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‘नॉन परफॉर्मिंग’ विश्वविद्यालयों के लिए आखिर कौन है जिम्मेदार?

यदि ये यूनिवर्सिटिज मानक पर खरी नहीं उतरीं तो इन्हें बंद कर दिया जाएगा

Manoj Kumar Rai

केंद्र सरकार ने अचानक शिक्षा के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है. तीन सदस्यीय समिति की रिपोर्ट के आधार पर एक पवित्र संख्या या खास संख्या को मानक रखते हुए 11 विश्वविद्यालयों को ‘नॉन परफॉर्मिंग’ अर्थात मानक के अनुरूप प्रदर्शन न करने वाले वाले विश्वविद्यालयों की श्रेणी में रखा जाना कई सवाल खड़े कर रहा है.

वैसे तो जबसे यह सूचना विश्वविद्यालयकर्मियों के कानों में पहुंची है वे लोग अपने भविष्य को लेकर खासे चिंतित है. कर्मी यह समझ पाने में असमर्थ है कि बड़ी मेहनत से तो उनके विश्वविद्यालय को नैक द्वारा ‘ए’ ग्रेड मिला है. फिर यह नाइंसाफी क्यों?


कैसे काम करती है नैक?

बताते चलें कि ‘नैक’ नाम की संस्था जिसका मुख्यालय बेंगलुरु में है, यूजीसी की एक स्वायत्त संस्था है. इसका मुख्य कार्य है प्रत्येक शैक्षणिक संस्था को उसके द्वारा बनाई गई समिति की रिपोर्ट के आधार पर ग्रेड तय करना. यह मान्यता अगले पांच वर्षों तक के लिए वैध होती है.

नैक द्वारा ग्रेडिंग के लिए भेजी जाने वाली समिति का अध्यक्ष प्रायः कुलपति अथवा पूर्व कुलपति होता है. शेष सदस्य विपरीत दिशाओं वाले विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर होते हैं. स्वाभाविक है कि संस्था- प्रमुख प्रतिभाशाली प्रोफेसर को ही नामित करते होंगे.

यह समिति नैक द्वारा स्थापित पढ़ाई-लिखाई, रिसर्च, फैकल्टी मेंबर, शिक्षण-प्रशिक्षण, एडमिनिस्ट्रेशन, फाइनेंसियल सेचुएशन, बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर आदि के आधार पर ही संस्था को उचित ग्रेड देती है.

नैक के फेसबुक वाल से साभार

क्या बंद कर दिए जाएंगे 'नॉनपरफॉर्मिंग' विश्वविद्यालय?

मजेदार तथ्य यह है कि इन 11 विश्वविद्यालयों में उन 9 विश्वविद्यालयों का नाम कैसे आ गया जिनकी स्थापना हुए महज दो वर्ष ही हुए हैं.

इस सूची में तो एक ऐसा विश्वविद्यालय भी है जिसको अमेरिकी की एक अग्रणी संस्था ने दिल्ली विश्वविद्यालय से भी अधिक अंक दिया है.

कुछ एक महत्वपूर्ण अखबारों ने अपने सूत्रों के हवाले से तो इतना तक लिख दिया है कि यदि वे मानक पर खरे नहीं उतरे अथवा अपने में सुधार नहीं ले आ पाएंगे तो उन्हें बंद कर दिया जाएगा.

इसको लेकर कर्मियों में तमाम तरह की चर्चाएं हो रही है. प्रत्येक कर्मी अपने-अपने हिसाब से इसकी व्याख्या कर रहा है. उन्हें यह चिंता सता रही है कि उसके भविष्य का क्या होगा?

वह घर जाएगा या किसी अन्य विश्वविद्यालय में स्थानांतरित होगा या वह जहां काम रहा है वहीं पर सुकून से काम कर पाएगा? भविष्य की अनिश्चितिता को लेकर वह दुविधा में है.

असली सवाल जो परेशान करने वाला है, वह यह है कि इसकी जरूरत ही क्यों आन पड़ी. आखिर सरकार की ही एक एजेंसी द्वारा ‘ए’ ग्रेड प्राप्त संस्थाएं जिनका नेतृत्व भी सरकार द्वारा नामित खोज समिति से तय होने और विजिटर के अनुमोदन से नियुक्त व्यक्ति के द्वारा ही किया जा रहा है, कैसे अचानक इतने नीचे चली गईं.

शिक्षा-संस्थानों के पतन की वजह 

कहीं ऐसा तो नहीं कि इन संस्थानों में नियुक्त या मूल्यांकन एजेंसी के शीर्ष पर बैठे तमाम विद्वान सचमुच में ‘बाथरूम में रेनकोट पहनकर ही स्नान कर रहे हैं’, जैसा कि हमारे प्रधानमंत्री ने एक अवसर पर प्रतीक के तौर कहा था. पहली नजर में तो यही लग रहा है.

इतिहास पढ़ाने वाले गुरुओं ने किसी राज्य के पतन के कारणों का उल्लेख करते समय एक कारण अवश्य बताते थे और वह होता था- अयोग्य उत्तराधिकारी का सत्ता पर बैठना .

संस्थान-प्रमुखों की नियुक्ति उच्च शिक्षा में एक बड़ी चुनौती रही है. आज भी तमाम प्रयास के बाद भी शायद ही किसी संस्थान को एक सुयोग्य नेतृत्व मिल पा रहा है.

गणेश परिक्रमा के बल पर पाए ये तमाम संस्थान-प्रमुख पद पाने के बाद अगले लक्ष्य-प्राप्ति के लिए कार्तिकेय बन जाते हैं. अक्सर देखा गया है कि नियुक्ति के बाद संस्थान-प्रमुख अपने मूल दायित्व से बेपरवाह समिति-सम्मेलनों के बहाने अपना ‘संपर्क-सूत्र’ बढ़ाने में लगे रहते हैं. ऐसी स्थिति में संस्थान की अकादमिक और प्रशासनिक व्यवस्था में गिरावट होना स्वाभाविक है.

‘नॉन परफॉर्मिंग’ विश्वविद्यालय के लिए बनी खोज समिति के एक सदस्य जो स्वयं किसी संस्थान के मुखिया है उस संस्थान में आज तक शोध-कार्य ठीक तरह से शुरू नहीं हो पाया है. पढ़ाई-लिखाई तो दूर की बात है.

ऐसे में यह संदेह उठना स्वाभाविक है कि कहीं ये कदम सरकार की छवि को खराब करने के लिए तो नहीं उठाया गया है.