना साधना है.
लंबे समय से आप दावा कर रहे हैं कि वाहनों से निकलने वाला धुआं दिल्ली के वायु प्रदूषण की बड़ी वजह नहीं है. इस सोच के पीछे क्या कारण हैं?
महेंद्र पांडे: मैंने यह नहीं कहा है कि दिल्ली के वायु प्रदूषण की एक बड़ी वजह वाहनों से निकलने वाल धुआं नहीं है. मेरी दलील है कि यह सबसे बड़ा कारण नहीं है. इससे भी बड़े कारण हैं, जिन पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन ध्यान नहीं दिया जा रहा.
पिछले साल केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से की गई स्टडी में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि सर्दियों में दिल्ली की एयर में पीएम 10 और पीएम 2.5 में वाहनों से निकलने वाले धुएं का हिस्सा महज 20 से 25 फीसदी है. यही बात आईआईटी खड़गपुर की स्टडी में भी है, जिसके मुताबिक शहर में कुल पीएम 10 इमिजन लोड 143 t/d अनुमानित है.
पीएम10 के चार सबसे बड़ी वजह रोड डस्ट (56%), कंक्रीट बैचिंग (10%) इंडस्ट्रियल प्वाइंट सोर्सेज (10%) और वाहन (9%) हैं. आईआईटी की स्टडी में यह भी सामने आया कि शहर में पीएम2.5 का इमिजन लोड 59 t/d अनुमानित है. इसकी चार सबसे बड़ी वजहों में रोड डस्ट (38 %), वाहन (20 %), घर में ईंधन जलाना (12 %) और इंडस्ट्रियल प्वाइंट सोर्सेज (11%) हैं.
ऐसी स्थिति में वाहनों से निकलने वाले धुएं की तरह औद्योगिक उत्सर्जन को भी समान महत्व देते हुए उससे क्यों नहीं निपटा जाता है? कल-कारखाने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति की निगरानी में आते हैं.
अगर औद्योगिक प्रदूषण से दिल्ली के पर्यावरण को होने वाले नुकसान पर ध्यान दिया जाए तो इससे दोनों विभागों का नकारापन सामने आ जाएगा. इसलिए दोनों विभागों की ये प्रवृत्ति बन गई है कि वो लोगों का ध्यान वाहनों से निकलने वाले धुएं की तरफ खींचते हैं ताकि उनकी जान बची रहे. क्योंकि वाहन परिवहन विभाग के अधीन आते हैं न कि इन दोनों विभागों के.
ग्रेडेड एक्शन रिस्पांस प्लान (जीआरएपी) में भी ऑड-ईवन का उपाय शामिल है, ताकि दिल्ली के वायु प्रदूषण को कम किया जा सके. क्या आप यह कह रहे हैं कि वैज्ञानिक स्टडी से इसके प्रभाव का आकलन किए बिना इसे शामिल किया गया?
महेंद्र पांडे: यह हास्यास्पद है क्योंकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने खुद कहा है कि एयर पॉल्यूशन रोकने में ऑड-ईवन बेअसर रहा. मेरा मानना है कि लोगों को मूर्ख बनाने के लिए इसे जीआरएपी में शामिल किया गया.
पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने का दिल्ली की एयर पर कितना असर होता है? इस पर कैसे नियंत्रण पाया जा सकता है?
महेंद्र पांडे: दिल्ली के वायु प्रदूषण में पराली की हिस्सेदारी पर कोई स्टडी नहीं हुई है. सर्दियों में दिल्ली में पंजाब और हरियाणा की तरफ से हवा चलती है. इससे वहां पराली जलाने से पैदा होने वाले हानिकारक तत्व शायद दिल्ली पहुंच जाते हैं.
हमें यह जानना होगा कि दिल्ली के वायु प्रदूषण में पराली का कितना योगदान है, तभी हम इसका समाधान निकाल सकेंगे.पराली से ईंधन और फर्टिलाइजर बनाने की कई सारी तकनीक मौजूद है और इनका उपयोग किया जा सकता है.
दिल्ली की वायु गुणवत्ता को अति खतरनाक स्तर पर पहुंचने से बचाने के लिए कौन से एहतियाती कदम उठाए जा सकते थे?
महेंद्र पांडे: प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने के तुरंत बाद, सौ से अधिक कारखानों को बंद करने का एलान किया गया. इससे यह सिद्ध हुआ कि दिल्ली के वायु प्रदूषण में इन उद्योगों का हिस्सा तय सीमा से ज्यादा था, और इसे रोकने के लिए तब तक कोई कदम नहीं उठाया गया जब तक कि वायु गुणवत्ता अति खतरनाक के स्तर पर नहीं पहुंच गई.
संबंधित कानूनों के मुताबिक इनके खिलाफ पहले कार्रवाई क्यों नहीं की गई? तब क्यों की गई, जब इनसे होने वाला प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच गया और इन्हें बंद करने का आदेश दिया गया?
अगर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने अपना काम ईमानदारी से किया होता तो हमें दिल्ली के वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए एहतियाती कदम नहीं उठाना पड़ता. ये उद्योग इन विभागों की अनुमति से ही चल रहे हैं. लेकिन इन उद्योगों के उत्सर्जन स्तर की निगरानी संतोषजनक नहीं है. उदाहरण के लिए कंस्ट्रक्शन और इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को लीजिए.
इन्हें इस शर्त के तहत अनुमति दी जाती है कि ‘अनापत्ति प्रमाण पत्र’ हासिल करने वाली पार्टी इन प्रोजेक्ट्स में धूल से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करेगी. लेकिन कई प्रोजेक्ट्स में इस शर्त का पालन नहीं किया जाता है. ‘अनापत्ति प्रमाणपत्र’ हासिल करने वाली बॉडीज को हर छह महीने में पर्यावरण से जुड़े नियमों के पालन की रिपोर्ट भी सौंपनी होती है. अगर इन नियमों का ईमानदारी से पालन होता तो दिल्ली की वायु गुणवत्ता खतरनाक स्तर पर नहीं पहुंचती. यही मामला कचरा जलाने में भी है. कचरा जलाना गैर-कानूनी है,लेकिन लैंडफील्स में ऐसा हर दिन होता है. ऐसा करने वाले लोगों या विभागों पर जुर्माना क्यों नहीं लगाया जाता है?
क्या प्रभावी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था वायु प्रदूषण की समस्या से निजात दिला सकती है?
महेंद्र पांडे: मुंबई वालों के विपरीत दिल्ली के निवासी सार्वजनिक परिवहन में यात्रा के अभ्यस्त नहीं हैं. हम निजी वाहन के उपयोग के अभ्यस्त हैं. दिल्ली एनसीआर की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में कई खामियां हैं.
कई जगहों पर मेट्रो फीडर बस सेवा से जुड़ी नहीं है. अगर बाधारहित पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था हो तो शायद कुछ हद तक वाहनों से उत्सर्जन में कमी आ सकती है. लेकिन इसके लिए काम के घंटों में बदलाव करना होगा ताकि सड़कों पर जाम नहीं लगे और उत्सर्जन कम हो.