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अब 5वी और 8वीं में स्टूडेंट्स होंगे फेल: हमारा सिस्टम असफल होगा या मासूम बच्चे

5वीं और 8वीं क्लास में बच्चों को फेल किया जाए या नहीं? स्कूली शिक्षा से जुड़े लोगों, शिक्षाविदों और पैरेंट्स के बीच बड़ी कश्मकश है. लेकिन इसी बीच केंद्र सरकार के इस फैसले का विरोध बढ़ गया है.

Ashwini Kumar

5वीं और 8वीं क्लास में बच्चों को फेल किया जाए या नहीं? स्कूली शिक्षा से जुड़े लोगों, शिक्षाविदों और पैरेंट्स के बीच बड़ी कश्मकश है. लेकिन इसी बीच केंद्र सरकार के इस फैसले का विरोध बढ़ गया है. आरोप है कि सरकार अपने फेल एजुकेशन सिस्टम की नाकामियों को छुपाने के लिए बच्चों को फेल करने का रास्ता चुन रही है.

विरोध कर रहे लोगों के तर्क तथ्यों पर आधारित हैं. 2015-16 के एक सर्वे के मुताबिक पढ़ाई बीच में छोड़ देने वाले बच्चों में से 3.5 प्रतिशत ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वो अपनी क्लास में फेल हो गए थे. नए फैसले का विरोध कर रहे लोग सरकार की उस दलील को भी खारिज कर रहे हैं, जिसमें कहा गया है कि नो डिटेंशन पॉलिसी (एनडीपी) आने के बाद पढ़ाई का स्तर गिरा है और रिजल्ट खराब आ रहे हैं. इसके खिलाफ तर्क ये है कि पढ़ाई में जिस गिरावट की बात सरकार कर रही है वो तो 2005 से ही जारी है.


सरकारों की मोहताज क्यों है शिक्षा व्यवस्था?

यूपीए सरकार ने कुछ किया. मौजूदा मोदी सरकार ने उससे अलग किया. मुमकिन है कि अगली सरकार कुछ और करेगी. सवाल ये नहीं है कि गलत क्या है और सही क्या? हमारी शिक्षा व्यवस्था सरकारों के बदलने के साथ इतने बड़े पैमाने पर बदल क्यों जाती है? एक सरकार 5वीं और 8वीं क्लास में बच्चों को फेल करने को गलत मानती है, दूसरी इसे जरूरी बताती है. एक सरकार सीबीएसई की बोर्ड परीक्षाओं में ग्रेस मार्क्स को जायज कहती है, दूसरी गैरजरूरी. एक सरकार दसवीं बोर्ड स्कूल में ही देने का विकल्प देती है, दूसरी इस विकल्प को हटा देती है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

तो क्या अब पेरेंट्स अपने बच्चों की पढ़ाई की योजना दिल्ली की गद्दी पर काबिज या काबिज होने की संभावना वाली सरकारों का अनुमान लगाकर बनाएं? यानी जिन बच्चों को 2019 या 2020 में दसवीं या बारहवीं बोर्ड की या फिर पांचवीं/आठवीं की परीक्षा देनी है, उन्हें नहीं पता कि उनके साथ क्या सलूक होने वाला है? क्योंकि हमें नहीं पता कि 2019 में एनडीए की सरकार बनेगी, यूपीए की या फिर महागठबंधन की?

हायर एजुकेशन में भी स्थिति अलग नहीं है. मौजूदा सरकार के हायर एजुकेशन बिल का विरोध हो रहा है और उसे गैरजरूरी बताया जा रहा है. हालांकि शिक्षा मंत्री ने सफाई दी है कि हायर एजुकेशन कमीशन खुद में स्वतंत्र होगा, लेकिन विपक्ष और कई दूसरे संगठन ये मानने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे किसी बदलाव का सरकार बदलने पर क्या हश्र हो सकता है, कोई भी समझ सकता है.

तो क्या शिक्षा पर एक टिकाऊ राष्ट्रीय नीति नहीं होनी चाहिए? शिक्षा से जुड़े फैसलों में स्थायित्व का फैक्टर कैसे लाया जाए?

ध्यान रहे स्थायित्व और टिकाऊ होने की बात शिक्षा को लेकर जो एक बेसिक सोच होनी चाहिए उसकी हो रही है, न कि शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले वैश्विक बदलाव और नए-नए विषयों की. क्योंकि ये परिवर्तन तो दरअसल शिक्षा की गुणवत्ता विश्वस्तरीय बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी हैं.

फेल सिस्टम कर रहा है शिक्षा पर प्रयोग

समस्या ये है कि शिक्षा के साथ प्रयोग शिक्षा व्यवस्था में बैठे वो लोग कर रहे हैं, जो खुद कई मोर्चों पर फेल हैं. इसकी ताजा बानगी 12वीं के पेपर्स के री-इवैलुएशन में दिखी. 12वीं के नतीजों के बाद करीब 66 हजार छात्रों ने री-इवैलुएशन के लिए अर्जी दी, जिनमें से 4632 छात्रों को पहले से ज्यादा नंबर मिले. अगर बोर्ड एग्जाम में कॉपियों की जांच प्रक्रिया में इतनी बड़ी खामी है, तो पहले ऐसी चीजों को दुरुस्त करने की जगह आप 10 और 13-14 साल के बच्चों को फेल करने का फैसला ले रहे हैं. क्या कभी उन टीचर्स के बारे में सोचा गया, जो कॉपियां जांचने में ही फेल हो रहे हैं? हद तो ये कि री-इवैलुएशन के बाद 12वीं का टॉपर ही बदल गया!

अच्छे मार्क्स ही मेधा के प्रमाण क्यों हैं?

देश में सर्वाधिक मेधा वाले छात्र सिविल सेवा में जाते हैं. सही या गलत, लेकिन ऐसी गहरी धारणा हमारे बीच है. मौजूदा सरकार ने हाल ही में प्रशासन में दूसरे क्षेत्र के अनुभवी और काबिल लोगों को जगह देने का फैसला लिया है. यानी सरकार मानती है कि जिन्होंने संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा पास नहीं की है वो भी प्रशासन की बारीकियों को समझ सकते हैं और उसे दक्षता के साथ चला सकते हैं. स्कूल और कॉलेज के स्तर पर क्या ये सोच है? नहीं. शायद न स्कूल प्रबंधकों में और न ही पैरेंट्स में हमारे लिए बच्चों की काबिलियत का एक ही पैमाना है, वो पढ़ने-लिखने में कैसे हैं? और इससे भी बढ़कर उनके मार्क्स कितने आते हैं?

स्कूलों में पढ़ाई के साथ दूसरी विधा के लिए समानान्तर व्यवस्था बनाने की सोची जा सकती है. पढ़ाई में कमजोर लेकिन किसी दूसरी चीजों में अव्वल बच्चे के बारे में स्कूल के प्रतिनिधि पेरेंट्स से बात कर सकते हैं. उन्हें सुझाव दे सकते हैं. लेकिन ऐसी व्यवस्था शायद ही किसी स्कूल में है.

कुआं और खाई वाली स्थिति !

फिलहाल बहस इस बात पर है कि 5वीं और 8वीं कक्षा में बच्चों को फेल किया जाए या नहीं? दरअसल, ये कुआं और खाई वाली स्थिति है. फेल करना बच्चों के मोराल को तोड़ने वाला फैसला है, तो पढ़ाई में कमजोर होने के बाद भी आगे की कक्षा में प्रमोट करते जाने का मतलब एक ऐसी इमारत बनाने की कोशिश की तरह है, जिसकी बुनियाद ही मजबूत नहीं है.

प्रतीकात्मक तस्वीर

तो फिर सही रास्ता क्या है? जानी-मानी साइकोलॉजिस्ट और करियर काउंसलर अरुणा ब्रूटा कहती हैं कि- “बच्चे को आठवीं कक्षा में तो फेल कर सकते हैं, क्योंकि तब तक वो कुछ हद तक परिपक्व हो चुके होते हैं। लेकिन पांचवीं कक्षा में फेल करने की बात तो बिल्कुल गलत है, क्योंकि तब बच्चे की पूरी जिम्मेदारी मां-बाप और स्कूल की होती है और उसका फेल होना मेरे हिसाब से मां-बाप और सिस्टम का फेल होना है.'

यही नहीं, अरुणा ब्रूटा का ये भी कहना है, 'आठवीं में भी सिर्फ आप बच्चे को फेल कर अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं मान सकते. आपको इसके बाद उस बच्चे की हर स्तर पर काउंसिलिंग करनी चाहिए, जिससे कि भविष्य में ऐसी दिक्कत न आए. साथ ही री-टेस्ट का एक मौका भी उसे जरूर मिलना चाहिए.;'

जबकि एक और साइकोलॉजिस्ट मनीषा सिंघल बीच का रास्ता निकालने पर जोर देती हैं. उनका कहना है कि शिक्षा को सिर्फ किताबों और मार्क्स से निकालकर इसे और विस्तार देने की जरूरत है.'

बहरहाल, सबसे बड़ा मुद्दा फिर से यही है कि सही क्या है? और हमारी सरकारें और उनकी बनाई शिक्षा व्यवस्था ने अभी तक इसी बात को तय नहीं किया है। क्या शिक्षा जैसे मसले पर राष्ट्रीय सहमति की जरूरत नहीं है? और ऐसी सहमति के लिए क्या सरकार, विपक्षी पार्टियां, शिक्षाविद्, स्कूलों के प्रबंधक और पेरेंट्स के नुमाइंदों का राष्ट्रीय प्लेटफॉर्म नहीं बनाना चाहिए? क्योंकि इसके बिना तो शिक्षा के साथ प्रयोग ही होता रहेगा.

ध्यान रहे. हमने यहां कई राज्यों के बोर्ड्स की बात नहीं की है. उनका कच्चा चिट्ठा खोला जाए, तो हरेक पर एक किताब लिखी जा सकती है और उसमें नकल, पेपर लीक और टॉपर घोटाले से लेकर तमाम नकारात्मक बातें ही ज्यादा भरी पड़ी होंगी. और इनमें से किसी भी चीज के लिए छात्र नहीं, सिर्फ हमारी शिक्षा व्यवस्था और उसमें बैठे लोग जिम्मेदार हैं. लेकिन फेल सिर्फ बच्चे कहलाते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)