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महज बौद्धिक जुगाली का अड्डा बनकर रह गया है नीति आयोग

नीति आयोग में मुक्त व्यापार के अर्थ विशेषज्ञों को ज्यादा तरजीह दी गई है, जिन्हें शासन-प्रशासन का कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है

Rajesh Raparia

नीति आयोग गठन के कैबिनेट मंजूरी के पाठ में स्वामी विवेकानंद का एक उद्धरण है 'एक विचार लें. उस विचार को जीवन बनाएं. उसी के बारे में सोचें, उसका सपना देखें और उस विचार को जीएं. मस्तिष्क, मांसपेशी, स्नायु तंत्र, अपने शरीर के प्रत्येक अंग को उस विचार में लीन कर दें. यही सफलता का मार्ग है.' पर जिस तरह नीति आयोग ने 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' (कारोबारी सुगमता) की रिपोर्ट से पल्ला झाड़ा है, उससे तो उसकी आत्मा ही तिरोहित हो गई.

बीते सोमवार को यह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई, और उसके अगले ही दिन नीति आयोग ने वक्तव्य दिया कि कारोबारी सुगमता की यह रिपोर्ट न तो नीति आयोग के विचार हैं, न ही सरकार के. यह महज एक शोध पत्र है. बहुत पहले नीति आयोग की पूर्ववर्ती संस्था योजना आयोग के लिए स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसे जोकरों का झुंड बताया था, जो नीति आयोग पर खरा साबित हो रहा है.


क्यों कराना पड़ा अध्ययन

जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से कारोबारी सुगमता को बेहतर करने की मुहिम में लगी हुई है. इस मुहिम को लेकर प्रधानमंत्री मोदी समेत उनके मंत्री और संतरी अपने पीठ थपथपाने में सबसे आगे रहते हैं. मोदी की विदेशी उड़ानों से सरकार को पूरी उम्मीद बंध गई थी कि विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता की विश्व-सूची में भारत की रैकिंग में आशातीत सुधार होगा. पर 2017 में इन उम्मीदों को भारी धक्का लगा, जब विश्व बैंक की ताजा इसी सूची में भारत महज एक पायदान चढ़कर 130वें स्थान पर ही आ पाया.

इससे सरकारी प्रयासों की जमीन सामने आ गई. मोदी सरकार की ओर से कई आपत्तियां भी की गईं और कहा कि इस सूची में कारोबारी सुगमता के लिए मोदी सरकार के ताजा नीतिगत निर्णयों की अनदेखी की गई है. असल में वाणिज्य मंत्रालय चाहता है कि अक्टूबर में जारी होने वाली विश्व बैंक की इस सूची में भारत की रैकिंग सुधर कर 90वीं हो जाए. इसलिए जमीन और पुख्ता दलीलें तैयार कराने के लिए एक विस्तृत अध्ययन कराने का फैसला नीति आयोग ने लिया जिसके सार्वजनिक होने पर अब उसे फजीहत का सामना करना पड़ रहा है.

उल्टे गले पड़ी रिपोर्ट

बीते सोमवार को एक भव्य समारोह में केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद और वणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने कारोबारी सुगमता की यह रिपोर्ट जारी की. इस समारोह में नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया और इसके भावी उपाध्यक्ष राजीव कुमार भी मौजूद थे. इसके गुणगान में अनेक खूबियां भी गिनाईं गई हैं. निर्मला सीतारमण के अनुसार नीति आयोग की यह रिपोर्ट विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता रिपोर्ट में ज्यादा विस्तृत, व्यापक और जमीनी है. इस रिपोर्ट की कार्य विधि को विश्व बैंक की रिपोर्ट से बेहतर साबित करने के लिए कई दलीलें भी पेश की गईं.

-कारोबारी सुगमता रिपोर्ट तैयार करने में विश्व बैंक केवल उद्योग के शीर्ष लोगों के ही इंटरव्यू लेता है, जबकि इस सर्वे रिपोर्ट में हजारों कारोबारी इकाइयां शामिल हैं. साथ में राज्यों के विशेषज्ञ भी.

- विश्व बैंक की रिपोर्ट केवल दिल्ली-मुंबई पर ही फोकस होती है. पर इस सर्वे में देश भर की छोटी-बड़ी, नई-पुरानी तीन हजार से अधिक कंपनियां शामिल हैं.

- यह सर्वे गुणात्मक है. कारोबारी सुगमता के लिए राज्यों की रैकिंग नहीं करता है. इसका उद्देश्य कारोबारी सुगमता पर राज्यों को सूचना मुहैया कराना है.

- विश्व बैंक कारोबारी सुगमता की रिपोर्ट मूलत: 10 मानकों पर तैयार होती है, जो केंद्र और राज्य सरकारों के दायरे में आते हैं. पर इस रिपोर्ट में वह मुद्दे शामिल हैं, जिनका संबंध राज्य सरकारों से है.

नीति आयोग के इस सर्वे के अनुसार अब अनेक राज्यों में अनुमोदन लेने के लिए विश्व बैंक के बतायी अवधि से कम समय लगता है. इस सर्वे के अनेक भागीदारों ने बताया है कि मध्य प्रदेश, बिहार में कंस्ट्रक्शन परमिट लेने में चंद दिन ही लगते हैं और कानूनी विवादों के निपटारे में भी विश्व बैंक के बताए समय से आधा ही समय लगता है. नई फर्मों को नियामक प्रक्रिया से बिजनेस करने में कोई बाधा नहीं है. पर इन खूबियों का कोई लेवाल नहीं निकाला और नीति आयोग की इन ‘उपलब्धियों’ को नकारात्मक पब्लिसिटी ज्यादा मिली.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, इस रिपोर्ट के अनुसार देश में कारोबार शुरू करने में औसतन 118 दिन का समय लगता है, जबकि विश्व बैंक की 2016 की कारोबारी सुगमता की रिपोर्ट में यह समय 26 दिन बताया गया था. इससे नीति आयोग की इस रिपोर्ट का मकसद ही विफल हो गया. मजेदार बात यह भी है कि सरकार की कारोबारी सुगमता के मुहिम के बारे में देश के अधिकांश कारोबारियों को पता ही नहीं है.

जाहिर है कि इससे सरकार में बैठे आकाओं का नाराज होना स्वाभाविक था. नतीजतन झक मारके नीति आयोग को इस रिपोर्ट से पाला झाड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. वैसे विदेशी समाचार एजेंसियों का कहना है कि अरविंद पनगढ़िया के नीति आयोग से इस्तीफे के निर्णय से ही मोदी सरकार की कारोबारी सुगमता अभियान में पलीता लग गया था.

कुंडली में ही दोष

शुरुआती दिनों में ही प्रधानमंत्री मोदी ने 65 साल पुराने योजना आयोग को समाप्त कर नीति आयोग बनाने की औचक घोषणा की थी. तभी से यह आलोचना का केंद्र रहा है. प्रधानमंत्री मोदी ने बिना किसी मुख्यमंत्री के विचार-विमर्श किए यह निर्णय लिया था, जो संघीय व्यवस्था के खिलाफ था. नीति आयोग के पूर्णकालिक सदस्य बिबेक देवरॉय ने नीति आयोग के कैबिनेट मंजूरी के पाठ को धुंधला बता कर तीखी आलोचना की थी और कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी को नीति आयोग के कार्यों और आधिकारिता क्षेत्र को स्पष्ट रूप से पारिभाषित करना चाहिए.

अरविंद पनगढ़िया के भी अधबीच अपना कार्यकाल छोड़ अमेरिका वापस लौटने के निर्णय से भी तमाम अटकलों को जन्म मिला. इससे अंदाजा हो गया था कि नीति आयोग में सब ठीक-ठाक नहीं है. जानकार लोग बताते हैं कि नीति आयोग असल में दो शाक्ति केंद्र बन गये हैं.

दो ध्रुवों ने बिगाड़ा कार्य

नीति आयोग के कैबिनेट मंजूरी में ही सीईओ पद का प्रावधान था. इस पद पर वरिष्ठ आईएएस अमिताभ कांत नियुक्ति हुई. 'न्यू इंडियन एक्सप्रेस' की एक रिपोर्ट के अुनसार इस नियुक्ति से नीति आयोग में शक्ति के दो ध्रुव बन गए. इसमें कोई दो राय नहीं है कि नीति आयोग को जो भी अहमियत हासिल है, वह प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ही प्रदत्त है. जानकार बताते हैं कि कांत ने यह रौब बना कर रखा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में उनकी पहुंच और रसूख ज्यादा है. यह टकराव भी पनगढ़िया के वनवास लेने का एक बड़ा कारण बना.

नष्ट करनी पड़ीं प्रतियां

एक घटना बताती है कि नीति आयोग का कामकाज अभी कोई स्वरूप नहीं ले पाया है और वह एक तदर्थ संस्था से आगे नहीं बढ़ पा रही है. अरविंद पनगढ़िया की अगुवाई में एक महत्वाकांक्षी 'थ्री इयर्स एक्शन प्लान एंड सेवन इयर्स पर्सपेक्टिव' दस्तावेज तैयार हुआ. पर राष्ट्रपति भवन के एक समारोह में एक मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में आपत्ति उठा दी कि यह प्लान कैसे हो सकता है, जबकि इसका ड्राफ्ट ही मुख्यमंत्रियों को उपलब्ध नहीं कराया गया.

बचाव में कहा गया कि यह तो अभी ड्राफ्ट ही है. इस पर आगे विमर्श होगा. पर इस दस्तावेज पर कहीं भी ड्राफ्ट शब्द का उल्लेख नहीं था. न्यू इंडियन एक्सप्रेस की इस रिपोर्ट के अनुसार इस खामी की वजह से इस दस्तावेज की तमाम प्रतियां नष्ट करनी पड़ीं.

जुगाली का अड्डा

नीति आयोग, योजना आयोग से कमतर संस्था है. वैसे इन दोनों का सृजन एक सरकारी आदेश से हुआ. न योजना आयोग को संवैधानिक दर्जा प्राप्त था, न ही नीति आयोग को है. संसद के प्रति इसकी कोई जवाबदेही नहीं है. योजना आयोग की तरह नीति आयोग भी दंतहीन संस्था है.

योजना आयोग की तरह यह भी कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं कर सकता है. फिर भी योजना आयोग के पास कई ऐसे काम थे जिनसे उसकी अहमियत और दखल बना रहा. केंद्र की प्रवर्तित सामाजिक योजनाओं में किस राज्य का क्या आवंटन होगा, यह योजना आयोग तय करता था. पंचवर्षीय योजनाओं को मूल आकार देने की बड़ी अहम जिम्मेदारी इस पर थी.

यह कार्य अब नीति आयोग से छीन विभिन्न मंत्रालयों को दे दिया गया है. यह अमेरिकी तर्ज पर केंद्र सरकार के लिए थिंक टैंक का काम करता है जिस पर सलाह देने और नीतिगत गतिशीलता का जिम्मा है. पर गठन के तकरीबन तीन साल बाद भी यह संस्था अपनी जड़ें नहीं जमा पाई है, न ही इसका कोई अहमियत देखने में आई है.

नीति आयोग, केंद्रीय मंत्रालय विशेषकर वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में तालमेल का अभाव है. नीति आयोग में मुक्त व्यापार के अर्थ विशेषज्ञों को ज्यादा तरजीह दी गई है. जिन्हें शासन-प्रशासन का कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं है. नीति आयोग के ताजा बखेड़े से साफ है कि यह बौद्धिक जुगाली का महज अड्डा बन कर रह गया है.