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मुन्ना बजरंगी के खात्मे के साथ खौफ के एक युग का अंत

अपराध की दुनिया में नए वारिस की तलाश अब जोरों पर हैं, देखना होगा कि इस खाली स्थान को भरने के लिए किसका नाम पहले बाहर आता है

Utpal Pathak

तपती गर्मी और लू के थपेड़ों के बीच उत्तर प्रदेश मॉनसून का इंतजार कर ही रहा था कि अचानक सोमवार की सुबह लखनऊ समेत पूर्वांचल के अधिकारियों, पत्रकारों समेत क्राइम की दुनिया से ताल्लुक रखने वालों के फोन अचानक घनघनाने लगे. सबकी जुबान पर सिर्फ एक ही सवाल था, 'क्या वाकई मुन्ना बजरंगी की हत्या हो गई है? बहरहाल, व्हाट्सएप समेत सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफार्मों पर मुन्ना की रक्तरंजित लाश की तस्वीर आने के बाद और मीडिया द्वारा दिए जा रहे पल-पल के अपडेट ने स्थिति बहुत जल्द ही स्पष्ट कर दी. और सुबह के 7 बजते-बजते प्रदेश भर में मुन्ना की मौत की खबर जंगल की आग की तरह फैल गई.

प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी का नाम बीते दो दशक से आतंक के पर्याय के रूप में लिया जा रहा था. जेल में हुई हत्या के बाद समाचार माध्यमों पर मुन्ना के आपराधिक इतिहास समेत अन्य जानकारियों की बाढ़ के बीच कुछ ऐसे बिंदु भी हैं जिनका सीधा सरोकार मुन्ना और उत्तर प्रदेश के संगठित अपराध की कड़वी सच्चाई से जुड़ा हुआ है.


लोगों की मानें तो मुन्ना की हत्या को अपराध के एक युग के अंत के रूप में देखा जा रहा है. और इस युग को स्वचालित हथियारों, महंगी गाड़ियों में चल रहे पेशेवर कातिलों, भेष बदलकर काम को अंजाम देने वाले शूटरों एवं फिल्मी अंदाज में गोली मारने के बाद आसपास के लोगो से सवाल-जवाब करने वाले अपराधियों समेत हत्या के बाद मरने वाले की अंगूठी, घड़ी या तस्वीर को बतौर सबूत मंगवाए जाने वाले कालखंड के रूप में माना जाएगा.

बागपत जेल ( पीटीआई )

अनिल सिंह का दरबार और मुन्ना 

80 और 90 के दशक में वाराणसी के पूर्व डिप्टी मेयर स्वर्गीय अनिल सिंह का नाम पूर्वांचल बाहुबलियों फेहरिस्त में ऊंचे पायदान पर था. मुन्ना का संगठित अपराध से साक्षात्कार अनिल सिंह के दरबार में हुआ और शांत स्वभाव का एक आम लड़का बहुत जल्द ही एक बड़ा अपराधी बनने के सपने देखने लगा. उस दौर में पूर्वांचल का संगठित अपराध उद्योग विस्तार के वेग में था और अत्याधुनिक असलहों समेत नई उम्र के नौजवानो की पौध आसानी से उपलब्ध होने लगी थी.

आए दिन हत्या, गैंगवार और रंगदारी मांगने जैसी घटनाओं के बीच नित-नए नाम बन और बिगड़ रहे थे. लेकिन मुन्ना ने लीक से हटकर काम करने की ठानी और उसने हत्याओं और वारदातों का एक ऐसा दौर शुरू किया जो इतिहास के काले पन्नों में दर्ज होता गया.

मुन्ना द्वारा अंजाम दी गई वारदातों की लंबी फेहरिस्त को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि मुन्ना ने कुछ काम ऐसे किए जिससे उसकी चर्चा प्रदेश ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों तक होने लगी. 80 के दशक के अंत के दौरान राजेंद्र सिंह, बड़े सिंह हत्याकांड हो या 1997 में गांधी काशी विद्यापीठ के पूर्व अध्यक्ष सुनील राय समेत 4 अन्य लोगों की छात्रसंघ चुनाव के नतीजे के ठीक बाद हुई नृशंस हत्या, जिसमें ए.के 47 के हमले में छात्रसंघ अध्यक्ष रामप्रकाश पाण्डेय बाबा, पूर्व अध्यक्ष सुनील राय समेत मुन्ना राय और भोनू मल्लाह मौके पर ही मृत पाए गए थे.

ठीक उसी तरह 2002 में सुनील राय के भाई अनिल राय की हत्या वाराणसी के मलदहिया इलाके में सुबह साढ़े 7 बजे सरेबाजार ए.के 47 से की गई थी. हालांकि अनिल राय की हत्या मुन्ना ने अपने गुर्गों से करवाई थी लेकिन जानकार मानते हैं कि मुन्ना वारदात के वक्त मौके पर मौजूद था.

मुन्ना के आपराधिक ग्राफ पर करीब से नजर रखने वाले एक आईपीएस अफसर ने नाम न छापने की शर्त पर फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'मुन्ना ने जरायम की दुनिया में नाम बनाने के लिये कोई कसर नहीं छोड़ी थी और कई बार पुलिस की गतिविधियों की सूचना उसे समय रहते मिल जाया करती थीं.'

स्टाइल और पेशेवर अंदाज का समन्वय

श्रीप्रकाश शुक्ल के एनकाउंटर के बाद रिक्त हुए स्थान को भरने के क्रम में मुन्ना ने लगभग उसी अंदाज में अपने अपराध को एक अलग स्टाइल में रेखांकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. जहां एक तरफ वह स्वचालित हथियारों से घटनाओं को अंजाम दे रहा था वहीं दूसरी तरफ शूटरों की नई पौध को अपराध के दौरान सैद्धांतिक समर्थन देकर अपनी ओर तेजी से आकर्षित भी कर रहा था. कहते हैं उस जमाने में मुन्ना के गैंग में एंट्री की परीक्षा स्वरूप किसी बड़ी घटना को अंजाम देना होता था जिसके बाद ही वो उन अपराधियों का चयन अपनी टीम में करता था.

इसी क्रम में 2003 में उस जमाने के कुख्यात अनुराग त्रिपाठी उर्फ अन्नू एवं रमेश यादव उर्फ बाबू ने वाराणसी जिला जेल के गेट पर सभासद बंसी यादव की हत्या कर दी थी, जिसके बाद उनकी जगह मुन्ना के गैंग में पक्की हो चली थी. ऐसे ही एक घटनाक्रम में इलाहाबाद जेल ले जाए जाने के क्रम में मुन्ना ने वाराणसी से लगभग 30 किलोमीटर दूर एक ढाबे पर पुलिस के काफिले को रुकवाकर कोयले के कुछ ठेकेदारों के साथ एक मीटिंग करने की कोशिश की लेकिन वाराणसी पुलिस ने समय रहते मौके पर छापा मारकर कई ठेकेदारों और सफेदपोशों को गिरफ्त में ले लिया था.

(फोटो: फेसबुक से साभार)

मुन्ना के अंदाज का नजारा उस दौर में उसके कई शूटरों के क्रिया-कलापों से भी लगाया जा सकता है. अनुराग त्रिपाठी समेत अभिलाष सिंह, अफरोज खान उर्फ बंटी, रमेश यादव उर्फ बाबू, मोनू सिंह और अन्य कई दुर्दांत शूटरों ने उत्तर प्रदेश समेत बिहार, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में भी ताबड़तोड़ हत्याएं कीं. इसी बीच मुन्ना के गुर्गों ने साहू बंधु हत्याकांड और कुछ अन्य व्यापारियों की हत्या करने के बाद पूर्वांचल के व्यापार के केंद्र वाराणसी की सभी मंडियों से अच्छी मात्रा में रंगदारी वसूल कर गैंग की ताकत को और ज्यादा बढ़ा दिया था.

पुलिस सूत्रों की मानें तो लंबे समय तक पुलिस के पास मुन्ना की कोई तस्वीर भी नहीं थी. गाजीपुर में 29 नवंबर, 2005 को हुई बीजेपी के विधायक कृष्णानंद राय की हत्या में मुन्ना का नाम आने के कुछ दिन बाद तत्कालीन एसएसपी गाजीपुर अखिल कुमार ने पहली बार मुन्ना की एक तस्वीर जारी की थी. मुन्ना की यह तस्वीर वैष्णो देवी दर्शन के बाद की थी जिसमे उसके माथे पर एक लाल कपड़ा बंधा हुआ था. हालांकि तस्वीर जारी होने पर भी मुन्ना कई वर्षों तक पुलिस की आंखों में धूल झोंकने में कामयाब रहा था और बाद में बड़े ही नाटकीय ढंग से मुंबई से उसकी गिरफ्तारी हुई थी.

क्या राजनीतिक अभिभावक के न होने से गई मुन्ना की जान ?

उत्तर प्रदेश का अपराध बगैर राजनीतिक शरणदाताओं और आकाओं की मर्जी के बगैर नहीं चल पाता है. मुन्ना को यह बात समझ तो आई लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. सभी पार्टियों के नेताओं से संपर्क होने के बावजूद दरअसल मुन्ना ने कभी किसी एक पार्टी या एक नेता को तवज्जो नहीं दी और उसका राजनीतिक रुख समय-समय पर बदलता रहा.

कभी एक क्षेत्रीय दल से पत्नी को चुनाव लड़वा कर और कभी महाराष्ट्र के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता का हमसाया बनकर और कभी बीजेपी में अपनी जमीन तलाशते मुन्ना ने कभी भी स्थिर होकर किसी पार्टी या राजनीतिक अभिभावक का दामन नहीं थामा. अंदरखाने में चल रही रही चर्चाओं को मानें तो यह भी एक बड़ा कारण रहा कि मुन्ना को लगातार न सिर्फ अपने खास आदमियों को खोना पड़ा बल्कि अंत में खुद भी काल के गाल में समाना पड़ा.

कुशल मैनेजरों के अभाव में हुई मुन्ना से चूक

उत्तर प्रदेश के संगठित अपराध में सिर्फ अपराधियों या राजनेताओं का ही नहीं बल्कि कुशल मैनेजरों का भी खासा इस्तेमाल होता आया है. बड़े अपराधियों के मैनेजर न सिर्फ सरकारी ठेकों पर नजर रखते हैं बल्कि अपराधियों की पेशी के दौरान होने वाली सुरक्षा व्यवस्था समेत अन्य कार्यों का प्रबंधन भी देखते हैं. इन्हीं मैनेजरों का उपयोग मुकदमों की पैरवी के अलावा अफसरों और नेताओं की मांगे पूरी करने के लिए भी किया जाता है.

जेल में बंद होने के बाद से मुन्ना ने बीते वर्षों में कई बार अपने मैनेजर बदले और 2014-15 में अंततः अपने साले पुष्पजीत सिंह को बड़ी जिम्मेदारियां देकर समाज में एक संदेश देने की कोशिश भी की लेकिन पुष्पजीत की हत्या के बाद वो स्थान फिर रिक्त हो गया जिसे वाराणसी के ठेकेदार मोहम्मद तारिक ने बखूबी अंजाम तक पहुंचाया.

तारिक की तेजी और व्यवहार कुशलता ने बड़ी जल्द ही उसे राजनीतिक गलियारों में एंट्री दिलवा दी. लेकिन बहुत जल्द ही तारिक की जल्दबाजी ने उसे बहुत लोगों की आंख की किरकिरी बना डाला और अंत में तारिक की भी हत्या हो गई. तारिक की हत्या के बाद मुन्ना को काम अलग-अलग लोगों के बीच बांटने पर मजबूर होना पड़ा और उसे एक कुशल मैनेजर की तलाश लंबे समय तक थी जो उसकी मौत तक भी पूरी नहीं हो पाई.

सोमवार को मुन्ना बजरंगी की हत्या के बाद उनका शव लेने बागपत जेल पहुंचा उनका परिवार

हालांकि प्रदेश के अपराध पर करीब से नजर रखने वालों की मानें तो मुन्ना की मौत के बाद प्रदेश में गैंगवार के कोई आसार नहीं दिखते. इसके पीछे यह भी दलील दी जा रही है कि मुन्ना के रिश्ते अपने पूर्व आका मुख्तार अंसारी से अच्छे नहीं रह गए थे और वहीं दूसरी तरफ बृजेश सिंह का खेमा भी मुन्ना की मौत के बाद राहत की सांस ले रहा है. ऐसे में मुन्ना की मौत का बदला लेने वाला कोई नहीं और इन परिस्थितियों में गैंगवार जैसी आशंका नहीं दिखाई देती है.

वाराणसी में अपराध की खबरों पर गहरी पकड़ रखने वाले पत्रकार पवन सिंह ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया, 'भले ही मुन्ना की हत्या जेल में हुई और सुरक्षा में हुई चूक की जांच सबंधित अधिकारी नियत समय में करेंगे ही. लेकिन अब का दौर बदल चुका है और यह योगी सरकार का समय है और ऐसे में गैंगवार जैसी किसी घटना की कल्पना भी अपराधियों के लिए मुश्किल साबित होगी.'

कौन लेगा मुन्ना बजरंगी की जगह

मुन्ना बजरंगी की मौत के बाद पूर्वांचल में उसकी जगह लेने के लिए तमाम प्रयास आने वाले समय में होंगे, लेकिन वर्तमान में मुन्ना की मौत के बाद उत्तर प्रदेश के अपराध क्षेत्र में 2 नाम प्रमुखता से लिए जा रहे हैं और उन दोनों ही नामों का सरोकार इस बार पूर्वांचल से न होकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है. पुलिस सूत्रों की मानें तो मुन्ना की हत्या की बाद की खाली जगह को भरने के लिए सुंदर भाटी और सुनील राठी अब एड़ी-चोटी का जोर लगाएंगे.

सुंदर भाटी 

मुन्‍ना बजरंगी की हत्‍या के बाद से सुंदर भाटी गैंग की चर्चा सबकी जुबान पर है. इसका प्रमुख कारण यह भी है कि जिस जेल में मुन्‍ना बजरंगी की हत्‍या हुई है उसी जेल में यूपी का एक अन्य कुख्‍यात सुंदर भाटी भी बंद है. लगभग 2 साल पहले लखनऊ में हुई मुन्‍ना बजरंगी के साले पुष्पराज की हत्‍या और बीते साल दिसंबर में मुन्ना के खासम खास मोहम्मद तारिक की लखनऊ में हुई हत्या के मामले में भी सुंदर भाटी गैंग का हाथ होने की चर्चा राजनीतिक गलियारों समेत जरायम की दुनिया में आम थी.

ग्रेटर नोएडा के घंघोला इलाके के निवासी सुंदर भाटी ने अपने आपराधिक करियर की शुरुआत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दुर्दांत अपराधी सतबीर गुर्जर के गैंग में बतौर शूटर की थी. बहुत कम समय में वह सतबीर का खास हो चला था. इसी बीच ग्रेटर नोएडा के गांव रिठोरी के एक पढ़े-लिखे परिवार से ताल्लुक रखने वाले नरेश भाटी का प्रवेश अपराध की दुनिया में हुआ.

नरेश के चाचा एसडीएम थे, और उसके ताऊ विदेश मंत्रालय में सचिव थे. जायदाद के विवाद को लेकर नरेश के ताऊ और दादा की हत्या हो जाने के बाद परिवार वालों की मौत का बदला लेने के लिए वह अपराध की दुनिया में उतर गया. बहुत जल्द नरेश भी बदमाश सतबीर गुर्जर के संपर्क में आ गया और वहीं से उसकी दोस्ती सुंदर भाटी से हुई.

अगले कुछ वर्षों तक दोनों ने पुलिस समेत सुरक्षा एजेंसियों के नाक में दम कर दिया और दोनों ने गाजियाबाद, गौतमबुद्धनगर, फरीदाबाद, दिल्ली सहित पश्चिमी यूपी में हत्या, लूट और रंगदारी का उद्योग स्थापित कर लिया. पुलिस ने इन दोनों पर एक-एक लाख का ईनाम रखा था. दोनों की दोस्ती का उस वक्त आलम यह था कि सुंदर भाटी ने नरेश भाटी के परिवार की हत्‍या का बदला लेने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा दी थी.

लेकिन इस दोस्ती का हश्र कुछ और ही होना था. सुंदर भाटी को लोहे के स्क्रैप (कबाड़) और ट्रांसपोर्ट के काम पर कब्‍जे के लिए सिकंदराबाद की ट्रक यूनियन पर आधिपत्य स्थापित करना था. मामला तब और बिगड़ गया जब इन दोनों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा एक साथ बलवती हुईं और दोनों ने ही जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया.

यहां पर दोनों के हितों में टकराव का दौर शुरू हुआ जो बाद में गैंगवार में तब्दील हो गया और इसी गैंगवार में ट्रक यूनियन के 2 पदाधिकारियों की हत्या भी हो गई. भारी विरोध के बावजूद नरेश भाटी जिला पंचायत अध्‍यक्ष का चुनाव जीत गया. 2003 में सुंदर भाटी ने मेरठ में नरेश भाटी पर पहला जानलेवा हमला किया जिसमें नरेश का अंगरक्षक और ड्राइवर मारे गए, लेकिन वो खुद बच निकला. 2004 में सुंदर भाटी ने एक बार फिर नरेश भाटी पर हमला किया और इस हमले में नरेश मारा गया.

नरेश की हत्‍या के बाद गैंग की कमान उसके भाई रणपाल भाटी ने संभाली और नरेश की हत्या का बदला लेने के लिए रणपाल ने सुंदर के भाई प्रताप पटवारी समेत 3 लोगों की हत्या करवा दी. यूपी पुलिस की तरफ से रणपाल पर भी 1 लाख का ईनाम घोषित किया गया था. 2006 में पुलिस ने रणपाल को एक एनकाउंटर में मार गिराया था. रणपाल के मारे जाने के बाद एक बार फिर इस गैंग की कमान सबसे छोटे भाई रणदीप के हाथों में आ गई.

इस बार उसका साथ देने के लिए उसका भांजा अमित कसाना और शार्प शूटर अनिल दुजाना भी गैंग में शामिल हो गए था. दुजाना ने 2 बार सुंदर को मारने की नाकाम कोशिश की थी लेकिन इसी बीच रणदीप पुलिस की गिरफ्त में आ गया. 2013 में एक मुकदमे की पेशी के दौरान ले जाते हुए उसकी भी हत्‍या करवा दी गई थी और इसका आरोप भी पर सुंदर भाटी गैंग पर ही लगा था. बाद में अनिल दुजाना के भाई जय भगवान की हत्‍या में सुंदर भाटी गैंग का नाम चर्चा में आया था.

सुंदर भाटी ने लगभग एक दर्जन बार मौत को चकमा दिया है, हाल की घटनाओं में 2011 में गाजियाबाद के एक बैंक्‍वेट हाल में नरेश भाटी गैंग ने सुंदर भाटी पर ताबड़तोड़ गोलिया चलाई थीं, लेकिन यहां भी वो बच निकला था. यूपी पुलिस ने 2014 में सुंदर भाटी को उसके पैतृक गांव से गिरफ्तार कर लिया था और तभी से वो जेल से ही अपना नेटवर्क संचालित कर रहा है.

सुनील राठी 

सुनील राठी उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपराध जगत में एक बड़ा नाम है. कुछ वर्ष पहले सुनील के पिता नरेश राठी और भाई की बिजरौल भट्ठे के पास हत्या कर दी गई थी जिसका आरोप सोमपाल भाटी पर लगा था. बदले की भावना में आकर सुनील ने ताबड़तोड़ 4 हत्याएं की थीं. बहुत कम समय में सुनील ने उत्तराखंड में लंबा-चौड़ा कारोबार स्थापित कर लिया.

उसकी मां राजबाला देवी बागपत के टिकरी कस्बे से नगर पंचायत की पूर्व चेयरपर्सन रह चुकी हैं, और बीते विधानसभा चुनाव में उन्होंने बीएसपी के टिकट पर छपरौली विधानसभा से चुनाव भी लड़ा और वर्तमान में रुड़की जेल में बंद हैं. जानकार मानते हैं कि मुन्ना ने उत्तराखंड के कामों में रुचि लेना शुरू कर दिया था और सुनील राठी उसकी इस हरकत से काफी नाराज था. हाल ही में राठी के एक भाई को पूर्वांचल की एक जेल में मुन्ना के लोगों ने मारा-पीटा भी था जिसके बाद दोनों के बीच विवाद गहरा हो चला था.

बीते साल पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद से सुनील पहले रुड़की जेल में बंद था लेकिन बाद में उसने अपनी जान को खतरा बताते हुए कोर्ट से उसे बागपत जेल शिफ्ट करने की गुहार लगाई थी जिसके बाद उसे 31 जुलाई, 2017 को बागपत जेल शिफ्ट कर दिया गया था. जेल में उसे कुख्यात विक्की सुनहेड़ा के साथ उसे तन्हाई बैरक में रखा गया था जहां बाद में मुन्ना को भी रखा गया जहां बाद में उसकी हत्या कर दी गई.

बहरहाल, उत्तर प्रदेश सरकार ने मुन्ना की हत्या के बाद फौरी कार्रवाई करते हुए जेलर समेत कई अन्य अधिकारियों को सस्पेन्ड करने के साथ मामले की न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं. लेकिन अपराध की दुनिया में नए वारिस की तलाश अब जोरों पर हैं, देखना होगा कि इस खाली स्थान को भरने के लिए किसका नाम पहले बाहर आता है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)