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नोटबंदी की कीमत सरकार को चुकानी होगी

कोई नीति बनाना बेहद आसान है. उसे सही ढंग से लागू करना ज्यादा बड़ी चुनौती है.

Naveen Sharma

जिसने भी नेशनल ज्योग्राफिक चैनल देखा होगा, उसने जरूर देखा होगा कि जब कोई शिकारी जानवर हमला करता है, तो हिरनों, भैंसों या दूसरे जानवरों के झुंड में कैसी भगदड़ मचती है. इस भगदड़ में हमेशा कमजोर और बीमार कुचले जाते हैं.

उपहार सिनेमा अग्निकांड हो या सबरीमाला मंदिर की भगदड़, शिकार हमेशा बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएं हुई हैं. ये कुदरत का कानून है कि किसी भी अराजकता की सूरत में सबसे कमजोर ही शिकार होते हैं. सभ्यताओं का नियम ही यही है कि मुश्किल वक्त में ऐसे कमजोर लोगों की मदद की जाए. इसीलिए कानून-व्यवस्था का सिस्टम है. इसीलिए सेनाएं और पुलिस होती हैं और इंसाफ दिलाने के लिए अदालतें बनाई गईं.


पांच सौ और हजार रुपए के नोटों पर हालिया पाबंदी ने देश को दो गुटों में बांट दिया है. एक तो वो जो इस कदम का मजाक उड़ा रहे हैं. वो कहते हैं कि ये तो मोदी सरकार का पब्लिसिटी स्टंट है. इससे कुछ होना नहीं. सिर्फ आम जनता को मुश्किलें हो रही हैं. दूसरे खेमे में वो लोग हैं जो इस फैसले को क्रांतिकारी बता रहे हैं. ये लोग मानते हैं कि ये आर्थिक सुधारों का नया दौर है. इससे देश के लोग संपन्न होंगे. उन्हें बराबरी का हक मिलेगा.

अब हम चाहे जिस खेमे में हों, अगर हमें ज्यादा परेशानी नहीं हुई, तो हम सब ने इस बहस का लुत्फ उठा लिया है. अगर हम इसके विरोधी हैं तो लोगों की मुश्किलों के बीच भी इसे ऐतिहासिक कदम बताते रहे. विरोधी हैं तो हमने खुद को ईमानदार और इस कदम को ईमानदार लोगों के खिलाफ साबित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है.

सरकार के इस कदम ने हमें अपनी देशभक्ति दिखाने का मौका भी दे दिया. हम अपने एयरकंडीशंड घरों और दफ्तरों में बैठकर आराम से ये बताने में लगे हुए हैं कि ये कदम देशहित का है. इसमें थोड़ी-बहुत मुश्किल आ भी रही है तो जनता को शिकायत नहीं करनी चाहिए. आखिर इससे देश का काला धन सामने आ रहा है.

मैं ऐसे लोगों से सवाल करना चाहूंगा कि आखिर उनके लिए देशभक्ति की कितनी कीमत बड़ी लगेगी? खबरें हैं कि ग्रामीण इलाकों में लोगों ने इस फैसले के बाद खुदकुशी कर ली. पैसे बदलने के काउंटर्स पर झगड़े की खबरें भी आई हैं. पैसे की कमी से अस्पतालों में लोगों का इलाज नहीं हो पा रहा. लोग दम तोड़ रहे हैं. तो क्या हम ये कहें कि ये कुछ ज्यादा ही कीमत है देशभक्ति की. दस लोगों की मौत हो जाना क्या बड़ी कीमत नहीं? तो क्या एक सौ लोगों की मौत सही कीमत होगी? या फिर एक हजार? क्या एक जान का जाना भी बहुत बड़ी कीमत नहीं?

अगर आप दशकों तक सिर्फ नकदी से चलने वाले सिस्टम को रहने देते हैं और फिर, रातों रात उस व्यवस्था को बदलने लगेंगे, तो अराजकता तो फैलेगी ही. इससे लोगों में दहशत होगी ही. अफवाहें फैलाने वालों के अच्छे दिन आ जाएंगे. क्यों नहीं सरकारी टीवी चैनल और रेडियो के जरिए लोगों तक सही जानकारी पहुंचाई जाए? या फिर ये अपने कदम को ऐतिहासिक साबित करने की राह में रोड़ा बन जाएगा?

तमाम ऐसी खबरें आईं कि जब लोगों ने पेट्रोल पंप और अस्पताल में 500/1000 के नोट न लेने पर पुलिस को कॉल किया. मगर पुलिस ने कहा कि वो कुछ नहीं कर सकती. क्या वाकई पुलिस कुछ नहीं कर सकती? पुलिस की चेतावनी देने वाली एक फोन कॉल ही शायद काम कर जाती.

कोई नीति बनाना बेहद आसान है. उसे सही ढंग से लागू करना ज्यादा बड़ी चुनौती है. सही तरीका होता कि ये फैसला लागू करने की जिम्मेदारी सही ढंग से निभाई जाती. ऐसी व्यवस्था बनाई जाती कि लोगों को समझने और अपनाने में आसानी होती.

मेरा सवाल ये है कि क्या अपनी सरकार से ज्यादा उम्मीद लगाना गलत है? हम मॉल में, होटलों में और हवाई अड्डों पर बार-बार तलाशी लेने को बर्दाश्त करते हैं. क्योंकि हमारी सरकार भयमुक्त माहौल देने, सीमाओं की सुरक्षा करने में नाकाम रही. वहां हम ये बात मान सकते थे कि हां, सरकार ईमानदारी से कोशिश कर रही है. मगर कुछ चीजें उसके नियंत्रण में नहीं. लेकिन, ये नोट बंद करने से पैदा हुई परेशानी सरकार निश्चित रूप से कम कर सकती थी. इसके लिए एहतियाती कदम उठाए जा सकते थे. मगर, हुक्मरानों को लगा कि जनता को इतनी परेशानियां झेलने की आदत है. देशहित में एक और सही. पर शायद इस बनावटी परेशानी के लिए जनता उन्हें माफ न करे.