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MeToo: एम.जे. अकबर को वर्षों तक अपने दामन में छिपाए रखने के लिए हम पत्रकार दोषी नहीं?

अगर पत्रकारिता के पेशे को अपनी गलती में सुधार की ईमानदार कोशिश करनी है तो उसे पहले इस सच्चाई का सामना करना होगा कि युवा महिला पत्रकारों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह में यह पेशा बुरी तरह नाकाम रहा.

BV Rao

बहुत साहस जुटाना पड़ता है किसी महिला को सार्वजनिक रूप से यह कहने के लिए कि उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ हुआ है. सो, अभी क्यों और पहले क्यों नहीं जैसे सवाल बेगैरत और बेमानी हैं. कामकाज की जगहों पर #MeToo से पुरुषों पर भी बेहतर प्रभाव पड़ने वाला है इसलिए यह लहर जितनी जोर पकड़े उतना ही अच्छा.

ऊपर की ये बातें बेशक अपनी जगह दुरुस्त हैं. लेकिन एम.जे. अकबर ने अगर मामले पर बगैर कोई मलाल जाहिर किए उसे आड़े हाथों लिया है, तो उनके ऐसे बर्ताव पर गुस्सा और हताशा ठीक नहीं. हमारी यह उम्मीद बेजा ही थी कि वो अपनी मर्जी या फिर बेमर्जी ही सही पद छोड़ देंगे. ऐसा कहने की कुछ वजहों पर गौर कीजिए:


विन्स्टन चर्चिल ने एक दफे कहा था: 'जंग में आप सिर्फ एक दफे मारे जाते हैं लेकिन राजनीति में कई दफे.' जाहिर है, चर्चिल एक ऐसे वक्त के बारे में बात कर रहे थे (बशर्ते कि ऐसा वक्त कभी रहा हो) जब मर्यादा और नैतिकता राजनीति का अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे.

तकरीबन तीन दशकों तक पत्रकारिता की दुनिया में एम जे अकबर के प्रयोगों की तूती बोलती रही. वो कलम के धनी लेखक थे- समाज, राजनीति और इतिहास की उन्हें गहरी समझ थी. कलकत्ता से ‘टेलीग्राफ’ की शुरुआत करने बाद वो पत्रकारिता के मंच पर किसी महानायक की तरह उभरे. ज़हीन सामग्री और बेहतरीन प्रस्तुति के कारण टेलीग्राफ ने देश भर में अपनी तरफ ध्यान खींचा.

साल 1989 में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. इसके एक साल बाद, रामजन्म भूमि आंदोलन के चरम उभार के दिनों में अकबर लखनऊ के राजकीय मीराबाई गेस्टहाउस में सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में ठहरे थे. प्रतिनिधिमंडल अयोध्या के विवादित स्थल का जायजा लेने के लिए दौरे पर आया था.

विवादित स्थल पर संघ-परिवार के कार्यकर्ताओं के प्रतिरोध को झेलने के बाद वहां से लौटते समय अकबर ने जुबान पर चढ़ जाने वाला एक जुमला गढ़ा, 'आज हमने फासीवाद का चेहरा देखा और वो तस्वीर कतई खूबसूरत नहीं थी.' उम्मीद ये थी कि सियासत में भी उन्हें वैसी ही कामयाबी मिलेगी, जैसी पत्रकारिता में. लेकिन करियर को लेकर वो कुछ उदासीन रहे और जल्दी ही पत्रकारिता की दुनिया में लौट आए. मगर अब वो पत्रकार नहीं रह गए थे, क्योंकि उनके जामे पर उस राजनीति की छाप लग चुकी थी, जिसे उन्होंने ओढ़ा-बिछाया था.

उन्होंने अलग-अलग अखबारों में अपना कॉलम ‘बायलाइन’ लिखना जारी रखा. हमेशा की तरह उनके लिखे को पढ़ना और उनके बोले को सुनना अब भी पहले की तरह बांध लेता था, आप उनके पांडित्य को सराहते थे. लेकिन, अब उनके लिखे पर यकीन कर पाना मुमकिन नहीं रह गया था, क्योंकि अब वो वही कुछ लिखते थे जो उनकी सियासत के मिजाज के माफिक था. उनकी पत्रकारिता उनकी राजनीति का विस्तार बनकर रह गई थी. उनके लेखन में पांडित्य और प्रतिभा की चमक अब भी बरकरार थी लेकिन आप ये नहीं मान सकते थे कि उस लेखन में उनके बुनियादी उसूल या फिर शख्सियत की झलक है.

एम.जे. अकबर के बारे में उनके लेखन और सियासत के हवाले से बात करना दरअसल उनकी तस्वीर बनाना कहलाएगा. अपने पत्रकारिता के दौर में वे जिस भी न्यूजरूम के अगुआ बने वहां उनकी रंगीन मिजाजी को लेकर किस्से बने. कहा जाता था कि यह उनका ‘जाहिर सा राज़’ है. हर न्यूजरूम का हर पत्रकार, जिसमें हमलोग भी शामिल हैं, आज जब अकबर और #MeToo की चर्चा कर रहा है तो इस चर्चा का शुरुआती वाक्य होता है कि वो तो 'हमेशा से ऐसे ही थे.'

विडंबना देखिए कि न्यूजरूम में महिलाओं को अचानक नेतृत्व के पद पर लाने के चलन की शुरुआत करने वाले भी एम.जे. अकबर ही हैं. हां, मुमकिन है उनका मकसद इसके पीछे शोषण का ज्यादा रहा हो, लैंगिक समानता कायम करने का कम. उनके मातहत के तौर पर काम करने वालों में कई प्रतिभाशाली और जुझारू महिलाएं शामिल हैं.

इन महिलाओं में अपने हक की हिफाजत में तनकर खड़ा होने की कूवत रही है. एम.जे. अकबर का सौभाग्य कहा जाएगा कि यौन-शोषण करने वालों के खिलाफ खुलकर बोलने का माहौल तैयार करने वाला #MeToo का आंदोलन दो दशक की देरी से शुरू हुआ है. अगर उस वक्त भी ऐसा ही माहौल बना होता तो अकबर इस हद तक (मानहानि का मुकदमा लेकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाना) नहीं जा पाते. उन्हें कार्यस्थल पर होने वाले यौन-शोषण के खिलाफ आए कानूनी दिशानिर्देशों के आधार पर बनी आंतरिक परिवाद समिति (इन्टरनल कंप्लेंट कमेटी) के आगे हाजिरी लगानी पड़ती.

यह भी एक तरह से उनका सौभाग्य ही कहलाएगा कि वो अगर आज एक पत्रकार होते तो उन्हें अपना पद छोड़ना ही पड़ता चाहे उनका ओहदा संपादक की कुर्सी संभाले अखबार के मालिक का ही क्यों ना हो. तब यह बात मायने नहीं रखतीं कि जो खुलासे हो रहे हैं उनका रिश्ता दशकों पहले हुए वाकये से है. बीते दस सालों में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को कार्यकाल के दौरान ही अपना पद गंवाना पड़ा है- यह तथ्य खुद ही में एक प्रमाण है.

ऐसा एक मामला तरुण तेजपाल का भी सामने आ चुका है. वो भी एक मशहूर संपादक रहे हैं. उन पर महिला सहकर्मी ने आरोप लगाया कि उन्होंने एलिवेटर में उस पर यौन-हमला किया था. तेजपाल की गिरफ्तारी हुई. महीनों जेल में बिताने पड़े और उन पर 2013 से अपराध के मुकदमे में सुनवाई चल रही है. तेजपाल पर दोष साबित होता है या नहीं यह तो कानूनी की पेचीदगियों का मामला है लेकिन उन्हें कीमत अपनी रोजी-रोटी गंवाकर चुकानी पड़ी थी. उन्हें संपादक की कुर्सी छोड़नी पड़ी और वह पत्रिका भी जिसके वो मालिक थे. जाहिर है, संपादक/पत्रकार को अपने यौन-व्यवहार के मामले में मर्यादा का उल्लंघन करने पर कीमत नहीं चुकानी पड़ी, ऐसा नहीं कह सकते.

यौन-दुराचार के मामलों में तुरत-फुरत इंसाफ का एक और उदाहरण भी है और यह उदाहरण राजनीति की दुनिया से है. वाकया साल 1989 यानि #MeToo से कोई तीन दशक पहले का है जब जियाउर्रहमान अंसारी राजीव गांधी की सरकार में पर्यावरण मंत्री थे. कहा जाता है कि पर्यावरण मसलों की एक कार्यकर्ता मुक्ति दत्ता के साथ उन्होंने दुर्व्यवहार किया था. मुक्ति दत्ता ने तुरंत ही इसकी शिकायत लिखवाई. अंसारी को तत्काल अपना पद छोड़ना पड़ा.

तरुण तेजपाल ने पत्रकार के रूप में कानून की हद लांघी थी और पत्रकार के रूप में ही कीमत भी चुकाई. दशकों पहले जियाउर्रहमान अंसारी ने राजनेता के तौर पर कानून की हद लांघी थी राजनेता के रूप में ही इसकी कीमत भी चुकाई. एम.जे. अकबर को ओहदे से हटाने की मांग के साथ मुश्किल ये है कि हम एक राजनेता से उन पापों का प्रायश्चित चाह रहे हैं जो उसने पत्रकार रहते हुए किए थे, वह भी दो दशक पहले. #MeToo में लगाया गया कोई भी आरोप उस एम.जे. अकबर से बावस्ता नहीं जो राजनेता की भूमिका में है जबकि हम यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि पत्रकारिता के घर का कचरा राजनीति अपना झाड़ू मारकर साफ कर दे और इस तरह यह लम्हा बगैर हमपर अपनी रोशनी डाले गुजर जाए.

पत्रकारों और संपादकों को पहले तो इस चुभते हुए तथ्य का सामना करना चाहिए कि पत्रकारिता के पेशे ने युवा महिलाओं के साथ दगा किया है- कम से कम उन 35 महिलाओं के साथ तो जरूर ही जिनका कहना है कि एम.जे. अकबर ने उनके साथ यौन-दुर्व्यवहार किया. सन 1980 और 1990 के दशक में पत्रकारिता के पेशे में राजनेताओं और फिल्मी हस्तियों के सेक्स-स्कैंडल के मिर्च-मसाले का बड़ा जोर था और इस क्रम में पत्रकारिता नीति-उपदेश भी दिया करती थी और अजब कहिए कि पत्रकारिता में ना तो अब वो आवाज दिखाई दे रही है और ना ही वो इच्छा कि वो अपनी दुनिया के एक बड़े सूरमा के पोशीदा दुराचारों का सामना करे.

एक मसला और भी है. हमने उन 15 महिलाओं की बात तो सुनी है कि एम.जे. अकबर ने कैसे उनका शोषण किया (और अन्य 20 महिलाओं की भी जिन्होंने प्रिया रमानी के खिलाफ दर्ज कराए एम.जे. अकबर के मुकदमे के संदर्भ में रमानी के पक्ष में एक अर्जी पर दस्तखत किए हैं), लेकिन अभी तक एम.जे. अकबर के उस दौर के वरिष्ठ सहकर्मियों (स्त्री और पुरुष) की बातें हमें सुनने में नहीं आईं.

इन वरिष्ठ सहकर्मियों को पत्रकारिता के पेशे में आए नए-नवेलों को अपनी टीम में हिफाजत का एहसास दिलाना चाहिए था. आखिर ऐसे वरिष्ठ सहकर्मियों को अकबर और उनके दुराचारी स्वभाव के बारे में अपने खुद के अनुभव या फिर जिनके साथ उन्होंने काम किया उनके हवाले से पता ही था.

जिम्मेदारी के घेरे में बाकी हम सबलोग भी हैं. अभी तक किसी वरिष्ठ सहकर्मी या फिर पेशे में रहनुमाई करने वाली किसी शख्सियत के मुंह से यह सुनने को नहीं मिला कि उसने मसले पर एम.जे. अकबर को आड़े हाथों लिया और उन्हें आईना दिखाया. एम.जे. अकबर को एक तरह से फ्री पास हासिल था.

एम.जे. अकबर ने जिन अखबारों के संपादक का पद या मालिकाना संभाला सिर्फ उन्हीं अखबारों के वरिष्ठ संपादक रहे लोगों के अपनी जिम्मेदारी से चूकने का भर का मामला नहीं है यह दरअसल यह पूरे पेशे के दायित्व-निर्वाह के मोर्चे पर नाकाम रहने का मामला है.

एम.जे. अकबर को लेकर चलने वाली कहानियों के बारे में हम सभी जानते थे लेकिन हमने कभी भी सतह को भेदकर भीतर देखने की कोशिश नहीं की. हम कहानियों का रस लेते रहे और इसी में संतुष्ट थे. नीयत में भले ना रहा हो लेकिन एक तरह से देखें तो हमलोगों ने ए.जे. अकबर के लिए सहायक माहौल बनाने का काम किया, उनकी करतूतों के एक तरह से भागी हुए.

और शायद इसी कारण हमलोग बड़ी राहत में हैं कि एम.जे. अकबर का बोझ किसी दूसरे पर पड़ा है. जिस ताकत के साथ आज हमने एम.जे. अकबर को हटाने की आवाज बुलंद की वह बड़ा मौकापरस्त और भद्दा कहलाएगा क्योंकि इसके जरिए हम अपने इस सामूहिक दोष को छिपाना चाहते हैं कि एम.जे. अकबर को हमने खुली छूट लेने दी, ऐसा करने में सहायक हुए. सोशल मीडिया को अधिकार है कि वह अकबर को लेकर नीति-उपदेश करे लेकिन परंपरागत मीडिया ने नीति-उपदेश करने का यह हक हासिल नहीं किया है.

अपनी इस शर्मनाक कमी को छुपाने के लिए हमलोग अब अपनी जिम्मेदारी का ठीकरा राजनेताओं पर फोड़ना चाहते हैं और राजनेताओं को ऐसे खलनायक की तरह पेश कर रहे हैं जिसने अपनी नैतिक सुध-बुध गंवा दी हो.

अच्छा है जो एम.जे. अकबर मानहानि के मुकदमे में प्रिया रमानी को अदालत के दरवाजे तक खींच ले गए. इस मुकदमे का अंत मायने नहीं रहता. अकबर हारें चाहे जीतें- इसकी किसी को फिक्र नहीं. हमलोगों के लिए उन्होंने एक तरह से अच्छा किया कि कानूनी प्रक्रिया की शुरुआत कर दी. बरसों पहले सहकर्मी की भूमिका में रहीं 35 महिलाओं के मुंह से जब वो अपने खिलाफ अदालत में आरोप, खुलासे और गवाह के तौर पर दिए गए बयान सुनेंगे तो इस पूरी प्रक्रिया से गुजरना खुद ही उनके लिए एक सजा की तरह साबित होगा.

कानून के कोने से देखें तो भी ऐसी संभावना नहीं दिखती कि महिलाओं की एक बड़ी तादाद की गवाहियों से जो कुछ निकलकर सामने आ रहा है उसकी अनदेखी करना अदालत के लिए मुमकिन होगा. और इन गवाहियों से यही झांकता है कि महिलाओं के प्रति अकबर का बरताव किसी झपट्टामार की तरह था.

अगर पत्रकारिता के पेशे को अपनी गलती में सुधार की ईमानदार कोशिश करनी है तो उसे पहले इस सच्चाई का सामना करना होगा कि युवा महिला पत्रकारों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह में यह पेशा बुरी तरह नाकाम रहा. इस पेशे से जुड़ी एक संस्था एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का काम पत्रकारों के हक की हिफाजत करना है. इस संस्था की एक खास सलाहियत है कि पत्रकार ढेर सारी गलती करें तो भी यह उनकी तरफ से नजर फेरे रहे. लेकिन फिलहाल एक बड़ी गलती को सुधारने का मौका सामने है. क्या ही अच्छा हो जो एडिटर्स गिल्ड है #SorryGirls #WeFailedYou from the Guild लिखकर इस गलती को सुधारने की शुरुआत करे.