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मैरिटल रेप: महिलाओं को बराबरी का हक दिए बगैर नैतिकता की बातें मत करिए

मसला ये है कि शादी का संबंध ही जब गैर-बराबरी का है तो ऐसे रिश्ते और व्यवस्था को बचाने की जरूरत क्या है?

Sohini Sengupta

शादीशुदा रिश्ते में बलात्कार को लेकर नए सिरे से बहस छिड़ गई है. इसकी वजह है दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार का शादीशुदा जिंदगी में रेप को लेकर रखा गया तर्क. केंद्र सरकार की बातों का लब्बो-लुबाब ये है कि शादीशुदा औरतें, पति के जोर-जबरदस्ती से सेक्स करने को बलात्कार नहीं कह सकतीं.

सरकार ने कहा है कि अगर कानून लोगों की शादीशुदा जिंदगी में दखल देगा तो पति, घर से ज्यादा जेल में दिखाई देंगे. सरकार ने कहा है कि शादीशुदा औरतें आम कानूनों के तहत ही अपने लिए राहत तलाशें. ये कानून उस दौर के हैं जब किसी लड़की को या तो पिता की या फिर पति की संपत्ति माना जाता था. यानी सरकार ने बदलते वक्त को पहचानने और शादीशुदा महिलाओं को बराबरी का हक देने का विरोध किया है.


कई देशों में है कानून, भारत में भी उठी थी बहस

इसके बरक्स कई देशों जैसे दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड और वेल्स, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में दांपत्य जीवन में जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाने को बलात्कार का जुर्म माना गया है. संयुक्त राष्ट्र की महिलाओं से भेदभाव के खात्मे के लिए बनी कमेटी और 1993 का महिलाओं पर जुल्म के खात्मे का घोषणापत्र शादीशुदा जिंदगी में जबरदस्ती को बलात्कार मानता है. यूरोपीय यूनियन का मानवाधिकार आयोग भी वैवाहिक जीवन में महिला की रजामंदी के बगैर सेक्स को अपराध मानता है.

2013 में जस्टिस जे एस वर्मा की अगुवाई वाली कमेटी ने जोर-शोर से आपराधिक कानून में बदलाव की वकालत की थी. जस्टिस वर्मा कमेटी ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता या आईपीसी की धारा 375 में शादीशुदा जिंदगी में यौन अपराध को जो छूट दी गई है, उसे खत्म किया जाना चाहिए. जस्टिस वर्मा ने कानून में बदलाव के लिए संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र से लेकर कई देशों के कानून का हवाला दिया था. मगर, दिल्ली हाई कोर्ट में केंद्र के हलफनामे से साफ है कि सरकार, जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों से इत्तेफाक नहीं रखती.

समाज के कमोबेश हर वर्ग की महिलाओं को सरकार पति या पिता की संपत्ति समझती है. मिसाल के तौर पर ड्राइविंग लाइसेंस, में फलां की बेटी, बेटा या पत्नी का जिक्र होता है. वहीं आधार और पैन कार्ड में किसी महिला को नाबालिग के बराबर मानते हुए उसके पति या पिता के नाम का जिक्र होता है. यूं लगता है जैसे किसी महिला की अपनी आजाद जिंदगी और हस्ती ही नहीं होती. उसे अपने नाम के साथ अपनी मां का नाम लगाने का हक नहीं होता. लेकिन शायद हमें इसकी गंभीरता का एहसास नहीं है.

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इसीलिए आम जीवन में भी सरकार का ये रवैया हमेशा ही झलकता है. हमारा समाज महिलाओं से ठीक वैसा ही बर्ताव करता है, जैसे हम लेस्बियन, बाईसेक्सुअल, गे, ट्रांसजेंडर या किन्नरों के साथ बर्ताव करते हैं. समाज में किसी भी इंसान का लिंग बहुत मायने रखता है. भारत में मर्दो और औरतों का रिश्ता बराबरी का नहीं होता. शादीशुदा जिंदगी में तो बिल्कुल ही नहीं. इसकी वजह सदियों पुरानी सोच है.

भारत में मर्दो और औरतों का रिश्ता बराबरी का नहीं होता. शादीशुदा जिंदगी में तो बिल्कुल ही नहीं.

घटिया है केंद्र का तर्क

केंद्र ने हाईकोर्ट में कहा कि शादीशुदा जिंदगी में जबरदस्ती को अपराध घोषित करने पर शादी जैसी व्यवस्था ही मुश्किल में पड़ जाएगी. अब मसला ये है कि शादी का संबंध ही जब गैर-बराबरी का है तो ऐसे रिश्ते और व्यवस्था को बचाने की जरूरत क्या है? हिंदुस्तान की ज्यादातर महिलाओं की मुश्किलें तो शादी के बंधन में बंधने की वजह से शुरू होती हैं. इसके अलावा सामाजिक और सांस्कृतिक भेदभाव का शिकार भी ज्यादातर महिलाएं ही होती हैं. समाज का एक वर्ग जरूर इस व्यवस्था से फायदा उठाता है. ऐसे में सरकार को शादी जैसी व्यवस्था को बचाने के बजाय समाज के कमजोर वर्ग यानी महिलाओं और बच्चों की ज्यादा फिक्र करनी चाहिए. अगर सरकार शादी की परंपरा को बचाना चाहती है तो ठीक है, मगर उसे सेक्स को लेकर औरत की आजादी को तो नहीं दबाना चाहिए.

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सरकार ने ये तर्क भी दिया कि कानून में बदलाव के बाद पतियों को उनकी पत्नियां परेशान करेंगी. शायद सरकार को जमीनी हकीकत का एहसास ही नहीं है. दांपत्य जीवन में अक्सर पत्नियां ही पीड़ित होती हैं. साथ ही सरकार ये मान बैठी है कि शादी का मतलब ये है कि किसी महिला ने सेक्स के लिए रजामंदी दे दी है.

इसमें कोई शक नहीं कि कानून को सभी पहलुओं को जांच-परखकर ही बनाना चाहिए. इस बात का खास खयाल रखा जाना चाहिए कि इसका बेजा इस्तेमाल न हो. लेकिन हम सिर्फ इस डर से कानून में न बदलाव करें कि इसका दुरुपयोग होगा, ये भी गलत ही है. सिर्फ इस आधार पर सरकार का कानून में बदलाव का विरोध करना गलत है कि इससे पतियों को परेशानी का सामना करना पड़ेगा. सरकार को चाहिए कि अगर कोई शादीशुदा महिला अपने साथ जोर-जबरदस्ती को लेकर इंसाफ मांगती है तो उसका समर्थन किया जाए, ताकि उसका शारीरिक शोषण न हो.

इस मामले में सरकार का ये तर्क भी गलत है कि शादीशुदा जिंदगी में जबरदस्ती सेक्स करना कुछ लोगों के लिए बलात्कार हो सकता है, मगर सबकी यही राय नहीं है. एक बार फिर ये सामाजिक स्तर पर कुछ लोगों से भेदभाव वाली सोच को दिखाता है.

बलात्कार को लेकर संकुचित है नजरिया

असल में ये सब तर्क इसलिए सामने आते हैं क्योंकि बलात्कार को लेकर हमारा नजरिया बेहद संकुचित है. कोई महिला अगर कुंवारी है, तो कोई जानकार आदमी उससे जबरन संबंध बनाए तो वो बलात्कार होगा. मगर वही परिचित आदमी अगर उस महिला के पति के तौर पर जबरदस्ती करे तो वो रेप नहीं होगा! जबकि दोनों ही मामलों में संबंध महिला की इजाजत के बगैर बनाए गए. आईपीसी के मुताबिक किसी महिला से जबरदस्ती सेक्स करना बलात्कार है. फिर इसमें शादी की वजह से फर्क कैसे किया जा सकता है?

शादी भी बराबरी का रिश्ता होना चाहिए, अगर नहीं, तो इसे खत्म ही कर दीजिए.

सरकार को समझना होगा कि गरीबी, अशिक्षा, विविधता और समाज की सोच के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. हर नागरिक को संविधान के दायरे में आजादी का हक हासिल है. इसका मकसद यही है कि हर इंसान अपनी काबिलियत के मुताबिक आगे बढ़ सके, तरक्की कर सके. खुद को आत्मविश्वास से भरा हुआ पाए. वो अपनी मर्जी से रिश्ते बनाए. दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में आईपीसी की धारा 377 को लेकर सुनवाई के दौरान कहा था कि हर नागरिक को अपनी मर्जी की जिंदगी जीने का हक है.

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हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार माना है. इससे हर नागरिक को अपने शरीर को लेकर फैसला करने का अधिकार भी मिलता है. अब इसकी आड़ में पुरानी सोच को कानूनी जामा नहीं पहनाया जा सकता.

अगर हम किसी भी नागरिक के सम्मान की कानूनी तौर पर रक्षा नहीं कर सकते, तो हम ये संकेत देते हैं कि समाज में गैरबराबरी का भाव और सोच बने रहें. ऐसा करने हम महिलाओं को उनकी बुरी हालत पर छोड़ देते हैं. उनका शोषण होने देते हैं.

किसी उपन्यास में ऐसे लोगों के लिए लिखा गया है कि, 'हम वो इंसान नहीं जो दस्तावेज में दर्ज हैं. हम तो वो लोग हैं जो कागज के खाली हिस्से पर दर्ज हैं. इससे हमें ज्यादा आजादी महसूस होती है. हम दो कहानियों के बीच के फासले पर खड़े लोग हैं'.

इसीलिए, जब भी हम समाज की बात करें, नैतिकता की बात करें और शादी की परंपरा की बात करें, तो याद रखें कि महिलाएं इसमें बराबरी की हकदार हैं.