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'कश्मीरी आतंकियों के लिए सरेंडर नीति में बदलाव जरुरी'

कमांडर इन चीफ लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा ने ऐसी प्रक्रियाओं में सुधार पर जोर दिया है.

David Devadas

जम्‍मू और कश्‍मीर स्थित उत्तरी कमान के कमांडर इन चीफ लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा ने ऐसी प्रक्रियाओं में सुधार पर जोर दिया है जिनसे उन कश्‍मीरियों को समाज की मुख्‍यधारा में वापस लाया जा सके जिन्‍होंने हथियार उठा लिए हैं.

वे कहते हैं, 'क्‍या हम उन लड़कों को वापस लाने के लिए कुछ कर सकते हैं? असल चिंता यही है.' उनके द्वारा रेखांकित आतंकवाद निरोधक जंग के इस पहलू को अधिकतर कठोर सैन्‍य मानसिकता वाले लोग नजरंदाज कर देते हैं और इसके बजाय उनका जोर 'हत्‍या' और 'दबिश' पर रहता है.


हुड्डा इस महीने के अंत में रिटायर हो रहे हैं. उन्‍हें इस सरोकार की अहमियत का बखूबी अंदाजा है. पिछले डेढ़ साल के दौरान जिस तरीके से नए किस्‍म के उग्रवाद की जमीन यहां मजबूत हुई है और गर्मियों में घाटी में शुरू हुआ प्रदर्शनों व असंतोष का सिलसिला पतझड़ तक कायम है, ऐसे में हुड्डा और उनकी कमान के अन्‍य अफसर लगातार इसे थामने में व्‍यस्‍त रहे हैं.

सामान्‍य तौर पर आम समझदारी वाले किसी व्‍यक्ति को यह उम्‍मीद रहती कि वे जंग की तैयारी, रक्षा और तैनाती आदि की बात कहते, लेकिन उनका यह बयान दिखाता है कि नब्‍बे के दशक के उत्‍तरार्द्ध में चले छायायुद्ध के दौर के बाद सेना का आला तबका अपनी सोच में कितना विकसित हुआ है कि हुड्डा अब हथियार थामे युवाओं को समाज में वापस लाने की बात कह रहे हैं.

इसमें कोई शक नहीं कि वे सेना के बुनियादी फर्ज को भी निभाते रहे हैं और जंग की तैयारी के सिलसिले में सितंबर के मध्‍य से असामान्‍य कदम उठाए गए हैं. हुड्डा ने हालांकि दूसरी प्राथमिकताओं की उपेक्षा नहीं की है जिसे हम सहूलियत के लिए बहुस्‍तरीय रणनीति का नाम दे सकते हैं.

लोकल की मौत से बिगड़ता है महौल

स्‍थानीय माहौल सबसे बड़ी प्राथमिक‍ताओं में एक है. एक स्‍थानीय लड़के की मौत गुणात्‍मक असर डाल सकती है. हुड्डा कहते हैं, 'स्‍थानीय लोग जितना मारे जाएंगे, प्रतिक्रिया भी उतनी ही ज्‍यादा होगी.' एक साल से ज्‍यादा वक्‍त बीत गया जब सैन्‍य कार्रवाई में मारे गए नौजवान आतंकियों के जनाजे में भारी भीड़ उमड़ी थी जिसने नई उम्र के लड़कों को हथियार उठाने को प्रेरित किया था.

ये नए रंगरूट जब अपने घरों को छोड़ते हैं, तब अकसर उनके मन में अपने घरों में देखी कड़वी सच्‍चाई को लेकर विचलन होता है. इसलिए आत्‍मसमर्पण की प्रक्रिया को आसान बनाया जाना चाहिए और पूर्व आतंकियों के सामाजिक पुनर्वास को सुगम बनाया जाना चाहिए.

Source: Getty Images

जो नियम हैं, उनके मुताबिक आतंकी केवल चार जगहों पर सरेंडर कर सकते हैं- नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर दो व्‍यापार और आवाजाही के बिंदु, वाघा सीमा और दिल्‍ली का इंदिरा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हवाई अड्डा. हुड्डा का कहना है कि सरेंडर करने की इच्‍छा रखने वालों के लिए ये तमाम जगहें खतरनाक हैं.

पहली बात तो यह है कि जो लोग वाघा सीमा या विशिष्‍ट व्‍यापार व आवाजाही के बिंदुओं को पार करना चाहते हैं, उनके ऊपर पाकिस्‍तानी फौज कड़ी निगाह रखती है. दरअसल, इन बिंदुओं को इस्‍तेमाल करने के लिए मंजूरियों की जिस लालफीताशाही से गुजरना होता है, उसमें कई हफ्ते लग जाते हैं.

नतीजा यह होता है कि जो वाकई आत्‍मसमर्पण करना चाहते हें, उन्‍हें नेपाल के रास्‍ते भारत में आना पड़ता है या फिर वे एलओसी अथवा सीमा पर छुप छुपाकर घुसने की कोशिश करते हैं. ऐसे तरीके का इस्‍तेमाल करते ही वे गैर-कानूनी गतिविधि में फंस जाते हैं. चूंकि वे तकनीकी रूप से वैसे में सरेंडर नहीं कर सकते इसलिए उनके साथ आतंकियों वाला बरताव होता है. इस श्रेणी के लिए तो बड़े भयावह कानून मौजूद हैं.

सरेंडर की नीति पर सवाल

हुड्डा जैसे सैन्‍य कमांडर को इस बात से दिक्‍कत है कि उपर्युक्‍त के चलते वे तमाम लोग जो पाकिस्‍तान जाकर अपना दिमाग बदल लेते हैं, उन्‍हें आतंकवादियों की कतारों में शामिल होने की मजबूरी हो जाती है. कोई छोटे से छोटा रणनीतिकार भी इस बात को आसानी से समझ लेगा कि एक स्‍थानीय आतंकी जहां किसी विदेशी आतंकी के मुकाबले कम खतरनाक होता है, वहीं उसे व्‍यापक समुदाय का समर्थन भी हासिल होता है. कश्‍मीर में ऐसी स्थिति कहीं ज्‍यादा बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ सकती है.

सरेंडर के बाद अपनाई जाने वाली नीति पर भी जनरल आलोचनात्‍मक राय रखते हैं. वे कहते हैं, 'जहां तक सरेंडर की नीति का सवाल है, उसमें पुनर्वास का कोई पहलू शामिल नहीं है.'

जिन लोगों ने भी अतीत में आत्‍मसमर्पण किया है, उन्‍हें देखकर लोगों के बीच यही संदेश जाता है कि सरेंडर के बाद व्‍यक्ति आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हाशिये पर चला जाता है, उसे शर्मिंदगी और उत्‍पीड़न का अहसास होता है. कई मामलों में स्‍थानीय पुलिस के लोकल सेल यह मांग करते हैं कि सरेंडर कर चुका आतंकी उन्‍हें नियमित रूप से रिपोर्ट करे और फिर ये सेल अपनी जरूरत के हिसाब से इनसे जबरन काम करवाते हैं.

आतंकियों को यदि इस बात से आश्‍वस्‍त कर दिया जाए कि उनकी कानूनी अनुपालकों द्वारा रक्षा की जाएगी और वे समाज के इज्‍जतदार सदस्‍य के तौर पर अपनी जगह बहाल कर पाने में समर्थ होंगे, तो शायद यह और ज्‍यादा आतंकवादियों को सरेंडर की ओर आकृष्‍ट करेगा. ऐसे तमाम लोग हैं जिन्‍हें इस बात का अहसास हो चुका है एक आतंकी की जिंदगी शायद उतनी शानदार नहीं होती जैसा कि कल्‍पना की जाती है.