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मंदसौर: व्यापमं के बाद शिवराज इस सबसे बड़ी चुनौती से उबर पाएंगे?

एक हफ्ते में ही किसान आंदोलन ने सारा तिलिस्म तोड़ दिया

Shams Ur Rehman Alavi

शिवराज सिंह चौहान को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बने ग्यारह साल से ज्यादा हो चुके हैं. उनसे पहले कोई नेता इतने अरसे तक इस सूबे पर हुकूमत नहीं कर सका. मगर इस वक्त मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज चौहान, व्यापमं स्कैंडल के बाद अपने सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं.

मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन उनके लिए बड़ी चुनौती बन गया है. मंदसौर में पुलिस की गोली से किसानों की मौत, शिवराज के लिए खतरे की घंटी है. ये एक ऐसी घटना है जिसने उस सरकार को हिला दिया है जो पूरी तरह 'कम्फर्ट ज़ोन' में नजर आ रही थी.


सिर्फ दस दिन पहले तक हालात बिलकुल अलग थे. मुख्यमंत्री ने नर्मदा यात्रा के जरिए पूरे प्रदेश में सरकार (और बीजेपी) के पक्ष में माहौल बना रखा था. तीसरा टर्म होने के बावजूद सूबे में कहीं भी ऐसा नहीं महसूस होता था कि अगले साल होने वाले चुनाव में कोई बदलाव की गुंजाइश है. कांग्रेस तो यही तय नहीं कर पा रही थी कि अगला विधान सभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा, कमलनाथ या ज्योतिरादित्य सिंधिया! जाहिर है इतने कमजोर विपक्ष से किसे खतरा था.

किसान आंदोलन ने बदल दी है सूरत

मगर एक हफ्ते के आंदोलन ने सब बदल दिया. हजारों की संख्या में किसानों का सड़कों पर आना, ये मध्य प्रदेश में कोई आम बात नहीं है.

बीजेपी नेता बार-बार ये कह रहे हैं कि आंदोलन को कांग्रेस ने उकसाया मगर वह भी हकीकत से वाकिफ हैं. व्यापमं कांड के दौरान कांग्रेस नेता सड़कों पर आए थे मगर तब क्या उनके साथ जनता होती थी या कितने नौजवान थे जिन्होंने उसको समर्थन दिया था.

हरियाणा या राजस्थान में समाज या वर्ग विशेष के लोग हजारों की संख्या में सड़कों पर आते रहे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में ऐसा आम तौर पर देखने में नहीं आता.

दरअसल आंदोलन के शुरूआती दौर में जब किसान सड़क पर उतरे तो सरकार ने उसको संजीदगी से नहीं लिया. इंटेलिजेंस की नाकामी तो थी ही, बीजेपी के नेताओं ने भी ये नहीं सोचा था कि आंदोलन इतना बढ़ जाएगा. उन्हें शायद ये महसूस हुआ था कि ये चंद दिनों में अपने आप थम जाएगा.

इसीलिए बीजेपी नेताओं ने शुरू में कहा कि ये ‘कुछ असामाजिक तत्व हैं'. जब आंदोलन की आग कई जिलों तक फैल गई तब आंदोलन को खत्म करवाने की कोशिशें की गईं. बीजेपी के करीबी किसान नेताओं से मुख्यमंत्री की चर्चा करवा के ये बयान दिलवाया गया कि आंदोलन खत्म हो गया है, मगर आंदोलन में कोई कमी नहीं आई.

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कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का पुतला फूंका (फोटो: पीटीआई)

व्यापमं स्केंडल से उबरे तो किसान आंदोलन का धब्बा

शहरी इलाकों तक फैल गया. मंदसौर में किसानों पर गोली चलने के बाद, शिवराज सरकार बिलकुल असहाय नजर आई. हद तो तब हो गई जब गृह मंत्री ने ये कहा कि गोली पुलिस ने नहीं चलाई. दो दिन बाद जरूर उनको अपना बयान बदलना पड़ा.

आंदोलन बेहद उग्र हो गया. प्रदेश के दो सबसे बड़े शहरों, भोपाल और इंदौर, जिनके बीच बमुश्किल तीन घंटे का रास्ता है और आम तौर पर लोग बसों से सफर करते हैं, उनके बीच जलती हुई चार्टर्ड बसों की तसवीरें लॉ-एंड-ऑर्डर की मुकम्मल नाकामी की दास्तान कह रही थीं. ये सब मध्य प्रदेश के लिए नया है.

इससे पहले शिवराज के लिए व्यापमं स्केंडल से उबर जाना उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी. एक ऐसा स्कैम जिसमें तफ्तीश के दौरान गवर्नर हाउस से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय के तार जुड़े (शिवराज के पूर्व पर्सनल असिस्टेंट प्रेम प्रसाद भी व्यापमं में आरोपी बने थे) और जिसमें कैबिनेट मंत्री से ले कर आईपीएस अधिकारी तक गिरफ्तार होकर जेल में रहे हों उससे पार पाना आसान नहीं था.

दो सौ से ज्यादा मामले दर्ज हुए कई हजार गिरफ्तारियां हुईं, व्यापमं जांच के दौरान हुई मौतों ने पूरे मुल्क का ध्यान खींचा मगर एसटीएफ से सीबीआई को जांच जाने के बाद धीरे-धीरे ये स्कैंडल दबता चला गया. शिवराज अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहे. वैसे कई लोग मानते हैं कि विपक्ष की कमजोरी (जो मुद्दों पर सरकार को कभी ढंग से घेर नहीं पाया) भी एक वजह थी जो व्यापमं जैसे घोटाले के बाद सत्ता परिवर्तन नहीं हुआ.

लाड़ली लक्ष्मी और कन्यादान जैसे योजनाओं की वजह से शिवराज ने खुद को शुरू से आम आदमी के करीब कर लिया था. अपने आप को एक सादा इंसान के तौर पर पेश करने में वह हमेशा कामयाब रहे. सन 2005 में जब शिवराज मुख्यमंत्री बने थे, पार्टी के अंदर ही उनके खिलाफ कई खेमे थे. किसी को नहीं लगता था कि वह अर्जुन सिंह या दिग्विजय सिंह से भी ज़्यादा लम्बे अरसे तक मुख्यमंत्री रहेंगे. मगर किस्मत ने शिवराज का साथ दिया.

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एमपी में फिर से 'शिवराज फैक्टर' काम करेगा या नहीं

लाड़ली लक्ष्मी जैसे योजनाओं की वजह से शिवराज ने खुद को शुरू से ही आम आदमी के करीब कर लिया था. व्यापमं के बाद उन्होंने नए सिरे से अपनी इमेज पर ध्यान दिया. एक बार फिर खुद को मजबूती से स्थापित किया. वह और ज्यादा सक्रिय हो गए.

उन्होंने चौपालें कीं, घोषणाएं कीं, एक के बाद एक नई योजनाएं आईं. ये और बात है कि इन्वेस्टर्स समिट्स के बावजूद मध्य प्रदेश निवेश का बड़ा डेस्टिनेशन नहीं बना. कोई बहुत नए उद्योग धंधे नहीं आए और न युवाओं को नौकरियां मिलीं. मगर जिस प्रदेश में सिर्फ एक विपक्षी पार्टी हो (आम आदमी पार्टी अभी अपने कदम ही जमा रही है) उनके खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन नहीं हो पाया.

ये आम तौर पर कहा जाने लगा कि मध्य प्रदेश में सिर्फ 'शिवराज फैक्टर' है जो काम करता है और शिवराज का मुख्यमंत्री रहना बीजेपी की भी मजबूरी है. छोटे से छोटे चुनाव को संजीदगी से लेना कई-कई दिनों तक कैम्प करना और अपनी सभाओं में अपने नाम पर वोट मांगना, इस मेहनत की वजह से ज्यादातर उपचुनाव भी बीजेपी जीतती रही. सरकार इतने मजे में थी कि एक आनंद विभाग बना दिया गया था.

मगर ऐसा लग रहा है कि एक हफ्ते में ही किसान आंदोलन ने सारा तिलिस्म तोड़ दिया है. एक बड़ा वर्ग यानी किसान नाराज है. गोलीकांड एक ऐसा वाक्या जो आसानी से भुलाया नहीं जाएगा. मंत्रियों, अधिकारियों के चेहरे उतरे हुए हैं. सरकार कमजोर नजर आ रही है. विधान सभा चुनाव अगले साल हैं. मध्य प्रदेश की स्थिर सियासत में भूचाल आ ही गया है.

विपक्ष भी जोश में है. राहुल गांधी की आमद से कांग्रेस में भी हलचल नजर आ रही है. मध्य प्रदेश की फिजा बदली हुई लग रही है. देखना ये है कि शिवराज किस तरह किसानों के गुस्से को काबू में करते हैं और इस आंदोलन की आग को ठंडा करते हैं.