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अयूब पंडित की मौत: यह चुनौती को मौके में तब्दील करने का वक्त है!

वक्त आ गया है कि अब सियासत, सेना और पुलिस को मिलकर कश्मीर से आतंकवाद को उखाड़ बाहर फेंक देना चाहिए

Mayank Singh

कश्मीर में हिंसा की हैवानियत रोजमर्रा के हिसाब से लगातार अपनी हदें तोड़ रही हैं. डीएसपी अयूब पंडित की बेरहम हत्या लगातार जारी इस हिंसा की अगली कड़ी है. ऐसा जान पड़ता है मानो आतंकवादी और उनके सरपरस्तों के बीच हैवानियत में एक-दूसरे को मात देने का मुकाबला चल रहा हो. जैसा कि रिपोर्टों से जाहिर है, अयूब पंडित ने कुछ भी ऐसा नहीं किया था जिसे भीड़ को उकसाने वाला बर्ताव कहा जाए लेकिन श्रीनगर के मुख्य इलाके में बनी मस्जिद में रमज़ान की नमाज अदा करने के लिए पहुंची भीड़ ने पहले उसके कपड़े फाड़े फिर पत्थरों की बौछार से मार डाला.

हां, अयूब के हत्यारे कह सकते हैं कि उसने भड़काने वाला काम किया क्योंकि डीएसपी अपनी ड्यूटी निभा रहे थे, नमाज अदा करने वालों की जामातलाशी ले रहे थे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई आतंकवादी या हथियारबंद शख्स मस्जिद में पहुंचकर कोई तमाशा ना खड़ा कर दे. अयूब भारत के लिए काम कर रहे थे, शायद यही भीड़ के लिए सबसे बड़ा उकसावा साबित हुआ जैसा कि कश्मीर की मस्जिदों से लगातार उठ रहे नारे- काफिर- से जान पड़ता है.


सुरक्षा बलों की हत्या गुरिल्ला लड़ाई की एक जानी-पहचानी रणनीति है

जामिया मस्जिद में मीरवाइज उमर फारुक की मौजूदगी चाहे वह अयूब की हत्या के ऐन वक्त पर रही हो या उसके तुरंत बाद में जैसा कि उनका दावा है, जो कुछ जाहिर करती है उसे मानने से सिर्फ बहानाबाज ही इनकार कर सकते हैं. वो बात यह है कि कश्मीर में अलगाववाद की आड़ में जिहाद चल रहा है.

धार्मिक जमावड़े से निकल ड्यूटी पर तैनात एक ऑफिसर को पीट-पीटकर मार देने वाली भीड़ के लिए विषबुझी मजहबी तकरीरों और उकसावों के सिवाय और किसी बात को कारण नहीं ठहराया जा सकता. अब चाहे मीरवाइज गला फाड़-फाड़ कर कहें कि मैं निर्दोष हूं लेकिन क्या वे अब बहस के गरज से ही सही कभी इस तथ्य को झुठला सकते हैं कि हुर्रियत के नफरत फैलाने वाले लोगों के जहरीले स्वार्थ के कारण घाटी में कश्मीरियत की जगह जिहाद ने हथिया ली है?

अयूब पंडित

क्या मीरवाइज अपने इस दावे को ही जायज ठहरा सकते हैं कि वे मस्जिद पहुंचे तो हत्या हो चुकी थी और फिर बिना किसी संकोच के उनकी मजहबी तकरीर शुरू हो गई जबकि अयूब पंडित की क्षत-विक्षत लाश अभी मस्जिद के बाहर ही पड़ी हुई थी? क्या यही हुर्रियत की सियासत है? क्या ये नेता एक पल के लिए भी झुठला सकते हैं कि वे आईएसआई और पाकिस्तानी सेना की हिंदुस्तान को हजार नश्तर चुभोकर घायल रखने की रणनीति के साझीदार हैं?

अयूब पंडित की हत्या बड़ी घिनौनी है और यह हत्या उस भयावह हिंसा की अगली कड़ी है जिसमें कश्मीर के पुलिस-बल या भारतीय सेना के लिए काम कर रहे कश्मीरी लोगों को निशाना बनाया जा रहा है. हिंसा के इस सिलसिले की शुरूआत मई में हुई जब लेफ्टिनेंट उमर फैयाज की अपहरण के बाद शोपियां में यातना देकर हत्या की गई. इसके बाद अनंतनाग में 16 मई को छह पुलिसकर्मियों की हत्या की गई और उनकी लाश के साथ खिलवाड़ किया गया.

राजनेताओं और सुरक्षा बलों की हत्या गुरिल्ला लड़ाई की एक जानी-पहचानी रणनीति है. इसके पीछे यह विचार काम करता है कि राजनेताओं और सुरक्षा बलों की हत्या की जाए तो आम लोगों का मनोबल टूटेगा क्योंकि लोग इन्हें राज-व्यवस्था का नुमाइंदा समझते हैं. जिन इलाकों में संघर्ष चल रहा है वहां तैनात सुरक्षा बल प्रतिरोधी रणनीति सोचते वक्त ऐसी बातों का ध्यान रखते हैं. इन हत्याओं को ज्यादा घिनौना बनाने वाली बात यह है कि हत्या करने से पहले यातना दी जाती है और हत्या के बाद लाश के साथ बर्बरता का बर्ताव किया जाता है.

पाकिस्तान ने 1999 में कैप्टन सोरभ कालिया को यातना दी थी

साफ जाहिर है कि अगर लड़ाई का कोई उसूल होता है तो फिर आतंकवादियों ने तय कर लिया है कि स्थानीय लोगों को आतंकित करने और दिल्ली तथा श्रीनगर के राजनेताओं को धमकाने की अपनी कोशिशों में वे ऐसे किसी उसूल का पालन नहीं करेंगे. सोच यह है कि अगर कश्मीर में किसी मुकामी आदमी ने भारत के साथ अपना जुड़ाव दिखाया तो उसके साथ बर्बरता का बर्ताव किया जाएगा.

जाहिर है कि आईएसआई और पाकिस्तानी फौज बर्बरता के बर्ताव में उस्ताद है और अपने हिमायतियों को भी बर्बरता का वही सलूक सिखाने में उसे कामयाबी मिली है. 1999 में कैप्टन सौरभ कालिया को यातना देना और उनके शव के साथ बर्बरता का सलूक करना तथा पाकिस्तान बॉर्डर एक्शन टीम का छह भारतीय फौजियों का सर कलम करना ऐसे ही नीच बर्ताव का उदाहरण है.

1996 में काबुल में राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की तालिबानियों ने हत्या की थी और आईएसआईएस भी अपने फांसी के हुक्म की तामील एक खास तरह से करता है. कश्मीर में पत्थर मारकर की जाने वाली हत्या और लाशों के साथ बर्बरता का बर्ताव तालिबान और आईएसआईएस के बर्ताव से बड़ा मेल खाता है. एक बात यह भी है कि इन घिनौनी हरकतों को अंजाम देने वाले लोग अलग-अलग जगहों पर हैं लेकिन उन्हें विचारधारा के एक धागे ने आपस में बांध रखा है. इन सबकी सोच यह है कि अपने विरोधी को आतंकित करो और उस पर अपना हुक्म सादिर करो.

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नैतिक नीचता के घिर रहे काले घने साये के बीच एक बात रोशनी की किरण बनकर चमक रही है. बात यह कि कश्मीर में पाकिस्तान और पाकिस्तान-परस्तों की जिहाद फैलाने की कोशिशों के बीच जम्मू-कश्मीर पुलिस अपने फर्ज को अंजाम देने में पूरी निष्ठा के साथ जुटी हुई है. भारतीय फौज नौकरी के लिहाज से कश्मीरी नौजवानी की पसंदीदा जगह है और आतंकवादी जमातों की धमकी की परवाह ना करते हुए वे हजारों की तादाद में कतार बांधकर खड़े हो रहे हैं. जम्मू-कश्मीर की पुलिस आतंकवादियों के खिलाफ लड़ रही है और इस लड़ाई के लिए उसे निशाना बनाया जा रहा है, इसे देखते हुए माना जा सकता है कि कश्मीर में मामला अभी पूरी तरह हाथ से निकला नहीं है.

लड़ाई की जगहों पर पुलिसकर्मी की भूमिका निभाना बड़ा कठिन काम है. फौज या फिर अर्द्धसैन्य बल अमूमन दूसरे राज्यों के होते हैं और तैनाती की किसी एक जगह पर बंधकर रहने से होने वाले नुकसान से बचने के लिए उन्हें लगातार बदला भी जाता है. लेकिन पुलिसकर्मी के साथ ऐसा नहीं होता. बहुत दमघोंटू साबित होता है उनके लिए एक ऐसे सामाजिक माहौल में रहना जहां उन्हें लगातार आस्तीन का सांप साबित करने की कोशिश की जाती हो. आतंकवादियों के दुष्प्रचार की चपेट में आकर लोग-बाग अमूमन पुलिस अधिकारियों के प्रति खुन्नस पाल लेते हैं, उन्हें दगाबाज समझते हैं. जनरल सैयद अता हुसैन ने बड़े विस्तार से लिखा है कि बुरहान वानी की मौत के बाद कैसे जम्मू-कश्मीर पुलिस को सामाजिक रूप से निशाने पर लेकर उसका मनोबल तोड़ने के रणनीतिक प्रयास हुए हैं.’

आतंकवाद के विरुद्ध चलने वाले अभियानों में स्थानीय पुलिस दुनिया में हर जगह सबसे बड़ा सहारा साबित हुई है. स्थानीय पुलिस आस-पास की खूफिया सूचनाएं देती है. इन सूचनाओं को हासिल करना शेष सुरक्षा बलों के लिए बहुत कठिन साबित हो सकता है. स्थानीय पुलिस आस-पास के सामाजिक अदब-कायदों से भी परिचित होती है और सबसे अहम बात यह कि उसे अपने इलाके के भूगोल का अच्छी तरह से पता होता है.

गुरिल्ला-युद्ध की हालत में बाहर से आए सुरक्षा बल को माहौल के अनुकूल ढलने में वक्त लगता है लेकिन स्थानीय पुलिस ऐसे हालात में आतंकवाद-निरोधी रणनीतियों के लिहाज से बेशकीमती साबित होती है क्योंकि उसे आतंकवादियों के नेटवर्क और गतिविधियों के बारे में विस्तृत और सटीक खूफिया सूचनाओं के आधार पर जानकारी होती है. आतंकवादी स्थानीय स्तर पर मुखबिरी के जरिए हासिल होने वाली ऐसी सूचनाओं का स्रोत खत्म कर देना चाहते हैं ताकि सुरक्षा-बलों को अपने अभियान में बढ़त हासिल ना हो.

इस लिहाज से देखें तो कश्मीरियों खासकर जम्मू-कश्मीर पुलिस को निशाना बनाने की घटनाएं बड़ी मानीखेज ठहरती हैं. फौज ने बाकी सुरक्षाबलों की सहायता से 39 दिनों के भीतर 68 आतंकवादियों पर काबू पाने में कामयाबी हासिल की है. इस कामयाबी में पुलिस की भूमिका बहुत अहम रही भले ही सराहना के लिहाज से उसपर किसी की नजर ना गई हो.

1980 के पंजाब से मिलती है आज के कश्मीर की सूरत

बुरहान वानी की हत्या के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है जब आतंकवादियों के कदम पीछे खिसकते नजर आ रहे हैं. लड़ाई को लंबे समय तक जारी रख एक-दूसरे को थका देने की मंशा हो रही इस जंग का एक जरुरी हिस्सा है मनोवैज्ञानिक युद्ध और ऐसी लड़ाई में एक-एक करके अपने प्यादे गंवाना आतंकवादी जमातों के लिए बहुत भारी पड़ रहा है. जिहाद का हौव्वा खड़ा करने के बावजूद एक हारे हुए मकसद के लिए स्वयंसेवक जुटाना जो आत्मघात करने के लिए तैयार हों, तकरीबन नामुमकिन सी बात है.

एक बात यह भी हुई है कि एनआईए ने हुर्रियत के कुछ लोगों पर शिकंजा कसना शुरू किया है. माना जा रहा है कि ये लोग आतंकवादी गतिविधियों के लिए हवाला के जरिए पैसे जुटाने के काम में लगे हैं. इन सारी बातों के कारण आतंकवादी और उनके सरपरस्त अपने को एकदम घिरा हुआ महसूस कर रहे हैं.

अब राजनीति और सुरक्षा-बलों के मोर्चे से होना यह चाहिए कि कश्मीरी अधिकारी की हत्या के बाद पैदा हुए अवसर का इस्तेमाल अपने फायदे में किया जाय. 1980 के दशक में कश्मीर और पंजाब में जो सूरते-हाल थे, उनसे इस हत्या की बहुत बातों में समानता है.

केपीएस गिल ने अपनी किताब ‘एन्डगेम इन पंजाब 1988-1993’ में विस्तार से लिखा है कि अलग खालिस्तान बनाने के लिए लड़ रहे आतंकवादियों ने कैसे मनोबल तोड़ने की मंशा से पंजाब पुलिस को निशाना बनाना शुरू किया था. मई 1987 से अप्रैल 1988 के बीच आतंकवादियों ने पंजाब में 109 पुलिसकर्मियों की हत्या की. हालात यहां तक आ पहुंचे थे कि मंझोले दर्जे के पुलिस ऑफिसर पकड़े गए आतंकवादियों की तफ्तीश से इनकार करने लगे थे और होमगार्ड आतंकवादियों के आगे अपने हथियार सौंपने लगे थे. लेकिन जूलियो रिबेरो और इसके बाद केपीएस गिल की डीजीपी के रूप में नियुक्ति से बात एकदम ही बदल गई. पंजाब में हासिल की गई कामयाबी की इस कथा से सबक लेने की जरुरत है.

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वक्त आ गया है जब सियासत, सेना और पुलिस के शीर्षस्तर के नेतृत्व से आतंकवाद के सफाए के लिए कुछ वैसी ही व्यापक और एकजुट योजना बनाई जाए जैसी कि पंजाब के लिए बनाई गई थी. लोकतंत्र में सुरक्षा बलों का काम हिंसा के स्तर को इस हद तक घटा देना होता है कि आतंकवादी और उनके सियासी मोर्चे अपनी जान बचाने के लिए संघर्ष छोड़ने पर मजबूर हो जाएं या फिर बिना किसी शर्त के बातचीत को रजामंद हों.

शायद जरूरत इस बात की है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस का शीर्ष नेतृत्व अपने स्तर पर पेशकदमी करे, अपने साथ होने वाले बर्ताव की चिंता छोड़ें और अपने को समस्या की राजनीतिक समझ तक सीमित रखने से बाज आए.

टेलीविजन पर चाहे जैसी भी ओछी बातचीत हो रही हो लेकिन अभी के हालात में किसी राजनीतिक समाधान की बात करना कल्पना की फिजूलखर्ची है. पुलिस के शीर्ष नेतृत्व को चाहिए कि वह सैन्य-नेतृत्व के साथ कदमताल मिलाते हुए मोर्चे पर सुरक्षाबलों की अगुवाई करे.

यह बात कहने-सुनने में अच्छी लग सकती है कि आतंकवादियों पर होने वाली कार्रवाइयों में पुलिस नेतृत्व को नुकसान नहीं हो रहा लेकिन इससे तो यही पता चलता है कि जमीनी जंग में सुरक्षा बलों की अगुवाई अयूब पंडित और फिरोज अहमद डार जैसे मंझोले दर्जे के अधिकारी कर रहे हैं. अगर स्थानीय कश्मीरी अधिकारियों पर होने वाले हमले को ना रोका गया तो इसका असर पुलिस-बल का मनोबल तोड़ने वाला होगा.

यह बात समझ लेने की जरुरत है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस की मदद के बगैर किसी स्थानीय संघर्ष को जीतने का काम कई गुणा कठिन हो जाएगा. यही वक्त है जब पुलिस अधिकारियों को सुरक्षित रहने और ऑफिस के हिफाजती माहौल में बैठकर काम करने की मानसिकता से निकलना होगा. संकट की इस घड़ी में मोर्चे पर आगे बढ़कर उसी तरह नेतृत्व करने की जरूरत है जैसा कि केपीएस गिल ने पंजाब में किया था.

आतंकियों के लिए प्रचार ऑक्सीजन की तरह है

आतंकवादी बेचैन हो रहे हैं, उन्हें दिख रहा है कि उनका खेल अब उनके हाथ से निकलते जा रहा है. ऐसे में, आने वाले दिनों में हिंसा की घटनाओं में इजाफा होना तय है क्योंकि आतंकवादी बड़े नेता, पत्रकार और पुलिस अधिकारियों को अपना निशाना बनाएंगे. प्रचार आतंकवादियों के लिए ऑक्सीजन का काम करता है. प्रचार के जरिए अपराधी-तत्व उनकी तरफ आकृष्ट होते हैं और नौजवानों के कोमल मन पर भी उसका असर होता है, प्रचार की चपेट में आकर नौजवान आतंकियों की जमात में शामिल होने की सोच बैठते हैं.

आतंकियों की बेचैनी का एक पक्ष यह भी हो सकता है कि वे पाकिस्तानी सीमा की तरफ से बड़ी तादाद में घुसपैठ की कोशिश करें और अपने सुरक्षित पनाहगाहों से निकलकर कश्मीर में हैवानियत का खेल खेलें. अगर वे ऐसा करते हैं तो फिर वे सुरक्षा बलों के निशाने पर होंगे. जैसा कि कहा जाता है, सुरक्षा-बलों के लिए मौका तभी होता है जब खतरा सामने हो. सो, अब वक्त एकदम से तैयार रहने का है.