view all

आखिर आरएसएस ने 52 सालों तक राष्ट्रध्वज क्यों नहीं फहराया ?

बीजेपी हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में तिरंगे को फहराते देखना चाहती है उम्मीद है संघ भी इस फैसले का इस्तकबाल करेगा

Sandipan Sharma

संपादकीय नोट: यह लेख पहली बार 22 अप्रैल 2016 को प्रकाशित हुआ था. लेख को फिर से प्रकाशित किया जा रहा है क्योंकि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पलक्कड जिला प्रशासन के आदेशों की अनदेखी करते हुए सरकारी स्कूल में राष्ट्रध्वज फहराया. पलक्कड के जिला कलेक्टर ने भागवत के राष्ट्रध्वज फहराने पर ऐतराज जताते हुए कहा कि किसी सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में राजनेता का राष्ट्रध्वज फहराना उचित नहीं क्योंकि ऐसा करने का अधिकारी या तो कोई शिक्षक हो सकता है या फिर जनता का निर्वाचित प्रतिनिधि.

जो लोग झंडे का सम्मान नहीं करना चाहते उन्हें डंडा दिया जाना चाहिए- यह चेतावनी ट्विटर जगत के ट्वीटवीरों ने गुरुवार को जारी की. इन ट्वीटवीरों ने पहले से मान रखा था कि सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में तिरंगा फहराने के बीजेपी सरकार के फैसले का विरोध होगा.


अर्णब गोस्वामी के शो में दिखा कि राष्ट्र तो मानव संसाधन मंत्रालय के इस फैसले पर खुशी में लहालोट हो रहा है और यह भी दिखा कि जनरल जीडी बख्शी की आंखों में आंसू आ गए. मौके की नजाकत को भांपते हुए बीजेपी की फायरब्रांड नेता नूपुर शर्मा ने तुरंत ट्वीट करते हुए अपनी तरफ से चरित्र-प्रमाणपत्र जारी किया, ‘जंग के माहिर (जनरल जी डी बख्शी) को तिरंगे की हिफाजत करते हुए रोना पड़ा! कैसा खौफनाक मंजर है ! कांग्रेसी+कम्युनिस्ट+अवसरवादियों को शर्म आनी चाहिए.’

नूपुर शर्मा

आइए, इसी प्रसंग से जुड़ी नीचे लिखी एक सत्यकथा पढ़िए, यह सत्यकथा झंडे के बारे में है और डंडे के बारे में भी.

बात 2001 के 26 जनवरी की है. राष्ट्रप्रेमी युवा दल नाम के एक संगठन के तीन कार्यकर्ता नागपुर के आरएसएस कार्यालय के परिसर में संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार को श्रद्धांजलि देने के लिए घुसे.

कुछ पल गुजरने के बाद तीनों कार्यकर्ता—बाबा मेंढे, रमेश कांबले तथा दिलीप चट्टानी ने देशभक्ति के नारे लगाने शुरू कर दिए और एक तिरंगा निकाला. सोचिए कि इसके बाद क्या हुआ होगा?

पहली बात तो यह हुई कि आरएसएस के कार्यालय परिसर का प्रभार संभालने वाले व्यक्ति सुनील काठले ने इन कार्यकर्ताओं को राष्ट्रध्वज फहराने से रोका. लेकिन जब ये कार्यकर्ता झंडा फहराने में कामयाब हो गया तो आरएसएस उन्हें इस बात के लिए अदालत ले गई.

पूरे 12 साल इन तीनों राष्ट्रप्रेमियों पर नागपुर की अदालत में बॉम्बे पुलिस एक्ट तथा भारतीय दंड संहिता की प्रासंगिक धाराओं के तहत संघ के परिसर में राष्ट्रध्वज फहराने को लेकर मुकदमा चलता रहा. ये तीनों 2013 में स्वतंत्रता दिवस से कुछ पहले छूटे, जस्टिस आरआर लोहिया की अदालत ने उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया.

संक्षेप में कहें तो इन राष्ट्रप्रेमियों को राष्ट्र का झंडा फहराने के लिए डंडा मिला.

आरएसएस और राष्ट्रध्वज

आरएसएस की तिरंगे से मुखालफत, इनकार और इकरार का बड़ा दिलचस्प नाता रहा है. नुपुर शर्मा जैसे नए नेताओं को शायद यह जानकर बड़ा धक्का लगेगा कि कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों या फिर वामियों ने नहीं बल्कि आरएसएस ने अपने मुख्यालय पर पूरे 52 साल राष्ट्रध्वज नहीं फहराया.

राष्ट्रध्वज संघ के मुख्यालय पर पहली बार 15 अगस्त 1947 को फहराया गया और इसके बाद 26 जनवरी 1950 को. इसके बाद आरएसएस के मुख्यालय पर तिरंगा सन् 2002 में नजर आया. तब इसे संघ के मुख्यालय और स्मृति भवन यानी संघ के संस्थापक हेडगेवार और गुरु गोलवलकर स्मृति-स्थल पर फहराया गया था.

टाइम्स ऑफ इंडिया ने आरएसएस कार्यालय के हवाले से लिखा कि मोहिते विभाग के नगर संघ चालक और डॉक्टर हेडगेवार स्मारक समिति के श्रीरामजी जोशी ने क्रमशः मुख्यालय और स्मृति-भवन पर राष्ट्रध्वज फहराया. आरएसएस के सूत्रों के मुताबिक इससे पहले 15 अगस्त 1947 तथा 26 जनवरी 1950 को आरएसएस मुख्यालय मे राष्ट्रध्वज फहराया गया था. इसके बाद से राष्ट्रध्वज का फहराया जाना यहां बंद हो गया था.

सवाल उठता है संघ अपने मुख्यालय और शाखा में राष्ट्रध्वज फहराने को लेकर इतना बिदकता क्यों हैं ? साल 2002 में संघ ने अपने मुख्यालय में राष्ट्रध्वज फहराने का फैसला किया तो इसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के सूर्यनारायण राव ने बंगलोर में संवाददाताओं को बताया कि आरएसएस कुछ साल पहले तक वर्षवार राष्ट्रध्वज नहीं फहराता था क्योंकि कानून बड़े सख्त थे कि राष्ट्रध्वज सिर्फ सरकारी इमारतों पर ही फहराना है.

उनका कहना था, ‘चूंकि अब नियमों में थोड़ी ढील दी गई है इसलिए हम भी राष्ट्रध्वज फहरा रहे हैं. राव ने यह भी कहा कि आरएसएस अपनी शाखाओं पर इसलिए भी राष्ट्रध्वज फहराने से कोताही करता रहा क्योंकि स्वयंसेवक बाकी लोगों के साथ मुख्यधारा में शामिल होकर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के कार्यक्रमों में सीधे भागीदारी करना चाहते थे. टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक राव ने उस घड़ी कहा था कि, ‘अगर हम शाखा में कार्यक्रम करेंगे तो स्वाभाविक ही है कि सभी स्वयंसेवकों को आना होगा और वे स्कूलों तथा कार्यालयों में होने वाले कार्यक्रम में शिरकत नहीं कर पाएंगे.’

सरदार पटेल, संघ और तिरंगा

महात्मा गांधी की हत्या में तथाकथित भूमिका के मद्देनजर 1948 में आरएसएस पर प्रतिबंध लगा. जब संघ के नेता प्रतिबंध हटाने की मांग लेकर तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल से मिले तो सरदार पटेल ने उनके सामने कई शर्तें रखीं. इन शर्तों में एक यह भी था कि आरएसएस तिरंगे को अपना ध्वज स्वीकार करेगा.

पीएन चोपड़ा और प्रभा चोपड़ा के संपादन में प्रकाशित कलेक्टेड वर्क्स ऑफ सरदार पटेल(खंड- XIII) में सरदार पटेल का इस मसले पर अपना रुख दर्ज है.

इस पुस्तक के मुताबिक 17 दिसंबर 1949 के दिन सरदार पटेल ने जयपुर में कांग्रेस की बैठक में कहा कि अगर कोई संगठन राष्ट्रध्वज की जगह कोई और झंडा अपनाता है तो उसके साथ सख्ती से निपटा जाएगा.

पुस्तक में जयपुर की बैठक के बारे में अखबार की एक रिपोर्ट को शामिल किया गया है. इस रिपोर्ट में लिखा है कि " सरदार पटेल ने आरएसएस की गतिविधियों की पुरजोर मजम्मत की और उनकी तकरीर के आखिर में खूब तालियां बजीं.'

पटेल ने कांग्रेस-जन से कहा कि प्रतिबंधित आरएसएस के नेता एमएस गोलवलकर मुझसे मिलने आए तो मैंने बड़े साफ शब्दों में उन्हें अपने विचार बता दिए. ‘… राष्ट्रध्वज हर एक को स्वीकार होना चाहिए और अगर कोई राष्ट्रध्वज का दूसरा विकल्प अपनाने के बारे में सोचता है तो उसके साथ संघर्ष अनिवार्य है. लेकिन यह संघर्ष संविधान की हदों में रहकर होगा और सबके सामने होगा.’

गृहसचिव एचवीआर आयंगर ने 1949 की मई में गोलवलकर को लिखा, ‘राष्ट्रीय झंडे का प्रत्यक्ष स्वीकार( संघ के संगठन-ध्वज के रूप में भगवा झंडा समेत) देश को यह संतोष दिलाने के लिए पर्याप्त माना जाएगा कि राज्यसत्ता के प्रति निष्ठा को लेकर कोई उज्र नहीं है.’

आरएसएस ने इस बात पर विवाद किया. संघ का दावा था कि भगवा ध्वज को वह अपने संगठन का गुरु स्वीकार करता है और भगवा ध्वज तथा तिरंगे के बीच कोई टकराव नहीं है. साल 2000 के 22 अगस्त को जब बीआर आंबेडकर के प्रपौत्र प्रकाश आंबेडकर ने संसद में तर्क दिया कि आरएसएस ने 1949 में सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए थे कि उसके मुख्यालय पर तिरंगा फहराया जायेगा तो संघ के नेताओं ने चुनौती दी कि उस समझौते को पेश किया जाय.

आर्गनाइजर( 3 सितंबर, 2000) के मुताबिक आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य एमजी वैद्य ने ‘राष्ट्रीय झंडे को लेकर संघ की छवि धूमिल करने के लिए फैलाये जा रहे प्रवाद की काट में तथ्य पेश किए.’

वैद्य ने ध्यान दिलाया कि 16 अगस्त 2000 को सांसद प्रकाश आंबेडकर ने लोकसभा में अपने भाषण के दौरान कहा कि गृह मंत्रालय के 26 नवंबर 1949 के प्रस्ताव के मुताबिक, ‘आरएसएस और सरदार वल्लभ भाई पटेल के बीच एक समझौता हुआ था जिसमें साफ-साफ कहा गया था कि आरएसएस 26 जनवरी 1950 को नागपुर के अपने मुख्यालय में राष्ट्रध्वज फहराएगा.’

वैद्य ने कहा: ‘हम श्री प्रकाश आंबेडकर से कहना चाहेंगे कि वे उक्त समझौते की एक प्रतिलिपि पेश करें. उन्हें सांसद को हासिल विशेषाधिकार का उपयोग आरएसएस की छवि धूमिल करने के लिए नहीं करना चाहिए.’

इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक 1930 और 1940 के दशक में आरएसएस का शायद ही कोई कार्यकर्ता राष्ट्रध्वज को सलामी देता नजर आता था. उनकी निष्ठा अपने संप्रदाय से जुड़ी थी ना कि पूरे राष्ट्र से. ये लोग अपने भगवा ध्वज को तिरंगे से कहीं ऊपर फहराते थे. महात्मा गांधी की हत्या के तुरंत बाद इस आशय की बहुत सी खबरें आईं कि आरएसएस के कार्यकर्ता तिरंगे को अपने पैरों से कुचल रहे हैं. इससे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बड़े आहत हुए.

24 फरवरी 1948 के अपने भाषण में नेहरू ने अफसोस भरे स्वर में कहा, ‘कुछ जगहों पर आरएसएस के कार्यकर्ता राष्ट्रीय झंडे का अपमान कर रहे हैं. वे अच्छी तरह जानते हैं कि राष्ट्रध्वज का अपमान करके वे अपने को गद्दार साबित कर रहे हैं. …’.

अच्छा है जो बीजेपी हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में तिरंगे को फहराते देखना चाहती है और देश इस बात पर खुश हो रहा है जैसा कि उसे होना भी चाहिए.

उम्मीद की जानी चाहिए कि संघ भी बीजेपी के इस फैसले का पूरे जोशो-खरोश से इस्तकबाल करेगा और नागपुर के स्मृति-भवन में चिरनिद्रा में लीन संघ के प्रथम पुरुष प्रसन्न होंगे कि जो काम सरदार पटेल ना कर सके वह काम स्मृति ईरानी ने कर दिखाया.

याद कीजिए ठीक एक साल पहले आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने तिरंगे के बारे में क्या कहा था. मोहन भागवत के शब्द थे- ‘बीआर आंबेडकर का भी ख्याल था कि भगवा(आरएसएस का झंडा) को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में और संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जाना चाहिए. दुर्भाग्य कहिए कि हम उनके विचारों का प्रचार-प्रसार ना कर सके.’ आरएसएस के प्रमुख ने यह बात कानपुर की एक बैठक में कही थी.