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नाइजीरियाई छात्रों पर हमला: रंगभेदी मानसिकता के खतरे

आज जब दुनिया 'डिजिटलाइज्ड' होकर सिकुड़ती जा रही है तब हम फिर से मध्ययुगीन मूल्यों को जीने की कोशिश कर रहे हैं

Manoj Kumar Rai

लगभग 109 वर्ष पूर्व महात्मा गांधी ने एक वाद-विवाद प्रतियोगिता में ‘क्या एशियाई और रंगदार जातियां साम्राज्य के लिए खतरा हैं’ विषय पर एक लिखित भाषण दिया था.

सुंदर और सधे शब्दों में उन्होंने विदेशी धरती पर बार-बार पश्चिमी सभ्यता पर न केवल सवाल खड़ा किया अपितु विनम्रता पूर्वक इसे नकारते हुए कहा कि ‘एक सुव्यवस्थित समाज में उद्यमशील और बुद्धिमान मनुष्य कदापि खतरनाक नहीं बन सकते’. लेकिन आज गांधी के देश में नस्ली, जातीय और रंग को लेकर भेदभाव बढ़ता ही जा रहा है.


घर-परिवार से लेकर पर्यटन-पढ़ाई को लेकर भारत भूमि पर आने वाले विदेशी मेहमानों को आए दिन इससे दो-चार होना पड़ रहा है. ताजा घाटा नाईजीरियाई नागरिकों के साथ हुई मारपीट तो महज एक बानगी भर है.

‘देव भूमि’ के विशेषण को लेकर अक्सर दंभ भरने वाले भारतीयों में न केवल रंगभेद अपनी पूरी आभा में मौजूद है. अपितु सहिष्णु-भाव का भी निरंतर ह्रास होता जा रहा है. शादी-ब्याह से लेकर मित्र बनाने तक में ‘फेयर ऐंड लवली’ के बिना कुछ होता ही नहीं है.

इस दर्द का अनुभव हर वह मां-बाप कर रहे है जो अपनी सुयोग्य कन्या के लिए वर ढूंढने में चिंता से मरा जा रहा है. रंग के आधार पर घरों से जो संस्कार मिलता है वही बाहर आकर विद्रूप रूप में हिंसा का रूप धर लेता है. उसी का परिणाम है काले लोगों से भेदभाव.

हर जगह होता है नस्लीय भेदभाव

काशी के घाटों पर काले-गोरे हर तरह के सैलानी आते रहते हैं. वहां भी इस भेदभाव को आसानी से देखा जा सकता है. भीख मांगने वाले बच्चे भी अपने हाथ गोरों के समक्ष उसी तरह फैलाते हैं, जैसे वहां के पढे़ लिखे नौजवान अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी से गोरों से दोस्ती करने को लालायित रहते हैं. यह अकारण नहीं है. रंग आधारित अच्छे-बुरे का भाव हमारे रगो में दौड़ रहा है. जीवन के किसी भी क्षेत्र में नजर दौड़ा लीजिए हर जगह यह रंग भेद आसानी से देखने को मिल जाएगा.

शास्त्रार्थ परंपरा को अपना पूंजी मानने वाले इस देश के निवासी अब अपनी हल्की आलोचना भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं. वे बिना आगा-पीछा सोचे तुरंत जिह्वा-कलम से आलोचकर्ता पर टूट पड़ते हैं. सच्चाई तो यह है कि हमारे समाज-व्यवस्था की नींव ही कमजोर होती जा रही है और हमारा भरोसा टूटता जा रहा है.

प्राचीन ग्रन्थों से हम सहिष्णुता के चाहे जितने उदाहरण दें लें पर धीरे-धीरे हम असहिष्णुता के रास्ते पर बढ़ते ही चले जा रहे हैं. बात-बात पर जाम और तोड़-फोड़ अब रोज़मर्रा का हिस्सा होता जा रहा है. ऊपर-ऊपर से हम जरूर एक दिख रहें हैं. पर हकीकत यह है हम अनेक खित्तों में बंटे हुए है.

होना तो यह चाहिए कि हम सब यदि विदेशों में अथवा अन्य राज्यों में न्याय और समानता के व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, हमें भी सैलानियों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि अपने किसी साथी से व्यवहार करते है. उनके साथ हमें एक सच्चे, चेतन मनुष्य के समान व्यवहार करना चाहिए.

कहां दिखता है अतिथी देवोभव: का मंत्र

जिस किसी को भी इस देश के अंदर आने की इच्छा हो उन्हें न केवल यहां आने की इजाजत हो अपितु उन्हें पर्याप्त सुअवसर और अधिकार होने चाहिए, जो इस देश के अन्दर रहनेवाले किसी अन्य देश में जाकर अपेक्षा करते है. यह कतई उचित नहीं होगा कि बाहर से आने वाले यहां टहल-घूम नहीं सकते, और न ही किसी प्रकार का स्वतंत्र, स्वाभिमानी और मनुष्‍य का-सा जीवन बिता सकते.

अकारण ही किसी को दोषारोपण करना और आरोपित करना हमारी परंपरा के विरुद्ध है. यदि कोई बाहरी किसी बुराई के साथ प्रवेश करता है तो हमें अपनी समाज और राजनीतिक व्यवस्था को इस तरह सुदृढ़ रखना चाहिए कि वह स्वयं इसे ठीक कर सके.

देह व्यापार और ड्रग के लिए हम किसी बाहरी पर दोषारोपण कर अपना बचाव नहीं कर सकते. क्योंकि दोनों के लिए बाजार हम स्वयं तैयार करते हैं. ऐसे में सिर्फ व्यापारी को दोष देना तो शुतुरमुर्गी चाल ही कही जाएगी.

वर्षों पूर्व गांधी ने कहा था कि ‘जरा भविष्य पर नजर डालकर देखिए कि विभिन्न जातियां एक दूसरे के अन्दर घुल-मिल रहीं है और एक ऐसी सभ्यताओं में जन्म दे रही हैं, जैसी संसार ने अब तक कभी नहीं देखी है’.

आज जब दुनिया ‘डिजिटलाइज्ड’ होकर सिकुड़ती जा रही है तब हम फिर से मध्ययुगीन मूल्यों को जीने की कोशिश कर रहे हैं. हमे यह चिंता क्यों नहीं सताती कि हम अपनी आनेवाली पुश्तों के लिए किस तरह की विरासत छोड़ कर जाना चाहते हैं?

ईश्वर ने यह धरती अत्यंत खूबसूरत बनाई है. इसमें हिंसा या भेदभाव को जगह नहीं मिलनी चाहिए. निस्सन्देह कठिनाइयां और गलतफहमियां भी है. पर इसे दूर करने के उपाय भी है. बस जरूरत है हमे एक दूसरे के प्रति ईमानदार होने की.

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से जुड़े हैं)