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बर्थडे स्पेशल: जकरबर्ग ने पढ़ाई छोड़ न बनाया होता फेसबुक तो क्या होता दुनिया का

14 मई को पैदा हुए मार्क जकरबर्ग ने कॉलेज के समय में ही ये सोशल मीडिया साइट बनाई थी.

Animesh Mukharjee

शोले अगर आज बनती तो उसमें डायलॉग होता कि अब क्या बताएं मौसी, एक बार लड़का फेसबुक चलाना छोड़ दे तो काम-धाम भी कर ले. खैर 14 मई को पैदा हुए मार्क जकरबर्ग ने कॉलेज के समय में ही ये सोशल मीडिया साइट बनाई थी. उनके लिए फेसबुक चलाने का मतलब टाइम पास नहीं दुनिया के सबसे अमीर और ताकतवर लोगों में शामिल होना है.

मगर ये बात भी सच है कि फेसबुक चलाने के चक्कर में उनकी पढ़ाई छूट गई और वो कॉलेज ड्रॉपआउट हो गए. जकरबर्ग के फेसबुक बनाने के पीछे तो एक अच्छा खासा किस्सा है जिसपर 'सोशल नेटवर्क' नाम से फिल्म भी बन चुकी है. आज बात करते हैं कि क्या होता अगर फेसबुक न होता.


सेल्फी स्टिक जैसे महान आविष्कार न हुए होते

प्रतिकात्मक तस्वीर

ऑरकुट में स्क्रैप भेजने और टेस्टिमोनियल लिखने की कला का ज़ोर चलता था. फेसबुक ने डीपी पर जोर दिया. अब डीपी पर लाइक आते हैं और लाइक से संतुष्टि मिलती है. बार-बार सड़क चलते लोगों से 'भैया, ज़रा एक फोटो खींच देना' कहना अच्छा नहीं लगता. तो हमारे हाथ में सेल्फी स्टिक जैसा महान आविष्कार आ गया. पाउट वाली सेल्फी से लेकर सबसे तेज़ ग्राउंड रिपोर्ट करने वाली लाइव पत्रकारिता के काम आने वाला ये उपकरण फेसबुक की ही देन है.

जिंदगी को देखने का खुला नजरिया न होता

क्या आपने कभी सोचा था कि आप कैलिफोर्निया में बैठे किसी सॉफ्टवेयर इंजीनियर के भरोसे अपने गर्लफ्रेंड, बॉयफ्रेंड, क्रश वगैरह के बारे में लिख देंगे. पड़ोसी की पत्नी की छनी हुई (फिल्टर लगी) तस्वीर पर दिल बना पाएंगे. फेसबुक न होता तो लोग अपनी प्राइवेसी को नए तरह से न देख रहे होते और भैया ऐसा है कि अगर किसी दिन जकरबर्ग ने सबके इनबॉक्स की चैट पब्लिक कर दी तो कितनों का जो करियर है वो खतम है.

सियासत न बदली होती

हमारे प्रधानसेवक जी पहले हर बात से पहले मित्रों कहते थे. अब लोगों ने इसपर फेसबुक स्टेटस और मीम बना दिए. ये तो पता नहीं कि ये सब उन्होंने देखा कि नहीं मगर अब वो मित्रों की जगह भाईयों-बहनों कहने लगे.

खैर मजाक से अलग फेसबुक ने अमेरिका, मिडिल ईस्ट और भारत की राजनीति को बदला है. अरब स्प्रिंग, ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट, निर्भया जैसे कई आंदोलन और चुनावों पर फेसबुक का बड़ा असर रहा है. इसमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के रिज़ल्ट आए हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि जब ये मेटामॉर्फेसिस पूरी हो जाएगी तो सकारात्मक चीज़ों की गिनती ज़्यादा होगी.

कितनी प्रतिभाएं छिपी रह जातीं

सोचिए जरा, एंटर मार-मार कर लिखी गई कविताएं ट्विटर के 140 कैरेक्टर में कैसे समातीं. शहीद की बेटी को लाइक और शेयर से सम्मान दिलवाने वाले लोग गुमनाम रह जाते. मगर इनके साथ-साथ वो तमाम पेज और वेबसाइट्स भी आप तक नहीं पहुंचतीं जो आपका मनोरंजन करती हैं.

शब्दों की पुरानी डिक्शनरी काम आती रहती

देखते ही देखते हम ‘बड़े भक्त आदमी हैं’ से ‘भक्त हो’ पर आ गए. अब तो किसी को ‘आप’ कह कर बुलाने में भी सोचना पड़ता है. पप्पू नाम वालों के साथ तो सहानुभूति रखी जानी चाहिए. अब तो किसी से कहो ‘वायरल हो गया’ तो दवा खाने की सलाह की जगह पूछेगा कि क्या, ‘रश्के कमर’? गजब ही दुनिया हो गई है प्रभु. (अब प्रभु को ट्वीट मत कर देना)

और ये सब भी न होता

ऐंजल प्रिया का अवतरण इस धरती पर नहीं हुआ होता. कितने लड़कों को ये पता ही नहीं चलता कि उनके अंदर एक मासूम लड़की भी छिपी बैठी है. लोग हवेली पर बुलाकर लीजेंड नहीं बनते. और सबसे बड़ी बात सोनम गुप्ता बेवफा नहीं होती. एक्सपर्ट कहते हैं कि सोशल मीडिया का हद से ज्यादा इस्तेमाल हमें यूज़लेस सूचनाओं का डस्टबिन बना रही है. इससे क्या फर्क पड़ता है. ये भी तो एक सूचना ही है.