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सिनेमाघरों में राष्ट्रगान मामले की सुनवाई SC की वक्त की बर्बादी

सुप्रीम कोर्ट का वक्त बहुत कीमती है. उसे ऐसे मामलों में बर्बाद करना बिल्कुल ही गैर-जरूरी है. देश के लोगों की जान, देशभक्ति की नुमाइश करने से ज्यादा जरूरी है

Utkarsh Srivastava

पिछले दिनों में हम ने कई संगीन अपराध सुर्खिया बनते देखे. एक शख्स ने खुलेआम सड़क पर एक मजबूर महिला से रेप किया. वरिष्ठ खुफिया अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. हाईकोर्ट ने एक दंपति को चार साल जेल में रहने के बाद रिहा कर दिया, क्योंकि निचली अदालत ने कानून का मखौल बनाते हुए उसे सजा सुनाई थी. एक पत्रकार की हत्या उसके लेखों की वजह से कर दी गई.

इन तमाम घटनाओं के बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा मसला उठाया, जो अदालत की नजर मे तुरंत उसकी तवज्जो चाहता है. यह मसला है सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाए जाने पर लोग उसके सम्मान में खड़े हों कि न हों.


सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजे तो राष्ट्रीय ध्वज को भी पर्दे पर दिखाया जाए

यह मामला उस वक्त बहुत चर्चा में आया था जब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश पारित किया कि देश भर के सिनेमाघरों में फिल्म दिखाए जाने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाए. अदालत ने यह भी कहा कि जब सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजे तो उस वक्त राष्ट्रीय ध्वज भी पर्दे पर दिखाया जाए.

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस अमितावा रॉय की बेंच ने उस वक्त कहा था कि इससे लोगों में देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना जागेगी. अदालत ने कहा था कि, 'यह हर नागरिक का फर्ज है कि वो संविधान के मूल्यों का सम्मान करे और उनका पालन करे. वो राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज के प्रति सम्मान जाहिर करे.'

उस वक्त इस मुद्दे पर देश भर में बहस छिड़ गई थी. आरोप लगे थे कि इससे देशभक्ति का प्रचार किया जा रहा है. हालांकि कुछ लोगों ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इसमें कुछ भी गलत नहीं. इससे कोई नुकसान नहीं.

अदालत के फरमान को लागू करने में आने वाली दिक्कतों का हवाला देते हुए कहा गया कि इससे एक खास विचारधारा का प्रचार करने की कोशिश की जाएगी. वहीं किसी ने यह भी कहा कि इस आदेश का देशभक्ति से कोई वास्ता नहीं.

सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया

उस वक्त वरिष्ठ वकील के के वेणुगोपाल ने कहा था कि यह आदेश लागू करने में सिनेमाघरों को बहुत दिक्कत आएगी. क्योंकि थिएटर मालिक किसी को भी खड़े होने को मजबूर तो कर नहीं सकते. खास तौर से बच्चों, बुजुर्गों और दिव्यांगों को. वेणुगोपाल ने कहा था कि अदालत को सरकार को सिनेमैटोग्राफ नियमों में बदलाव कर के राष्ट्रगान बजाने और इसके सम्मान में लोगों के खड़े होने को अनिवार्य करने के लिए कहना चाहिए था.

राष्ट्रगान को लेकर नया फरमान

वक्त बदलते देर नहीं लगती. जस्टिस दीपक मिश्रा अब देश के मुख्य न्यायाधीश हैं. के के वेणुगोपाल अब सरकार के सबसे बड़े वकील यानी एटॉर्नी जनरल हैं. राष्ट्रगान का मसला फिर से सुप्रीम कोर्ट के सामने आया है.

सोमवार को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए एम खानविलकर और जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ के सामने अर्जी आई कि राष्ट्रगान पर सुप्रीम कोर्ट अपने पुराने आदेश को वापस ले. अदालत के पास कुछ खास मामलों में अपना आदेश वापस लेने का अधिकार होता है.

इस बार शायद मी लार्ड अच्छे मूड में थे. इसलिए उन्होंने राष्ट्रगान की बहस के दूसरे पहलू को भी समझा. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने सुझाव दिया कि अदालत अपने अंतरिम आदेश में बदलाव कर के राष्ट्रगान बजाने की अनिवार्यता को खत्म कर सकती है. और इसे सुझाव का रूप दे सकती है. इस सुझाव पर एटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल भी सहमत दिखे.

हालांकि अदालत ने जो आदेश पारित किया, उसमें यह सारी बातें शामिल नहीं थीं. बल्कि कोर्ट ने यह बात सरकार पर डाल दी. अदालत ने यह भी कह दिया कि सरकार को सुप्रीम कोर्ट के पुराने आदेश की रोशनी में ही काम करने की जरूरत नहीं है. इस मामले में एक वकील रहे गौतम भाटिया का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश का मतलब यह है कि सरकार के फैसला लेने तक सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य रहेगा.

इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट अब 9 जनवरी, 2018 को सुनवाई करेगा.

ऐसे मामलों पर सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की वक्त की बर्बादी

इस बात का कोई रिकॉर्ड तो नहीं है कि अदालत ने इस मसले पर अपना कितना वक्त जाया किया. मगर, कम से कम चार सीनियर वकील, तीन सरकारी वकील, 11 एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड और 34 वकील इस मामले की सुनवाई से जुड़े हुए थे. पिछली बार इसे दो जजों की बेंच ने सुना. इस बार मामले की सुनवाई तीन जजों की बेंच में हुई.

राष्ट्र ध्वज तिरंगा झंडा

यह सारा वक्त बर्बाद होने के बावजूद अदालत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी. अब मामला सरकार के पाले में है. सरकार के अफसर पूरे मामले की पड़ताल करेंगे. तब जाकर देश किसी नतीजे पर पहुंचेगा. जिस तरह इस मसले पर विवाद चल रहा है, उसमें यह नतीजा आखिरी होगा, यह नहीं कहा जा सकता.

इस मामले में जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ की राय सबसे अच्छी रही. उन्होंने कहा कि, 'हमें हर वक्त अपनी देशभक्ति की नुमाइश करने की क्या जरूरत है? क्या अदालत को अपने आदेश से देशभक्ति लागू कराने की जरूरत है'. जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि कोई भी भावना जबरदस्ती लागू नहीं की जा सकती.

ऐसे मामलों में देश की सबसे बड़ी अदालत के दखल पर सवाल उठने लाजिमी हैं. पहले तो सुप्रीम कोर्ट ऐसे मसलों पर सुनवाई ही क्यों करता है. फिर इतना वक्त लगाने के बाद भी अगर अदालत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती, तो यह देश के करोड़ों लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना है. न्यायिक व्यवस्था में उनके भरोसे पर चोट करना है.

राष्ट्रगान के सम्मान को लेकर पहले से नियम-कायदे बने हुए हैं

राष्ट्रगान एक देश के तौर पर हमारी पहचान का अहम हिस्सा है. इसे लेकर पहले से ही नियम-कायदे बने हुए हैं ताकि इसका कोई अपमान न कर सके. सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर अपना वक्त बर्बाद करने की जरूरत नहीं है कि जो लोग सिनेमा देखने गए हैं, वो पहले अपनी देशभक्ति का सबूत दें. अगर वो नहीं देते हैं तो उन्हें राष्ट्रवादी नहीं माना जा सकता. जैसा कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि लोग सिनेमाघर मनोरंजन के लिए जाते हैं. फिर भी अदालत को लगता है कि इस मामले में दखल देने की जरूरत है, तो वो बात को घुमा-फिराकर वक्त बर्बाद न करे. न ही गेंद को सरकार के पाले में डाले. अदालत को चाहिए कि वो सीधा आदेश जारी करे.

सुप्रीम कोर्ट का वक्त बहुत कीमती है. उसे ऐसे मामलों में बर्बाद करना बिल्कुल ही गैर-जरूरी है. देश के लोगों की जान, देशभक्ति की नुमाइश करने से ज्यादा जरूरी है.