संपादकीय टिप्पणी: यह लेख 17 जनवरी, 2016 को पहली बार प्रकाशित हुआ था. बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के आए फैसले को देखते हुए इसे अपडेट किया गया है . सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि देश भर के सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान को बजाया जाना अनिवार्य है. आदेश में यह भी कहा गया है कि राष्ट्रगान बजाए जाने के दौरान परदे पर राष्ट्रीय ध्वज का चित्रण किया जाए.
मुंबई के बाहरी इलाके कांदिवली में रहने वाले 26 वर्षीय युवा नीरज पांडे फिल्म वज़ीर का मैटिनी शो देखने गए हुए थे. शहर के सभी सिनेमाघरों की तरह वहां भी फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया गया. सारे दर्शक खड़े हो गए, लेकिन पांडे ने ऐसा नहीं किया. इसके बाद क्या हुआ होगा, यह कहने की ज़रूरत नहीं है.
हम सब इसका जवाब जानते हैं.
सबसे पहले पांडे के साथ एक समूह ने इसलिए बदसलूकी की क्योंकि राष्ट्रगान बजाए जाने के दौरान वे बैठे थे. बाद में मैनेजर ने उन्हें और उनके दोस्तों को बचाकर वहां से निकाला. उनके एक मित्र ने इस घटना को फेसबुक पर पोस्ट किया था.
पांडे को अगले दिन की स्क्रीनिंग के टिकट दे दिए गए और वे अपने दोस्तों के साथ जाकर फिल्म देख आए. इस कवि और उभरते हुए पटकथा लेखक को अगले दिन बस इतना करना पड़ा कि जब तक राष्ट्रगान बजा, वे हॉल के बाहर उसके खत्म होने का इंतज़ार करते रहे.
देशभक्ति के नाम पर गुंडागर्दी
राष्ट्रगान के दौरान खड़े होने के पक्ष में बहुत से लोगों ने बहस की है. लोग कहते हैं, 'खड़े होने में नुकसान ही क्या है?' ऐसी ही एक घटना के बाद अभिनेता अनुपम खेर के हवाले से कहा गया था, 'आपको भारत के प्रति अपने गर्व को प्रदर्शित करने के लिए खड़ा होना चाहिए. आपको सरहद पर आपकी रक्षा कर रहे जवानों के लिए खड़ा होना चाहिए. बस एक मिनट का मामला है. ऐसा नहीं है कि आपको किसी ऐसे बुरे काम के लिए मजबूर किया जा रहा है जिसमें आपका भरोसा न हो.'
इसका मतलब यह हुआ कि कि लोग अगर राष्ट्रगान के दौरान खड़े नहीं होते हैं तो उससे केवल एक ही नतीजा निकलता है- आपके मन में हमारी अंतर्राष्ट्रीय सरहदों की सुरक्षा कर रहे उन जवानों के लिए इज्जत नहीं है, जो हमारे लिए अपनी जान तक दे रहे हैं.
क्या राष्ट्रगौरव थोपे जाने वाली चीज़ है? कहीं भी राष्ट्रगान का बजाया जाना बेशक आपके नियंत्रण में नहीं है, लेकिन आपको अगर वास्तव में खड़े होने की ज़रूरत महसूस नहीं हो रही है तो क्या आपके साथ केवल इसलिए बदसलूकी की जाएगी कि यह भाव आपके भीतर स्वाभाविक रूप से नहीं आ रहा है?
घटनाओं का सिलसिला
ऐसी घटनाएं नई नहीं हैं. पहले भी ऐसा हुआ है और आगे भी होगा. पांडे वाली इस हालिया घटना से लेकर हम सितंबर 2014 में केरल के एक नौजवान पर लगाए गए राजद्रोह के मुकदमे तक जा सकते हैं या फिर पांच लोगों के उस परिवार का जिक्र भी कर सकते हैं जिसे मुंबई के एक सिनेमाहॉल के भीतर परेशान किया गया, धमकाया गया और बाहर खदेड़ दिया गया. जब कुछ दर्शकों ने इस बात पर ऐतराज जताया कि वह परिवार राष्ट्रगान के दौरान खड़ा नहीं हुआ है. इन पांच लोगों में एक छोटा बच्चा भी था.
इसका हमारे राष्ट्रीय गौरव या हमारी व्यवस्था या सरकार या कानून या फिर पुलिस के साथ कोई लेना-देना नहीं है. यह समस्या सामाजिक है और रोजमर्रा की भाषा में हम इसे गुंडागर्दी कहते हैं.
जिन लोगों ने पांडे के साथ बदसलूकी की थी वे शायद हंसी-खुशी यह सोचते हुए अपने घरों की ओर लौटे होंगे कि राष्ट्रगान का 'सम्मान' नहीं कर रहे एक शख्स के साथ ऐसा कर के उन्होंने कुछ असर डाला है. यह देशभक्ति नहीं है, बदमाशी और दादागिरी है.
यह घटना ऐसी ही हुई जैसे लड़कियों को उन गलियों में घुसने का दोषी ठहराया जाता है, जहां उन्हें पता होता है कि लड़के परेशान करेंगे. वे पूछते हैं, 'वहां गई ही क्यों जब पता है कि लड़के परेशान करेंगे?' राष्ट्रगान के दौरान बैठे रहने का चुनाव करने वाले लोग ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि वे 'देशभक्तों' के किसी समूह को उकसाना चाहते थे.
दुर्भाग्य की बात है कि जिन जगहों पर देशभक्ति का भाव जागना चाहिए, वहां ऐसे ज्यादातर लोग चुप रहते हैं. भारतीय लोग कूड़ा फैलाने के मामले में बदनाम हैं, लेकिन इन देशभक्तों को इसकी चिंता सताती नहीं है, लेकिन निहायत ही निजी वजहों से थिएटर के भीतर बैठे किसी व्यक्ति को धमकाने और मारने के बाद उसे शर्मिंदगी में बाहर निकल जाने के लिए मजबूर करना इनमें वर्चस्व का भाव भर देता है. यह उनके भीतर किला फतह करने का एक झूठा सेंस भर देता है, जहां उन्हें लगता है कि वे तो अपने राष्ट्र और उसके गौरव के लिए खड़े हुए थे.
ये बात अलग है कि उन्होंने ऐसा कुछ भी सोचकर नहीं किया था. यह निहायत ही बदतमीजी है और इसका राष्ट्रगौरव से कोई लेना-देना नहीं है. यह मामला उनका है और उन तमाम मसलों का, जिनसे वे ग्रस्त हैं.
कानूनी नजरिया
आप राष्ट्रगान के दौरान खड़े होने को कानूनी तौर पर मजबूर नहीं हैं. गृह मंत्रालय द्वारा जारी भारत के राष्ट्रगान से जुड़े आदेशों में कहा गया है, 'जब कभी राष्ट्रगान गाया या बजाया जाए, दर्शकों को सावधान की मुद्रा में खड़ा हो जाना चाहिए.' इन आदेशों की अवमानना करने पर किसी दंड की बात नहीं लिखी है. वरिष्ठ अधिवक्ता इकबाल चागला ने जैसा दि टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया, 'गृह मंत्रालय का निर्देश कानून नहीं है. उसका काम केवल परामर्श देने तक सीमित है.'
संयोग से राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान को रोकने संबंधी 1971 के कानून की धारा 3 कहती है, 'जो कोई भी भारत के राष्ट्रगान को गाये जाने में जान-बूझ कर रुकावट डाले या फिर ऐसे गायन के लिए जुटे समूह के साथ छेड़छाड़ करे, उसे अधिकतम तीन साल तक की कैद हो सकती है, जुर्माना भरना पड़ सकता है या फिर दोनों.'
इस कानून के हिसाब से राष्ट्रगान का सम्मान नहीं करने वाले लोग वे हुए जो दूसरों को इस नाम पर खड़े होने या बाहर निकल जाने को मजबूर कर के हंगामा खड़ा कर देते हैं कि वे राष्ट्रगान का 'सम्मान' नहीं कर रहे. इस दलील की पुष्टि केंद्रीय गृह मंत्रालय के उस आदेश से होती है जो राष्ट्रगान के मामले में एक अपवाद की तरफ इशारा करता है, 'किसी न्यूज़रील या वृत्तचित्र के मामले में अगर फिल्म के अंश के तौर पर राष्ट्रगान बजाया जाता है, तब दर्शक से खड़े होने की अपेक्षा नहीं की जाती क्योंकि इससे अव्यवस्था और भ्रम पैदा होगा.'
इस मामले की पड़ताल के लिए स्थापित अदालती फैसलों की संख्या काफी कम है. क्योंकि भारत में ऐसे लेजिसलेटिव और न्यायिक मामलों की कमी है, तो बेहतर होगा कि हम दूसरे देश से एक उदाहरण लेकर इसे समझें.
अमेरिकी न्यायिक उदाहरण
संयुक्त राज्य अमेरिका के सु्प्रीम कोर्ट ने 1989 में टेक्सस बनाम जॉनसन के मुकदमे में एक ऐसे कानून को खत्म कर दिया था जो कुछ विशिष्ट सम्माननीय चीजों जैसे राज्य और राष्ट्र के झंडे के फाड़ने को वर्जित करता था. इस फैसले के साथ ही राज्य को किसी भी ऐसी कार्रवाई को आपराधिक ठहराने या दंडित करने के लिए रोक दिया गया था जो राज्य के प्रति निष्ठा या राष्ट्रीय प्रतीक के सम्मान की अवधारणा को साबित न करती हो. अदालत के अनुसार ऐसे सभी कामों को फर्स्ट अमेंडमेंट से संरक्षण प्राप्त है, जो नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. भारतीय कानून में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रावधानों पर विवेकपूर्ण बंदिशें लगाई गई हैं, लेकिन अमेरिकी कानून में ऐसी कोई भी बंदिश मौजूद नहीं है.
अमेरिका का ही एक और मुकदमा 1919 का है. अब्राम्स बनाम युनाइटेड स्टेट्स के इस मामले ने सत्ताधारियों द्वारा विचारों के दमन के खिलाफ सशक्त दलील का समर्थन किया है और इस बात का प्रस्ताव रखा है कि असहमति पर कोई रोक न हो. यह मुकदमा ऐसे परचों के विवरण से जुड़ा था जिनमें 1918 के रूस के गृहयुद्ध के दौरान वहां अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की तैनाती की आलोचना की गई थी. जस्टिस होम्स ने अपने फैसले में लिखा था:
यदि आपको अपनी प्रस्थापनाओं या सत्ता के प्रति कोई संदेह नहीं है और आप पूरे दिल से कोई निश्चित परिणाम चाह रहे हैं, तो आप स्वाभाविक रूप से कानून में अपनी इस इच्छा को अभिव्यक्त कर के सारे विरोध का सफाया कर देते हैं... लेकिन मनुष्य को जब इस बात का अहसास हो चुका कि वक्त तमाम युद्धरत आस्थाओं पर धूल डाल देता है, तो वो यह भी माने लेगा और खुद अपने आचार की बुनियाद से कहीं ज्यादा पुख्ता तौर पर मान लेगा कि सर्वश्रेष्ठ हित तक पहुंचने का बेहतर साधन विचारों का मुक्त आदान-प्रदान होता है- कि सत्य का सबसे अच्छा परीक्षण विचार की यह ताकत है कि वह बाजार की प्रतिस्पर्धा में खुद को स्वीकार्य बना ले, और यह कि सत्य ही वह इकलौती जमीन है जिस पर खड़ा होकर अपनी इच्छाओं को सुरक्षित तरीके से पूरा कर सकता है.
भारत की किसी अदालत से ऐसा बागी विचार सुनने की उम्मीद रखना कुछ ज्यादा ही आशावादी होगा लेकिन यह बात हमें ऐसे मामलों से जुड़े तीसरे सवाल तक ले आती है.
आखिरी सवाल
सवाल यह है कि सिनेमाघरों में फिल्म के दिखाए जाने से पहले राष्ट्रगान बजाया ही क्यों जाए? तत्कालीन कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने 2003 में नेशनलिस्ट यूथ कांग्रेस की यह मांग स्वीकार की थी कि फिल्मों से पहले राष्ट्रगान बजाने के चलन को दोबारा शुरू किया जाए, जो अस्सी के दशक में खत्म हो चुका था. उस वक्त गृह विभाग की कमान एनसीपी के छगन भुजबल के पास थी.
फिल्मों का प्रदर्शन राज्य सूची का हिस्सा है जबकि 'प्रदर्शन के लिए सिनेमटोग्राफिक फिल्मों की मंजूरी' भारतीय संविधान की केंद्रीय सूची में अनुच्छेद 60 से मिलती है (सातवीं अनुसूची) और सिनेमा (का प्रदर्शन) राज्य सूची के अनुच्छेद 33 से शासित होता है. अधिकतर राज्यों के अपने-अपने सिनेमटोग्राफ कानून और नियम हैं जो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के सिनेमटोग्राफ कानून, 1952 के लिए पूरक का काम करते हैं.
अस्सी के दशक तक अहम राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय आयोजनों की नई रीलों में राष्ट्रगान उनका अंश हुआ करता था. महाराष्ट्र सरकार ने 2003 में एक कार्यकारी आदेश पारित कर के फिल्म दिखाने वालों को फिल्मों के प्रदर्शन से पहले राष्ट्रगान बजाने को कह दिया.अब ये फिल्र्म दिखाने वाले राष्टगान का अपना-अपना संस्करण लेकर आ गए हैं जिसे वे फिल्म शुरू होने से पहले बजाते हैं.
ऐसी कोई भी फिल्म जो कि पूरे राष्ट्रगान (करीब 52 सेकंड) को बजाती हो, सिनेमटोग्राफ कानून 1952 के अंतर्गत लघु फिल्मों की श्रेणी में आ जाएगी जिसे प्रदर्शन के लिए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की मंजूरी की दरकार होगी.
बंधक दर्शक
भारत के राष्ट्रगान के संबंध में आदेशों के मुताबिक राष्ट्रगान के प्रदर्शन के लिए तय जगहों की सूची में सिनेमाहॉल शामिल नहीं हैं. बहरहाल, साधारण दलील यह है कि आपके पास एक ऐसा दर्शक-वर्ग है जो फिल्म देखने आया है और इसलिए अगर आप फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजा देते हैं तो वह कहीं नहीं भाग सकता, बल्कि उसका हिस्सा बनने को मजबूर होगा. दरअसल, सरकार इसी मजबूरी का फायदा उठाकर राष्ट्रीय गौरव की खुराक आपको जबरन दे रही है.
सवाल है कि क्या आप हर फिल्म से पहले थिएटरों में राष्ट्रगान को बजाकर उसकी अहमियत को कम नहीं कर रहे? पहले तो इसे लोगों को जबरन सुनाकर इसे आप हलका करेंगे, उसके बाद अगर कोई खड़ा न होना चाहे तो दबंगई से 'न्याय' देने का ठेका अपने ऊपर लिए हुए गुंडे रही-सही कसर पूरी कर देंगे.
राष्ट्रगान आम तौर से सार्वजनिक सभाओं और सरकारी समारोहों में बजाया जाता है. इसे सरकार और उसका गृह मंत्रालय तय करता है. ऐसा देशभक्ति और भरोसे की भावना को बढ़ाने के लिए किया जाता है.
जबकि यह कदम एक ऐसी भावना को बढ़ा रहा है जिसका किसी भी किस्म की देशभक्ति से कोई लेना-देना नहीं है.