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नेट न्यूट्रिलिटी पर फैसला तो हो गया मगर गांवों तक इंटरनेट पहुंचाने का मकसद कैसे पूरा करेगी सरकार?

अब बात नेट न्यूट्रिलिटी से आगे की होनी चाहिए कि कैसे देश के हर गांव में इंटरनेट की सहज पहुंच बने और भारत के नेट उपयोक्ता को बेहतर स्पीड मिले

Piyush Pandey

भारत में  ‘नेट न्यूट्रिलिटी' के मुद्दे पर अंतिम फैसला आ गया है. दूरसंचार आयोग ने नेट न्यूट्रिलिटी को लेकर टेलीकॉम रेगुलेटरी ऑफ इंडिया यानी ट्राई की सिफारिशों को मंजूरी दे दी है. इतना ही नहीं, दूरसंचार विभाग ने नेट न्यूट्रिलिटी के नियमों पर अमल की मॉनिटरिंग के लिए एक संस्था के गठन का भी फैसला किया है.

इसका सीधा मतलब यह है कि इंटरनेट कंपनियों को अलग-अलग दामों पर सेवाएं मुहैया कराने की इजाज़त नहीं होगी. कुछ कंपनियां इंटरनेट की अलग अलग सेवाओं के लिए अलग अलग दाम रखने पर अड़ी हुई थीं, लेकिन ट्राई ने अपने फैसले में कहा था कि इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को काम के हिसाब से अपना शुल्क बदलने का अधिकार नहीं होगा, जिसे अब आयोग ने भी मान लिया है.


सिद्धांत में ‘नेट न्यूट्रिलिटी' का मतलब है कि इंटरनेट सेवा प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डाटा पैकेट को एक जैसा दर्जा देंगी. इंटरनेट सेवा देने वाली इन कंपनियों में टेलीकॉम ऑपरेटर्स भी शामिल हैं. नेट न्यूट्रिलिटी में विश्वास करने वाले मानते हैं कि नेट पर बहने वाला हर डाटा समान है. चाहे वो वीडियो हो, आवाज़ हो या सिर्फ पाठ्य सामग्री और कंटेंट, साइट या यूजर्स के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए.

भारत में अभी तक नेट न्यूट्रिलिटी ही है क्योंकि एक बार किसी कंपनी से इंटरनेट सेवा लेने के बाद उस बैंडविथ का इस्तेमाल ग्राहक अपनी सुविधा के अनुसार करता है. यानी ग्राहक चाहे तो यूट्यूब पर वीडियो देखे, स्काइप पर लोगों से बात करे, गूगल सर्च करे या मोबाइल पर व्हाट्सएप के जरिए संदेश भेजे, कंपनी को इससे लेना देना नहीं होता. इसे और सरल भाषा में समझें तो कह सकते हैं कि लोग घरों में बिजली के इस्‍तेमाल के लिए बिल देते हैं. मगर, कंपनियां यह नहीं कहती है कि टीवी चलाने पर बिजली की दर अलग होगी और फ्रिज, कंप्‍यूटर और वाशिंग मशीन चलाने पर अलग.

एयरटेल के फैसले से मच गया था हंगामा

2014 में जब एयरटेल ने स्काइप और वाइबर जैसे एप्लीकेशन के इस्तेमाल के लिए ग्राहकों से अतिरिक्त शुल्क वसूलने का फैसला किया तो हंगामा मच गया. एयरटेल का तर्क था कि वॉयस कॉलिंग एंड मैसेजिंग एप्स की वजह से सीधे तौर पर उसे नुकसान उठाना पड़ रहा है. यह सच भी था क्योंकि व्हाट्सएप जैसे एप्लीकेशन की लोकप्रियता ने एसएमएस को हाशिए पर डाल दिया है.

नेट न्यूट्रिलिटी को लेकर बहस और तेज़ हो गई, जब ट्राई ने 118 पेज का परामर्श पत्र जारी कर दिया, जिसमें नेट नियमन से संबंधित 20 सवालों पर लोगों से राय मांगी गई थी. इनमें एक सवाल नेट न्यूट्रिलिटी से जुड़ा भी था. इस बीच, दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग इंटरनेट को गांव-गांव और हर गरीब तक पहुंचाने का ऐलान करते हुए फ्री बेसिक्स योजना लेकर बाजार में उतर पड़े थे.

लेकिन सवाल फेसबुक, एयरटेल या किसी कंपनी का नहीं था. सवाल था देश में इंटरनेट न्यूट्रिलिटी के मुद्दे का, और सच यही है कि दूरसंचार आयोग ने ट्राई के ऐतिहासिक फैसले पर मुहर लगाकर स्थिति साफ कर दी है और एक लिहाजा से इस मुद्दे पर बहस खत्म कर दी है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि आज़ाद इंटरनेट के बिना इंटरनेट का उद्देश्य ही खत्म हो जाता है,क्योंकि नेट न्यूट्रिलिटी की वजह से ही गरीब-रईस और शहरी-ग्रामीण के बीच कोई अंतर नहीं रह जाता. इसी वजह से तमाम नए प्रयोगों की उर्वर भूमि बनता है इंटरनेट.

भारत में नेट प्रोजेक्ट खासा धीमा

अमेरिका में डेढ़ बरस पहले जबरदस्त बहस के बाद तय हुआ कि नेट को जन उपयोगी सेवा का दर्जा दिया जाए और फेडरल कम्यूनिकेशन कमिशन ने नेट न्यूट्रिलिटी से संबंधित कड़े नियमों के पक्ष में वोट किया. लेकिन, अब बात नेट न्यूट्रिलिटी से आगे की होनी चाहिए कि कैसे देश के हर गांव में इंटरनेट की सहज पहुंच बने और भारत के नेट उपयोक्ता को बेहतर स्पीड मिले.

गांव गांव तक इंटरनेट पहुंचाने वाला भारत नेट प्रोजेक्ट खासा धीमा चल रहा है, जिसे गति देने की जरुरत है. हालांकि, दूरसंचार आयोग ने बुधवार को ही जो नई दूरसंचार नीति को मंजूरी दी है, उसमें कहा गया है कि सभी ग्राम पंचायतों को 2020 तक 1 जीबीपीएस की कनेक्टिविटी उपलब्ध कराई जाएगी. मगर कैसे-ये साफ नहीं है.

भारत ब्रॉडबैंड स्पीड के मामले में आज भी दुनिया के 10 नंबर में नहीं है. आलम यह है कि भारत का नंबर 88वां हैं, जबकि यहां उपयोक्ता तेजी से बढ़ रहे हैं. ऐसे में सरकार का ध्यान अब उच्चकोटि का इंटरनेट बुनियादी ढांचा विकसित होने पर होना चाहिए.