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मंत्रिमंडल फेरबदल: काम के आधार पर नहीं चुना गया मोदी का एक भी मंत्री

ऐसा प्रचारित किया गया कि मोदी सरकार के नए मंत्रिमंडल फेरबदल के बारे में ये प्रचारित किया गया है कि इसमें मंत्रियों को पुरस्कार और दंड दोनों मिले हैं

Milind Deora

मोदी सरकार का बीते रविवार को मंत्रिमंडल में किया गया बदलाव इस हफ्ते मीडिया में छाया रहा, कहा गया कि यह कोई रेवड़ियां बांटने का मामला नहीं बल्कि मंत्रियों का काम देखकर उन्हें ईनाम दिया गया है. मंत्रिमंडल में बदलाव करना हर प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है और मेरा ख्याल है कि मंत्रालयों की कार्य-संस्कृति में साझेदारी के लिहाज से ऐसा करना बहुत अहम है.

आखिर, मंत्री ही तो किसी मंत्रालय में कामकाज के लिहाज से संस्कृति और नीति का माहौल कायम करते हैं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि मंत्रिमंडल में अभी जो बदलाव किया गया उसमें मंत्रियों का मूल्यांकन काम के आधार पर करके कामयाबी के लिए किसी को पुरस्कार तो नाकामी के लिए किसी को दंड दिया गया है.


पूर्णकालिक रक्षामंत्री नियुक्त करना बेशक बहुत जरूरी था और किसी महिला का इतनी अहम जिम्मेदारी का पद संभालना प्रतीक रूप में बहुत प्रगतिशील तथा सशक्तिकरण का कदम जान पड़ता है लेकिन हर राजनीतिक फैसला सिर्फ लोकप्रियता को आधार बनाकर नहीं किया जाता.

यहां हमारे लिए जरूरी सवाल यह पूछने का है कि वाणिज्य मंत्रालय में निर्मला सीतारमण का कामकाज क्या सचमुच बेहतर रहा था? और, क्या उनके नेतृत्व में निर्यात में बढ़ोतरी हुई? इस सवाल के जवाब के आधार पर ही उनकी नियुक्ति को जायज ठहराया जा सकता है.

इस सिलसिले की दूसरी बात यह कि अगर किसी मंत्री का कामकाज खराब रहा तो उसे दंडित नहीं किया. यह एकदम जाहिर है, खासकर इस तथ्य को देखते हुए कि स्वास्थ्य और कृषि जैसे मंत्रालय में, जहां सूचकांक कामकाज की गिरावट की सूचना दे रहे हैं, मंत्रियों को नहीं हटाया गया.

फिलहाल देश में स्वास्थ्य के मामले में जो हालत हैं वह किसी संकट से कम तो नहीं और फिर, कृषि-संकट भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ा हुआ है लेकिन इन दोनों मंत्रालयों में मंत्री पहले की तरह जस के तस अपने पद पर बने हुए हैं.

तीसरी बात यह कि मंत्रिमंडल में रिटायर हो चुके नौकरशाहों को शामिल किया गया है जो इस बात का संकेत है कि सत्ताधारी दल के पास प्रतिभाशाली मंत्रियों और सांसदों की कमी है. नौ नए मंत्री कैबिनेट में शामिल किए गए हैं. इनमें चार पूर्व नौकरशाह हैं और दो के लिए अगले छह माह के भीतर चुनाव जीतकर संसद पहुंचना जरूरी होगा.

2006 में मुझे हरदीप पुरी से मिलने का सौभाग्य मिला था. उन जैसे काबिल और हुनरमंद व्यक्ति की जिम्मेदारी के पदों पर बहुत जरूरत है लेकिन उन्हें शहरी विकास और आवास जैसे मंत्रालय का प्रभार दिया गया है जो कि उनके पिछले करियर और विशेषज्ञता के दायरे को देखते हुए बेमेल जान पड़ता है.

साल 2014 के चुनावों में मोदी लहर बहुत जोर से चली. इस लहर पर सवार होकर ऐसे लोग भी चुनाव जीत गए जिनका राजकाज से खास नाता नहीं. मोदी लहर का एक असर यह भी हुआ. विधायिका के लिहाज से देखें तो मोदी लहर का असर देश के लिए बड़ा बुरा हुआ है- सांसदों-विधायकों की काबिलियत में कमी हुई है.

चुनाव जीतकर आए सासंदों में से काबिल लोग चुन पाने में मुश्किल आ रही है. इन लोगों के चुनाव का जो तरीका रहा है उसमें इन्हें मुकामी मुद्दों पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिला और इससे देश के सियासी निजाम में बाधा पहुंची है, वह एक हद तक कमजोर हुआ है.

नतीजतन आज नागरिकों की आवाज सुनने वाला कोई नहीं, नागरिकों की अपने स्थानीय प्रतिनिधियों तक पहुंच ही नहीं है जो वे उनसे अपनी समस्याओं के बारे में कहें और समाधान की मांग करें. मुंबई जैसे शहरों में ऐसे सांसद-विधायकों की जरूरत है जो सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर इस शहर के मिजाज से घुले-मिले हों, जो समझते और सराहते हों कि यह शहर कितनी ज्यादा विविधताओं के भीतर जीता-जागता है.

आदर्श स्थिति तो यही होगी कि हम अपने जन-प्रतिनिधियों का मूल्यांकन इस आधार पर करें कि विविधता भरी आबादी की जरूरतों और हितों का वे किस बेहतरी से निर्वाह कर रहे हैं लेकिन देश में शासन में फिलहाल ऐसा कोई रुझान नहीं दिखता और यह गहरी चिंता का विषय है.

औसत दर्जे के शासन और नाकाबिल जन-प्रतिनिधियों की कीमत आखिर जनता को ही चुकानी पड़ती है. लेकिन फिर जिम्मेदारी जनता की बनती है कि वह नेताओं के कामकाज और खूबियों को देख-भाल पहचानकर उन्हें वोट डाले.

निर्वाचित जन-प्रतिनिधि नागरिक, स्थानीय समुदाय और तीन स्तर (केंद्र, राज्य तथा, पंचायत) पर चलने वाली सरकार के बीच अहम और अनिवार्य कड़ी होते हैं. लेकिन लोग भाषा और धर्म के तकाजे से ही नहीं बल्कि अपनी इस इच्छा से बंधकर भी वोट डालते हैं कि फलां राजनेता को प्रधानमंत्री बनाना है. इस प्रक्रिया में जनता ने अपने स्थानीय जन-प्रतिनिधि की अनदेखी की है सो जनता को प्रधानमंत्री से जोड़ने वाली अहम कड़ी ही अब खत्म होती सी जान पड़ रही है.

इसी कारण मुझे लगता है कि सरकार और नागरिक दोनों के लिए बहुत अहम है कि चुनावी और राजनीतिक फैसले अच्छे कामकाज और सुशासन के पुष्ट जमीनी सबूत के आधार पर लिए जाएं, फैसला लेने में मनमर्जी या फिर प्रतीकात्मकता का महत्व ना हो जैसा कि अभी चलन बन गया है.

(लेखक पूर्व सांसद हैं और केंद्रीय संचार व आईटी और जहाजरानी व बंदरगाह मंत्री भी रह चुके हैं)