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#MeToo: कानून की नजर में कितना बड़ा अपराध?

वकीलों के मुताबिक, किसी को सजा उस एक्ट के तहत नहीं दी जा सकती जब इंडियन पीनल कोड में उस एक्ट के खिलाफ सजा का कोई प्रावधान न हो

Pankaj Kumar

मी टू कैंपेन को लेकर विवावद गहराता जा रहा है. कई नामचीन हस्तियां लपेटे में आ रही हैं. पहले कुछ फिल्मी हस्तियों को लेकर सोशल मीडिया पर आवाज उठनी शुरू हुई और चंद दिनों में ये मेनस्ट्रीम मीडिया की प्रमुख खबरें बन गई.

आलम यह हुआ कि प्रमुख अखबारों के संपादक रह चुके एमजे अकबर जो कि भारत सरकार में मंत्री हैं उनपर कई महिलाओं ने आरोप लगाकर कटघरे में खड़ा कर दिया. अकबर विदेश दौरे पर थे लेकिन देश में उनके खिलाफ माहौल बनने लगा. उनकी छवि एक के बाद महिला पत्रकारों के आरोप से धूमिल होने लगी. और सरकार में वो बने रह पाएंगे या नहीं इसको लेकर भी कयास लगने शुरू हो गए.


वैसे स्वदेश लौटने के बाद एमजे अकबर ने पद छोड़ने को लेकर लग रहे कयास पर पूर्ण विराम लगा दिया. उन्होंने उन लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का भी ऐलान कर दिया जो उनके ऊपर आरोपों के झड़ी लगा रहे थे. ज़ाहिर है मी टू अभियान अब जोर पकड़ चुका है. इसके समर्थन और विरोध में लोगों की आवाज उठने लगी हैं.

कंगना रानौत जैसी फिल्मी हस्ती उन लोगों के साथ काम नहीं करने का ऐलान कर चुकी हैं जिनके खिलाफ मीडिया में मी टू के तहत कैंपेन टल रहा है. लेकिन आलोक नाथ से लेकर नाना पाटेकर जैसी फिल्मी शख्सियत इसे कोरा बकवास करार देकर उनकी छवि धुमिल करने का प्रयास बता रहे हैं. आलोक नाथ ने अपने ऊपर लग रहे आरोप के खिलाफ मानहानि का दावा पेश करने का ऐलान कर दिया है. पर इन सबके बीच क्या उन लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का प्रावधान है जिनके खिलाफ मी टू कैंपेन में अभद्र व्यवहार का आरोप लग रहा है?

क्या कहता है कानून?

हाल के माहौल में जो आरोप लग रहे हैं उसे 354 A, 354 C और 354D इंडियन पीनल कोड के तहत आते हैं. इन तीनों मामलो में पहली बार अपराध कर रहे दोषी के खिलाफ एक से तीन साल के सजा का प्रावधान है. लेकिन इसे कॉगनिजेवल ऑफेंस की श्रेणी में रखा गया है. ध्यान रहे 354A, C और D आईपीसी के तहत सेक्सुअल हैरासमेंट, ताक-झांक और पीछा करने जैसी हरकतों पर लगाया जाता है.

जानकार के मुताबिक कॉगनिजेबल ऑफेंस में FIR रजिस्टर करना जरूरी होता है. इसलिए ऐसे केस में पीड़ित एफआईआर दर्ज कर सकती हैं. भले ही वारदात सालों पहले हुआ हो. लेकिन इन अपराध में ज्यादा से ज्यादा सजा का प्रावधान 3 साल का है. ये मामले 468 CRPC के तहत माना जाएगा. कानूनविद् की मानें तो 468 CRPC के तहत पड़ने वाले वाले मामलों में क्रिमिनल ट्रायल की गुंजाइश नहीं बनती है.

एक समस्या यह भी?

दूसरी बड़ी समस्या इस केस में ये माना जा रहा है कि 2013 में संशोधन के बाद 354A, C,और D के तहत सजा का प्रावधान किया गया जिसके तहत सेक्सुअल हैरासमेंट, ताकझांक और पीछा करने जैसे मुद्दे पर एक से तीन साल के सजा का प्रावधान रखा गया. जबकि 2013 में हुए संशोधन से पहले इन मामलों में इंडियन पीनल कोड के तहत सजा का कोई प्रावधान नहीं था.

इसलिए आर्टिकल 20 (1) का हवाला देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकील अभिजीत सक्सेना बताते हैं, 'किसी को सजा उस एक्ट के तहत नहीं दी जा सकती जब इंडियन पीनल कोड में उस एक्ट के खिलाफ सजा का कोई प्रावधान न हो.' एम जे अकबर और कई शख्सियत पर लग रहे आरोप साल 2013 के पहले के हैं. इसलिए कानूनी तौर पर उनके खिलाफ सजा का प्रावधान नहीं बनता है.

अभिजीत सक्सेना के मुताबिक कुछ हरकतें जो अब सेक्सुअल हैरासमेंट के श्रेणी में आते हैं वो साल 1990 और साल 2000 में अपराध की श्रेणी में नहीं आते थे. जाहिर है मीटू को सामाजिक अभियान से ज्यादा और कुछ समझना बेमानी होगा.

सुप्रीम कोर्ट के वकील अवनी साहू भी इसे सामाजिक अभियान और मीडिया का विशिष्ट लोगों के खिलाफ चलाया गया एक अभियान मानते हैं, जिसका सामाजिक सरोकार से ज्यादा कुछ और नहीं है. उनका कहना है, 'एफआईआर रजिस्टर हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है. और मीडिया प्रेशर में चार्जशीट भी हो सकता है लेकिन कोर्ट में केस स्टैंड करने की कोई गुंजाइश नहीं है.'

दरअसल अवनी साहू मानते हैं कि मीटू कैंपेन के तहत छेड़छाड़ और ताकझांक जैसे आरोप लगाने वाली महिलाओं के लिए सबूत पेश करना मुश्किल होगा. वो भी तब जब 20 साल पुराना मामला हो और उसका कोई फॉरेंसिक सबूत से लेकर परिस्थितीजन्य साक्ष्य मिलना मुश्किल होगा.

वहीं पश्चिम बंगाल कैडर के एक आईपीएस अधिकारी सचिन श्रीधर इसे गंभीर सामाजिक बुराई करार देते हैं. सचिन श्रीधर कहते हैं, 'ये समाज की गंभीर बुराई के तौर पर देखा जाना चाहिए परंतु कानूनी तौर पर मीटू कैंपेन से किसी को सजा मिलने की गुंजाइश नहीं दिखता है. ये एक मीडिया में फैलाया गया एक ऐसा वाकया है जिससे कई परिवार की खुशियां भी छिन सकती हैं.'

लेकिन उत्तर प्रदेश में कार्यरत दूसरे पुलिस अधिकारी इसे सामाजिक समस्या तो बताते हैं परंतु पूरी तरह कानूनी रूप से कमजोर मानने से इनकार करते हैं. उनका कहना है, 'आरोप की गंभीरता कई बार जांच के बाद पता चल पाती है. कई बार लगाए गए आरोप से कहीं ज्यादा गंभीर तथ्य जांच के बाद पता चलते हैं और फिर सबूत के आधार पर सजा दिलाना आसान होता है.'