नहीं खोज पाए छुपा हुआ काला धन पनामा में
तो पकड़ लिया उन्हें जो बांध के रखते थे पाजामा में
डरा नहीं आपसे जब कोई माल्या या ललित मोदी
तो ऐसा किया कि गीली हो गई व्यापारियों की धोती
किंगफिशर एयरलाइन के मालिक की नहीं रोक पाए उड़ान
तो ऑटो, रिक्शा और ब्लूलाइन के ड्राइवरों को कर दिया हलकान
नहीं पकड़ पाए चोर और उसकी छुपाई नोटों की गड्डी
तो जो मिला उसी की उतरवा ली बदले में चड्डी
सर्जिकल स्ट्राइक कर के भी लगा कि जाएंगे चुनाव हार
तो सबके ऊपर पड़ गई पैसों की मार
पेश है आपके लिए मोदी का नया अर्थशास्त्र. जिसका मंत्र है नोटबंदी और जनता का शिकार. शिकार हर भारतीय का.
दो दिन पहले टोक्यो में जो दिखा नजारा इसकी खालिस झांकी है, जहां मंत्रमुग्ध एनआरआई बिरादरी 'भ्रष्ट' भारतीयों की चुटकी ले रही थी.
अपनी एक हथेली को दूसरी से चटकाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, 'कल घर में शादी है, पर घर में पैसे नहीं हैं.' इशारा मिलते ही येन में कमाई करने वाले इन लोगों ने नारा लगाया, 'भारत माता की जय'. गरीब आदमी अपनी बेटी की शादी से एक रात पहले लुट जाए, इसका ख़याल ही शायद उन लोगों को गुदगुदाने के लिए काफी रहा होगा.
दूसरे के दर्द का सुख
यह गुदगुदी अपनी खुशी से नहीं, दूसरे की परेशानी से पैदा हुई है. जब आर्थिक नाकेबंदी से हमें दिक्कत है तो दूसरा क्यों खुश रहे, खासकर वो जो अपने गद्दे और तकिये में नोट भरकर उस पर सोता है! नोटबंदी की कहानी जैसे-जैसे खुलती जा रही है, यह नज़ारा आम होता जा रहा है.
जैसा कि प्रधानमंत्री ने खुद कहा, कि 2जी घोटाले में पैसा बनाने वाले लोग भी अब 4000 रुपये के लिए लाइन में लग रहे हैं. सही तो कहा. अपने चारों ओर देखिए. उस रिक्शे वाले को. सत्तर साल की उस बुढि़या को. उस मां को देखिए जो अस्पताल में भर्ती अपने बीमार बच्चे की दवा खरीदने के लिए नकदी पाने को छटपटा रही है.
मुझे गलत मत समझिएगा. हम सब लोग भ्रष्टाचार को रोकने के समर्थन में हैं. हम चाहते हैं कि कर चोरी करने वालों के खिलाफ़ कार्रवाई हो और जाली मुद्रा और काले धन का खात्मा हो. चूंकि मैं उन एक फीसदी भारतीयों में पिछले 20 साल से शामिल हूं, जो वास्तव में अपना आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं, तो ज़ाहिर तौर पर मैं इसका दायरा बढ़ाने का समर्थक हूं ताकि उन लोगों का बोझ कम हो सके जो इसे अपने कंधों पर ढोते हैं.
कितना काला धन नकद में है?
बस एक दिक्कत है. कुछ गुम हो गई भेड़ों को खोजने के लिए पूरा का पूरा जंगल जला डालना इसका कोई तरीका नहीं है. हर किसी को लाचार बना कर छोड़ना, एक समूचे देश को सिर के बल खड़ा कर देना अर्थशास्त्र नहीं, ड्रामा है. विशुद्ध मोदीवादी नाटक. बाज़ार में आखिर कितना पैसा घूम रहा है? कुछ अनुमानों के मुताबिक फिलहाल बाज़ार में 17000 अरब की मुद्रा चलन में है. इसमें से 85 फीसदी 500 और 1000 के नोटों की शक्ल में है. मान लेते हैं कि इसका आधा हिस्सा काला धन होगा.
भारत की जीडीपी क्या है? करीब 1.9 ट्रिलियन डॉलर (2013). इसका मतलब यह हुआ कि 500 और 1000 के नोट जीडीपी का 12 फीसदी हैं और नगद में देखें तो इसका छह फीसदी के करीब काला धन है.
तो क्या हम मान लें कि भारत की समानांतर अर्थव्यवस्था जीडीपी की केवल पांच से छह फीसदी होगी? कतई नहीं. यह कहीं ज्यादा बड़ी होगी और दशकों से यही सूरत बनी हुई है.
असल दिक्कत यह है कि अधिकतर बेनामी पैसा या तो रियल एस्टेट में लगा है, सर्राफा बाज़ार में लगा है या फिर विदेशी खातों में जमा है. यही वजह है कि नोटबंदी के चलते अमीर लोगों के बजाय सबसे ज्यादा प्रताड़ित गरीब और मध्यवर्ग को होना पड़ रहा है.
अपने आसपास देखें. दोबारा उन कतारों को देखें.
गरीब चुकाएं अमीरों की कीमत
पुराने नोटों को बैंकों में जमा करने के फरमान के साथ एक और व्यावहारिक दिक्कत है. मान लीजिए कि अगर पैसा टैक्स जमा कर के बरसों से घर पर बचाया जाता रहा हो, तो? टैक्स अधिकारी काले धन और घर में बरसों से बचाए जाते रहे सही पैसे के बीच फर्क कैसे कर पाएंगे, खासकर वह पैसा जो गृहिणियां और किसान बचाते रहे हैं, चूंकि उनकी आय पर कर से हमेशा छूट मिलती रही है?
जाहिर है, फिर अमीरों के लिए गरीबों को ही कीमत चुकानी पड़ेगी क्योंकि अमीरों के पास तो नकदी में काला धन बहुत कम है या उसे ठिकाने लगाने के तमाम तरीके भी हैं.
मोदी के अर्थशास्त्र का तीर अंत में सबकी छाती छलनी करेगा- चाहे वह अमीर हो, गरीब या मध्यवर्ग का आदमी. चाहे वह कर चुकाने वाला हो या कर चुराने वाला. कुल मिलाकर कुछ छुट्टे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगना. इसलिए जो लोग इस ख्याल से राहत महसूस कर रहे हैं कि भ्रष्ट लोग परेशान होंगे, वे दरअसल अपने ही ऊपर हंस रहे हैं.
मंशा सही, तरीका गलत
सरकार की मंशा सही है, लेकिन जैसा कि कई अर्थशास्त्रियों ने इशारा भी किया है, फैसले को लागू करने का तरीका गलत है.
असली भ्रष्टाचार इस व्यवस्था के काम करने के तरीकों में है: चुनावी फंडिंग (जिसे पार्टियां जांच के लिए सार्वजनिक नहीं करती हैं), रियल एस्टेट की लेनदेन, निजी स्कूलों और अस्पतालों की लूट, भ्रष्ट नौकरशाही, राज्य और कारोबारियों की मिलीभगत से चल रहा पूंजीवाद और कर्ज न चुकाने वालों या वित्तीय भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई न किया जाना.
ऐसे लोगों के खिलाफ व्यवस्थित तरीके से कार्रवाई करने के बजाय सरकार की इस अचानक की गई कार्रवाई से देश के गरीब-गुरबा, किसान, व्यापारी, गृहिणी और असंगठित मजदूर पर मार पड़ी है.
पनामा जाने के बजाय सरकार ने पाजामा और धोती पहनने वालों की जेब पर डाका डाल दिया है. गर्ज ये कि हर कोई हंस रहा है क्योंकि एक आदमी को अपनी बेटी की शादी से एक रात पहले बर्बाद होते देखना काफी दिलचस्प है.