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न्यू मीडिया का बेहतरीन इस्तेमाल कर रहे हैं मोदी, परंपरागत मीडिया अब भी भ्रमजाल में उलझी है

मोदी का देश के आम जनमानस से ये सीधा संवाद ये जताता है कि आज उन लोगों से खुलकर और सीधा सियासी संवाद होता है

Ajay Singh

'The quick brown fox jumps over the lazy dog'.

एक दौर था जब अंग्रेजी पत्रकारिता में नए आने वाले लोगों को ये वाक्य रटा दिया जाता था, फिर इसकी टाइपराइटर पर लगातार प्रैक्टिस कराई जाती थी. मकसद ये था कि अंग्रेजी पत्रकारिता के नए रंगरूट खुद को टाइपराइटर के की-बोर्ड का अभ्यस्त बना लें.


इस वाक्य को अंग्रेजी में pangram कहते हैं, क्योंकि इसमें अंग्रेजी वर्णमाला के सारे अक्षर हैं. इसी मजबूत बुनियाद के आधार पर अंग्रेजी के रिपोर्टर संचार की दुनिया में अपने करियर की शानदार इमारत तामीर करते थे. ट्रेनिंग के पहले महीने में, अंग्रेजी के प्रशिक्षु पत्रकार इस वाक्य को दिन में कम से कम 100 बार टाइप करते थे, ताकि टाइपराइटर के की-बोर्ड को याद कर सकें. वक्त और अभ्यास के साथ उसकी उंगलियां तेज होती जाती हैं.

लेकिन, ये गुजरे जमाने की बात है. आज सोशल मीडिया के दौर में आप को संवाद के लिए एक स्मार्टफोन और 280 कैरेक्टर का नुस्खा सीखने की जरूरत होती है. ऐसे में पुराने दौर का ये अभ्यास आज अप्रासंगिक हो गया है. नतीजा ये कि भूरी लोमड़ी भी आज उस वाक्य के कुत्ते की तरह आलसी हो गई है.

सोया हुआ है परंपरागत मीडिया

पुराने दौर की यादें अक्सर खुद की महानता का भरम होती हैं. पारंपरिक मीडिया पर ये बात सटीक बैठती है. एक दौर था जब परंपरागत मीडिया खुद को देश की राजनीतिक परिचर्चा का इकलौता माध्यम मानता था.

मशहूर अमेरिकी नाटककार आर्थर मिलर ने इस सोच को बखूबी बयां किया था, जब उन्होंने कहा था कि एक महान अखबार का मतलब है एक देश का खुद से बातें करना. बहुत से अखबारों ने मिलर के इस बयान को अपने पहले पन्ने पर बड़े फख्र के साथ अखबार के शीर्षक के साथ छापना शुरू किया था. मीडिया खुद को लोकतंत्र का चौथा खंभा और जम्हूरियत की आत्मा कहता था. अखबारों के संपादक अक्सर कहा करते थे कि वो देश में दूसरी सबसे अहम कुर्सी पर बैठते हैं.

वो इस ख्वाब-खयाल में रहते थे कि देश के सामने खड़ी बड़ी चुनौतियों पर वो ही जनता की राय बनाने का और लोगों के जहन पर गहरा असर डालने का काम करते थे.

अपने इसी भ्रमजाल में खोए परंपरागत मीडिया ने तकनीक की दुनिया से आ रहे चेतावनी भरे संकेतों की अनदेखी की. जबकि तकनीक बड़ी तेजी से संवाद के नए माध्यम मुहैया करा रही थी. अब इस नए युग के आगमन को भी एक दशक या उससे ज्यादा का वक्त बीत चुका है. मगर परंपरागत मीडिया अब भी शुतुरमुर्ग की तरह बर्ताव कर रहा है. वो इस बात से अनजान है कि वो अब निरर्थक हो चुका है. क्योंकि अब देश नए माध्यमों और नए मंचों से खुद से संवाद करता है.

जनता से संवाद का दूसरा दौर

इसकी सबसे अच्छी मिसाल हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो कई गैर-परंपरागत संवाद माध्यमों के जरिए जनता से संवाद करते हैं. उनके सामने अपनी बात रखते हैं. हाल के दिनों में पीएम मोदी ने तकनीक की मदद से किसानों, केंद्रीय योजनाओं के लाभार्थियों और डिजिटल इंडिया के नए उद्यमियों से सीधे बात की है. आज जिस तरह से आम आदमी अपने सियासी हुक्मरानों से सीधे संवाद कर रहा है, वो बहुत ही दिलचस्प और असरदार मालूम होता है. ये शासकों और जनता के बीच सीधा संवाद कायम करने का एकदम नया और बेहद प्रभावी जरिया है.

हम ये कह सकते हैं कि ये बातचीत आम तौर पर नियंत्रित माहौल में होती है. लेकिन, इसके सकारात्मक पहलुओं को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते. रायपुर की एक साधारण महिला को सीधे प्रधानमंत्री से बात करने का मौका मिलता है और वो अपनी उद्यमिता के सफर को सीधे प्रधानमंत्री को बताती है. इसी तरह देश के दूर-दराज के इलाकों में बैठे किसान देश भर में फैले 50 हजार कॉमन सर्विस सेंटर के जरिए सीधे प्रधानमंत्री से जुड़ जाते हैं. अपने नमो ऐप के जरिए पीएम मोदी एक ही झटके में लाखों लोगों से बात कर लेते हैं. इसके अलावा वो सोशल मीडिया के दूसरे माध्यमों से भी लोगों से संवाद करते हैं. इस इंकबाल के दौरान, परंपरागत मीडिया अभी भी गहरी नींद में है. उसे नहीं पता कि दिन की बड़ी खबर के लिए उसे इन्हीं सूत्रों के पास जाना होगा.

हुकूमत से सीधे संवाद की ताकत

मोदी का देश के आम जनमानस से ये सीधा संवाद ये जताता है कि आज उन लोगों से खुलकर और सीधा सियासी संवाद होता है. ये वो लोग हैं जो चुनाव में अहम होते हैं. न केवल आम आदमी, बल्कि समाज के ऊंचे तबके के लोगों से संवाद में भी आज पुराने माध्यमों का कोई रोल नहीं रह गया है.

मसलन, हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने मुंबई में कॉरपोरेट जगत के दिग्गज सीईओ से बंद कमरे में मुलाकात की और उन्हें अपनी सरकार की आर्थिक नीतियों के बारे में बताया. प्रधानमंत्री ने इन लोगों से सीधे बात करके अपनी नीतियों के बारे में उनकी राय जानी, ताकि संवाद के दौरान किसी बात का मतलब न बन जाए.

पीएम मोदी कॉरपोरेट जगत के दिग्गजों से सीधी बात कर के उन्हें सरकार की उम्मीदों से रूबरू कराते हैं और आर्थिक विकास के नए सफर के बारे में बताते हैं. आम जनता से लेकर देश के बड़े उद्योगपतियों तक, संवाद का ये जो जरिया अपना रहे हैं, उसकी एक खास बात ये है कि ये कमजोर तबके को भी हुकूमत से सीधे संवाद की ताकत देता है.

हाशिए पर परंपरागत मीडिया

नए माध्यमों की वजह से परंपरागत मीडिया और भी हाशिये पर चला गया है, जो कभी खुद को सत्ता के गलियारों में जाने का इकलौता हकदार समझता था. ये बात कि आज संवाद करने वाले एक ऐसा दोतरफा मंच तैयार कर सकते हैं, जिससे संदेशों का सीधा आदान-प्रदान हो सके, उससे आज परंपरागत माध्यमों की व्यर्थता पूरी तरह से साबित हो गई है. वो मीडिया जो कभी खुद को देश के हुक्मरानों से सीधे संपर्क पर गुरूर करता था, आज उसकी ये खुशफहमी भी बेकार की ही है. यही वजह है कि आज देश के बड़े नेताओं से मीडिया में जो भी इंटरव्यू होते हैं, भले ही वो किसी भी मुद्दे पर हों, वो जनसंपर्क अभियान जैसे लगते हैं.

हालांकि लोग आज भी इमरजेंसी के बाद बीबीसी पत्रकार के इंदिरा गांधी से सख्त सवाल वाले इंटरव्यू देखना पसंद करते हैं. लेकिन उस तरह की पत्रकारिता आज अप्रासंगिक हो चुकी है. आज लोग अपनी बात रखने के लिए किसी बिचौलिये के लिए लाचार नहीं हैं. सोशल मीडिया के इस दौर में लखनऊ के क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय में अपने साथ हुए भेदभाव की शिकायत सीधे विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से कर के उसका हल पा सकती है. इस चक्कर में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पोंगापंथियों की ट्रोलिंग की शिकार भी हो जाती हैं. ये समाज के काले चेहरे की हकीकत भी उजागर करता है. ये पूरा काम बिना परंपरागत मीडिया की साझीदारी के होता है. हालांकि इस घटना से एक सियासी बहस जरूर छिड़ गई.

वो दिन लद गए जब इंटरव्यू और टीवी डिबेट जैसे पत्रकारिता के परंपरागत रूप राजनेताओं को अपनी सियासत करने का बढ़िया मंच देते थे. अगर आपको कोई शक हो, तो केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली की ही मिसाल लीजिए. जेटली आज फेसबुक के जरिए तमाम सियासी मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखते हैं. पहुंच की बात करें, तो ये किसी अखबार में लेख लिखकर लोगों तक पहुंचने या प्रेस कांफ्रेंस से बेहतर जरिया है. वैसे भी मीडिया को अगले दिन जेटली के विचार जनता को बताने ही पड़ते हैं.

जो लोग सोशल मीडिया पर कम सक्रिय हैं, वो भी पत्रिका के परंपरागत माध्यमों को अपना करियर आगे बढ़ाने का जरिया भर मानते हैं. पुराने मीडिया के हुक्मरानों तक सीधी पहुंच के किस्से और संवाद जनता तक पहुंचाने की ताकत आज बहुत कमजोर हो गई है.

तकनीकी दुनिया के लोग सबसे अमीरों की लिस्ट में

आज ये जानकर जरा भी हैरानी नहीं होती कि दुनिया के दस सबसे अमीर लोगों में एक भी मीडिया का कारोबारी नहीं है. वहीं टॉप के इन अमीरों में से तीन तो बड़ी तकनीकी कंपनियों में शीर्ष पर हैं (जेफ बेजोस, मार्क जकरबर्ग और बिल गेट्स). हाल ही में अमेजन के जेफ बेजोस ने द वॉशिंगटन पोस्ट अखबार को खरीद लिया है. ये बदले हुए दौर की साफ मिसाल है.

प्रधानमंत्री मोदी इस नए संचार युग में एजेंडा सेट करने में आगे निकल गए. समाज के अलग-अलग तबके के लोगों से उनका सोशल मीडिया के जरिए संवाद, आज संचार का सबसे ताकतवर माध्यम बन गया है. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर भी मोदी तकनीकी के नए माध्यमों से प्रिंट और टीवी जैसे पुराने जरियों को दरकिनार कर के अपना संदेश सीधे जनता तक पहुंचाते थे.

इसमें कोई शक नहीं कि मोदी का संवाद का ये तरीका परंपरागत मीडिया के मुकाबले ज्यादा असरदार रहा. प्रधानमंत्री के तौर पर अपने नए रोल में मोदी ने विदेश दौरों पर कुछ खास पत्रकारों को साथ ले जाने की परंपरा खत्म करके मीडिया की क्षमता का सही आकलन ही किया. क्योंकि कुछ पत्रकार पीएम के साथ विदेश दौरे पर जाने को अपना वाजिब हक मानते थे.

परंपरागत मीडिया के हाशिये पर जाने पर आंसू बहाने की कोई जरूरत नहीं. जब तकनीक आज जनता और नेताओं के बीच संवाद का पुल बन रही है, तो परंपरागत माध्यमों का पुराने दौर की खुशफहमी में रहते हुए आने वाले कल को देखते रहना ठीक नहीं. इसका श्रेय मोदी को जाता है जिन्होंने संवाद के माध्यम बदल दिए.

शायद अब वक्त आ गया है कि परंपरागत मीडिया उस वाक्य को नए सिरे से लिखे, जो हमने इस लेख की शुरुआत में लिखा था...A quick brown fox...