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कश्मीर में सेना पर FIR दर्ज कर पाक को क्या पैगाम दे रही है महबूबा सरकार?  

क्या सेना को अपने बचाव के लिए एक बार फिर जीप पर किसी को मानव-ढाल के रूप में बांध कर अपने काफिले को सकुशल निकालना चाहिए?

Kinshuk Praval

जम्मू-कश्मीर में सियासी पारा चरम पर है. आमने-सामने सत्ताधारी पार्टियां हैं. बीजेपी और पीडीपी के बीच सेना के खिलाफ जम्मू-कश्मीर पुलिस की एफआईआर को लेकर विवाद गहरा गया है. शोपियां में सेना के काफिले को तकरीबन 250 पत्थरबाजों की भीड़ ने घेर लिया था. जिसके बाद जवाबी कार्रवाई में सेना को फायरिंग करनी पड़ी. फायरिंग में दो युवकों की मौत हो गई. यहीं से सियासत अचानक चिंगारी से शोले में तब्दील हो गई.

मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती सेना की फायरिंग से बेहद नाराज हो गईं. जम्मू-कश्मीर पुलिस ने सेना के मेजर समेत पूरी टुकड़ी के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दी. सेना के खिलाफ हत्या और हत्या की कोशिश के तहत मुकदमा दर्ज किया गया. मुख्यमंत्री महबूबा ने सेना की फायरिंग पर मजिस्ट्रैट स्तर की जांच बिठा दी. जबकि राज्य की सरकार के साथ गठबंधन का धर्म निभा रही बीजेपी सेना के साथ खड़ी हुई है. बीजेपी ने सेना की कार्रवाई को जायज करार दिया है.


साफ है कि सूबे की मुख्यमंत्री पत्थरबाजों की हिमायती के तौर पर खुद को पेश कर रही हैं. क्योंकि वो इस मुद्दे के सियासी फायदे को नेशनल कॉन्फ्रेंस के हाथ में जाने नहीं देना चाहती हैं.

दरअसल महबूबा अपने वालिद दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद की राजनीतिक विरासत को ही आगे में बढ़ा रही हैं. वो ये जानती हैं कि उनकी 'कश्मीरी' परस्त राजनीति ही उन्हें सेना और दहशतगर्दों के बीच छिड़े सीरियल एनकाउन्टर के बीच अवाम से जुड़ा रख सकती है. उनके वालिद मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सीएम पद की शपथ लेने के बाद ही विवादास्पद बयान दे डाला था. मुफ्ती ने कहा था कि 'घाटी में शांतिपूर्ण चुनाव होने के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत और आतंकी संगठनों का शुक्रिया अदा करना चाहिए'.

जिसके बाद नेशनल कान्फ्रेंस ने हमलावर रुख अपनाते हुए बीजेपी से इस बयान पर अपना रुख साफ करने की बात की थी. संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह को कहना पड़ा था कि ‘हमारी सरकार और पार्टी जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के बयान से कोई इत्तेफाक नहीं रखती है जिसमें वो घाटी में शांतिपूर्ण चुनावों के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत और आतंकी संगठनों का शुक्रिया अदा कर रहे हैं. घाटी में शांतिपूर्ण चुनाव के लिए सारा श्रेय चुनाव आयोग, सुरक्षा बलों और घाटी की अवाम को जाता है’.

दोनों पार्टियों के गठबंधन के बीच नए मतभेद का पहला बीज सरकार के शपथ लेने के तुरंत बाद ही पड़ गया था. इस बार सेना की फायरिंग के मुद्दे पर बीजेपी का रुख सख्त और साफ है और वो सेना के साथ खड़ी हुई है तो महबूबा पत्थरबाजों की भीड़ के साथ.

सेना की जांच रिपोर्ट का इंतजार क्यों नहीं किया?

सेना ने खुद फायरिंग के मामले में जांच बिठाई है. लेकिन मुख्यमंत्री महबूबा को सेना की जांच रिपोर्ट का इंतजार करना गवारा नहीं हुआ. उनकी सियासी हसरतें हड़बड़ी में कुछ यूं तब्दील हुईं कि उन्हें पत्थरबाजों की भीड़ नहीं दिखाई दे रही बल्कि सेना के जवान 'गुनहगार' दिख रहे हैं.

सेना का साफ कहना है कि उसने आत्मरक्षा में फायरिंग की. 250 पत्थरबाज लगातार सेना के 11 वाहनों पर पत्थर बरसा रहे थे. पत्थरबाजों की भीड़ ने जवानों से हथियार छीनने की कोशिश की थी. ऐसे में पत्थरबाजों से बचने के लिए फायरिंग ही आखिरी रास्ता बचा था. लेकिन जिस तरह से महबूबा सरकार ने सेना के खिलाफ कदम उठाया है उससे सवाल उठता है कि क्या सेना को अपने बचाव के लिए एक बार फिर जीप पर किसी को मानव-ढाल के रूप में बांध कर अपने काफिले को सकुशल निकालना चाहिए?

सेना क्या मानव ढाल को ही बनाए सुरक्षा-कवच?

दरअसल यही हालात एक साल पहले भी सेना के सामने थे. श्रीनगर में उपचुनाव हुए थे. उस वक्त तकरीबन 400 पत्थरबाजों की भीड़ ने सेना के काफिले को घेर लिया था. जिसके बाद सेना ने एक शख्स को जीप से बांध कर मानव ढाल के रुप में इस्तेमाल किया. इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुआ. सेना की सफाई थी कि अगर प्रदर्शनकारी को मानव ढाल नहीं बनाया जाता तो 400 लोगों की भीड़ पोलिंग अधिकारियों पर हमला कर सकती थी.

सेना की इस कार्रवाई पर बवाल भी हुआ. मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगे. सही-गलत के फैसले पर बहस छिड़ी. सेना के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज हुई. लेकिन किसी ने ये नहीं सोचा कि सेना अगर वो कदम नहीं उठाती और बचाव के लिए गोलियां बरसाती तो कितनी जानें जातीं? इस बार भी कमोबेश वैसे ही हालात का एक्शन रीप्ले था. बस फर्क इतना भर रहा कि इस बार सेना को अपनी सुरक्षा के लिए गोली चलानी पड़ गई.

बाढ़ के वक्त सेना ने बचाई थीं हजारों जिंदगियां

लेकिन अब वो ही सेना जम्मू-कश्मीर की महबूबा मुफ्ती सरकार के आरोपों के कठघरे में खड़ी है जिसे कश्मीर में बाढ़ के वक्त ‘फरिश्ते’ का दर्जा मिला था. घाटी में आई बाढ़ से कश्मीर गले तक नहीं बल्कि सिर तक डूब चुका था. अपनी जान की परवाह न करते हुए सेना के जवान घरों में फंसे लोगों को बचाने में जुटे थे. उस बचाव अभियान में हजारों जिंदगियां बचाई गईं थीं. उस वक्त ये नहीं देखा गया था कि कौन सा घर किसी दहशतगर्द या फिर पत्थरबाज का है. सेना ने अपना फर्ज बखूबी निभाया था.

आज भी सेना घाटी में सामाजिक सरोकार से जुड़ी मदद करने में आगे है. कहीं मेडिकल मदद मुहैया कराती है तो कहीं बच्चों को पढ़ाने का काम करती है. आतंक की राह में भटके हुए युवाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए प्रेरित भी करती है. लेकिन महबूबा सरकार ने सेना के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर एक तरह से पाकिस्तान को ही पैगाम देने का काम किया. महबूबा के ही विरोध के चलते पाकिस्तान को इस मामले में अपनी टिप्पणी करने का मौका मिल गया तो वहीं अलगाववादियों को कश्मीर बंद करने का.

बीजेपी-पीडीपी गठबंधन उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव का मिलन

सवाल उठता है कि आखिर ऐसा करना महबूबा की कौन सी सियासी मजबूरी है? महबूबा भी नेशनल कॉन्फ्रेंस की तर्ज पर आम अवाम के बीच ये संदेश देने की कोशिश कर रही हैं कि उनकी भावनाएं अलगाववादियों और पत्थरबाजों के साथ बराबर हैं.

पीडीपी और बीजेपी के बीच सिर्फ सेना की फायरिंग की वजह से ही तनाव नहीं रहा है. कई मुद्दों पर दोनों की तनातनी साफ दिखाई देती है.

महबूबा के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने बीजेपी के साथ गठबंधन के करार पर कहा था कि ये उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव का मिलन है. विरोधी विचारों से बने सियासी मेल के बावजूद धारा 370 और स्वायत्ता के मुद्दे को न छूने की सहमति बनी थी.  मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था घाटी में विकास के लिए बीजेपी ने धारा 370 और पीडीपी ने स्वायत्ता के मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया है. लेकिन  अनुच्छेद 370 और आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट जैसे मुद्दों पर बीजेपी और पीडीपी के बीच बयानों से विवाद होते रहे.

पीडीपी जहां राज्य के कुछ इलाकों से पूरी तरह आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट हटाने की मांग करती है तो वहीं पूरे राज्य से एक साल के भीतर इस एक्ट को हटाना चाहती है. जबकि बीजेपी की दलील है कि जबतक घाटी में आतंकी घटनाओं में कमी नहीं आती है और सुरक्षा एजेंसियों की सहमति नहीं होती है तबतक इस बारे में सोचा नहीं जा सकता.

वहीं अनुच्छेद 370 को लेकर महबूबा ऐसे विवाद दे चुकी हैं जिसको लेकर गठबंधन की दरार साफ दिखाई पड़ी थी. जब देश में धारा 370 और 35 ए को हटाने पर बहस चल रही थी तो महबूबा ने इसका खुलकर विरोध किया था. उन्होंने कहा था कि धारा 370 पर कोई भी हमला राष्ट्रविरोधी है. जबकि बीजेपी धारा 370 को हटाना ही कश्मीर की समस्या सुलझाने का इकलौता विकल्प मानती है. धारा 370 की वजह से जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है. इसी प्रावधान की वजह से जम्मू-कश्मीर के लोकल बाशिंदों को विशेष अधिकार और सुविधाएं मिली हुई हैं.

बीजेपी का मानना है कि देश के संविधान में अनुच्छेद 370 शामिल करना ही जम्मू-कश्मीर की समस्या की मुख्य वजह है. राज्य के साथ विशेष व्यवहार करना और उसे अलग संविधान की अनुमति देने की वजह से ही कश्मीर की समस्या का हल नहीं हो पा रहा है. हालांकि दोनों के बीच गठबंधन के एजेंडे में इस बात पर सहमति बनी कि वर्तमान विशेष दर्जे के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी.

वहीं कश्मीर समस्या के हल के लिए हुर्यित समेत अलगाववादियों के साथ बातचीत करने पर पीडीपी लगातार जोर देती रही है. जबकि बीजेपी के कश्मीर एजेंडे में साफ है कि वो अलगाववादियों के साथ बातचीत करने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है. हाल ही में केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर में दिनेश्वर शर्मा को विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किया है ताकि वो घाटी में सभी पक्षों से बातचीत कर शांति प्रक्रिया की राह तैयार कर सकें.

लेकिन सेना की जवाबी कार्रवाई के बाद महबूबा सरकार का जल्दबाजी में उठाया गया कदम घाटी के हालात को बिगाड़ने का काम कर सकता है. सेना को मुजरिम ठहराकर महबूबा अपने अनुभव और धैर्य की कमी को ही जाहिर कर रही हैं. पीडीपी को ये लग रहा है कि कश्मीरियत की बात कर , पत्थरबाजों का साथ देकर सेना का विरोध करने से उनकी सत्ता और सियासत की उम्र बढ़ सकती है.