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महाराष्ट्र: बरसों की मेहनत पर पानी फेर सकता है महिला-विरोधी एक कानून!

आज भी महिलाओं के पास गर्भधारण, गर्भपात या फिर गर्भनिरोध के अधिकार नहीं हैं

Maya Palit

एक क्लासिक का दर्जा हासिल करने वाला मार्ग्रेट एटवुड का उपन्यास 'अ हैंडमेडस् टेल' एक भयावह दुनिया की कहानी कहता है. ऐसी दुनिया जिसमें महिलाओं के प्रजनन संबंधी अधिकार खत्म हो जाते हैं और एक खास वर्ग की औरतों को सिर्फ बच्चे जनने के मकसद से गुलाम बना लिया जाता है.

वीडियो स्ट्रीमिंग सर्विस हुलु ने इस उपन्यास को टेलीविजन की पटकथा के रूप में ढालकर एक फिल्म बनाई है. हाल ही में इसका ट्रेलर रिलीज हुआ तो कई अमेरिकी आलोचकों ने इस टेलीफिल्म का यह कहते हुए स्वागत किया हमारी मौजूदा सच्चाई एडवुड के उपन्यास में चित्रित फंतासी की दुनिया से बहुत अलग नहीं है.


एटवुड की कहानी से महिलाओं की दुनिया अलग नहीं 

आज महिलाओं के पास गर्भधारण, गर्भपात या फिर गर्भनिरोध तक के अधिकार नहीं हैं.

इसका एक उदहारण है कि इसी सप्ताह अमेरिका के एक राज्य में कानून बनाने वालों ने मजाक उड़ाने वाले अंदाज में कहा, 'जो महिलाएं गर्भपात कराना चाहती हैं उन्हें चिड़ियाघर में रहना चाहिए.'

अमेरिका के एक अन्य प्रांत में फरवरी महीने में एक राजनेता ने तर्क दिया, 'गर्भपात कराना हो तो औरतों को अपने होनेवाले बच्चे के पिता से इसकी लिखित मंजूरी मांगनी चाहिए क्योंकि अजन्मे बच्चे के लिए औरत की गर्भ बस किसी मेहमानखाने की तरह है.'

क्या आपको अब भी ये बातें टीवी के पर्दे पर चलने वाली किसी साइंस फंतासी जैसी लग रही है? हो सकता है कि आपको कुछ ऐसा ही लग रहा हो लेकिन यह अमेरिका की एक सच्चाई है.

अपने देश महिलाओं के हालात 

तस्वीर: मेनका गांधी के ट्विटर वाल से

अब जरा उन बातों पर गौर करें जो खुद हमारे अपने देश में हो रही हैं. पिछले साल केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक बड़ा ही 'शानदार' आइडिया पेश किया था.

उन्होंने सुझाव रखा कि प्रेगनेंसी के दौरान बच्चे के लिंग-जांच को वैध बना देना चाहिए. ऐसा लिंग-निर्धारण फिलहाल प्री-कन्सेप्शन एंड प्री-नेटल डायग्नॉस्टिक एक्ट (पीसीपीएनडीटी) 1994 के अंतर्गत गैर-कानूनी है.

उनका अनोखा तर्क यह था कि इससे बच्चे के जन्म के पंजीकरण कराने में आसानी होगी. साथ ही उनका कहना था कि इसकी जांच से डॉक्टर के लिए भी सुरक्षित प्रसव तक गर्भवती की जांच का ध्यान रखना आसान हो जाएगा.

मेनका गांधी ने बाद में एक बयान जारी कर स्पष्ट किया कि यह उनकी निजी राय है न कि नीति बदलने के लिए लाया गया मंत्रालय का कोई औपचारिक प्रस्ताव.

मेनका गांधी के स्पष्टीकरण से पहले ही एनजीओ के कार्यकर्ता, स्वास्थ्य विशेषज्ञ और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने विरोध की आवाज बुलंद करते हुए साफ-साफ कहा कि मेनका गांधी की बात उनकी तंग नजर को दिखाता है.

गर्भ में पल रहे बच्चे के जांच का कानूनी अधिकार

लेकिन इस बेतुकी योजना की खिचड़ी पकाने के लिए फिर से हांडी चढ़ चुकी है और आंच सुलगाने का काम शुरू किया है महाराष्ट्र ने.

7 अप्रैल को महाराष्ट्र विधानसभा की लोक लेखा समिति ने सिफारिश दी कि कन्या भ्रूण-हत्या रोकने के लिए प्रसव-पूर्व शिशु के लिंग निर्धारण को अनिवार्य बनाया जाए.

समिति की रिपोर्ट 9 अप्रैल को विधानसभा में पेश की गई. रिपोर्ट में कार्ययोजना सुझाते हुए कहा गया है, अजन्मे शिशु के 'माता-पिता सोनोग्राफी के लिए आएं तो उन्हें उन्हें लिंग-निर्धारण की अनिवार्य जांच की अनुमति दी जानी चाहिए.

साथ ही स्थानीय स्तर पर ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि माता-पिता आगे भी जांच करवाने के लिए आते रहेंगे. अगर मां-बाप जांच के लिए नहीं आते तो उनके घर जाकर इसके बारे में देखने-पूछने की व्यवस्था होनी चाहिए.

अजन्मे बच्चे के गर्भपात का दवाब 

फिलहाल पीसीपीएनडीटी एक्ट में अजन्मे बच्चे के लिंग-निर्धारण की जांच को अपराध करार देते हुए इसकी जिम्मेवारी सिर्फ डॉक्टर पर डाली गई है. इस व्यवस्था के साथ यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि पीसीपीएनडीटी एक्ट में महिलाओं के लिए खुद की हिफाजत के कुछ प्रावधान किए गए हैं.

इस एक्ट में 2003 में हुए संशोधन में ये इंतजाम खास तौर पर किए गए और गर्भवती स्त्री को एक्ट में विचार के दायरे से बाहर रखा गया. इसके पीछे सोच यह थी कि अजन्मे बच्चे के लिंग-निर्धारण के आधार पर गर्भपात कराने का फैसला लेने में खुद गर्भवती महिला का जोर नहीं चलता, यह फैसला परिवार के बाकी लोगों की तरफ से उसपर लादा जाता है.

योजना तो यह कह रही है कि गर्भावस्था के दौरान माता-पिता पर नजर रखी जाएगी. गर्भ में पल रहा भ्रूण लड़का है या लड़की इसका खुलासा कर देने के बाद सुनिश्चित किया जाएगा कि माता-पिता सुरक्षित प्रसव से पहले लगातार जांच के लिए आते रहें. लेकिन जो लोग अजन्मे बच्चे के लिंग के आधार पर गर्भपात का मन बना चुके हैं उनको रोकने के लिहाज से यह योजना बड़ी लचर जान पड़ती है.

गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए ये कानून कितना सुरक्षित है

सवाल है कि अगर मां-बाप आगे की जांच के लिए नहीं आते हैं तो आप करेंगे?लोक-लेखा समिति ने इसके लिए दूसरी योजना भी सुझाई है. इसमें स्वास्थ्य विभाग के लोग प्रेग्नेंट महिला के घर जाएंगे और उसकी हालत की जानकारी लेंगे.

कहने की जरुरत नहीं कि यह प्लान बी कई वजहों से एकदम ही नाकाम साबित हो सकता है. मिसाल के लिए अजन्मे बच्चे के माता-पिता अपने घर का पता या संपर्क के अन्य ब्योरे गलत बता सकते हैं या फिर स्वास्थ्य महकमे के जिला स्तर के अधिकारियों को घूस खिलाई जा सकती है. उन्हें अपनी तरफ मिलाया जा सकता है और इस तरकीब के सहारे पेट में पल रहा शिशु अगर लड़की हुआ तो गर्भपात के फैसले को अंजाम दिया जा सकता है.

बहुत संभव है कि डाक्टर, जिला स्तरीय स्वास्थ्य अधिकारी या फिर दंपति पर नजर रखने के काम से जुड़े लोग अपनी जिम्मेदारी को कारगर ढंग से अंजाम ना दे पायें या यह भी मुमकिन है कि उनके पास इतने संसाधन ना हों कि सलाह के लिए क्लीनिक पहुंचने वाले तमाम दंपत्तियों पर ठीक-ठीक नजर रख सकें.

ट्रैकर डिवाइस के रखने से लिंग-अनुपात में सुधार नहीं 

साल 2011 में सोनोग्राफी सेटर्स में एक सेट-टॉप बाक्स रखा गया है. मंशा यह थी कि इसके जरिए अल्ट्रासाउंड मशीन के सहारे होने वाली जांच पर निगरानी रखी जाएगी और उसका ब्यौरा रिकार्ड किया जाएगा.

इस ट्रैकर डिवाइस पर बड़े विस्तार से शोध हुआ है. इन शोधों से पता चलता है कि ट्रैकर डिवाइस के रखने से लिंग-अनुपात में कोई खास सुधार नहीं हुआ और यह तरकीब पीसीपीएनडीटी कानून के उल्लंघन के मामलों को पकड़ पाने में खास उपयोगी नहीं है.

(इस सिलसिले में लोक लड़की अभियान की संस्थापक एडवोकेट वर्षा देशपांडे के स्टिंग ऑपरेशन कहीं ज्यादा उपयोगी साबित हुए हैं. इन स्टिंग ऑपरेशन्स के जरिए गैरकानूनी गर्भपात करने वाले कई डॉक्टरों के मामले उजागर हुए)

महिलाओं की निजता और हिफाजत के विपरीत सुझाव 

सबसे अहम बात यह है कि लोक लेखा समिति की सुझाई हुई योजना महिलाओं की निजता और हिफाजत बनाए रखने की कोशिशों के विपरीत पड़ती है. फोरम अगेंस्ट सेक्स सलेक्शन की ओर से जारी एक बयान के मुताबिक लोक लेखा समिति का प्रस्ताव महिलाओं के लिए कई मायनों में हानिकारक साबित होगा. इस बयान पर 100 से ज्यादा कार्यकर्ताओं और महिला अधिकार समर्थकों ने हस्ताक्षर किए हैं.

बयान में कहा गया है कि 'नए प्रस्ताव से सिर्फ यही होगा कि गर्भवती महिला निरंतर निगरानी में रहेगी. उसपर घर के लोगों की भी पहरेदारी चलेगी और राज्य-कर्मचारी भी नजर रखेंगे. यह प्रस्ताव नाहक ही ऐसी महिला को निशाना बना रहा है जिसकी कोख में मादा भ्रूण पल रहा है.'

आगे कहा गया है, 'यह प्रस्ताव महिला के किसी भी गर्भपात वह चाहे जिन कारणों से किया गया हो, को सीधे से लिंग-निर्धारण के पहलू से जोड़ देगा. एक तो सुरक्षित प्रसव की सुविधाओं से महिलाएं वैसे भी महरूम रहती हैं. प्रस्ताव के अमल में आने से उनके लिए यह सुविधा और भी दूभर हो जाएगी. लोक लेखा समिति के प्रस्ताव के कारण अवांछित भ्रूण से निजात पाने की गैरकानूनी सुविधाओं को बढ़ावा मिलेगा.

बयान में कहा गया कि लिंग-निर्धारण के आधार पर होने वाले गर्भपात में चिकित्सा जगत के पेशेवर के शामिल होने की आशंका हो तब भी यह प्रस्ताव उन्हें जवाबदेही से खुली छूट देता है और दूसरी तरफ अवैध गर्भपात की पूरी जिम्मेदारी गर्भवती महिला पर डाल देता है.(पीसीपीएनडीटी एक्ट में दोषसिद्धि की दर वैसे भी बहुत कम है)

पितृसत्ता की मानसिकता को बढ़ावा

देश में लिंग-अनुपात बढ़ाने की कोशिशों के प्रचार में लगे नागरिक संगठनों के एक मंच 'गर्ल्स काउंट' के सह-संयोजक रिज़वान परवेज का कहना है, 'लोक लेखा समिति की सिफारिशें पितृसत्तात्मक भावनाओं की नुमाइंदगी करती हैं.'

वह कहते हैं, 'हमारे देश में एक मुश्किल तो यह है कि समाज का एक बड़ा तबका गर्भपात को पाप मानता है, वह इसे गर्भवती महिला की सेहत का मसला मानने को तैयार ही नहीं होता. गर्भवती महिला पर निगरानी रखने की बात के पीछे यही मंशा काम रही है.'

उनके अनुसार, 'इसके अतिरिक्त, लिंग-निर्धारण को कानूनन वैध बना देने से महिलाओं की दशा और खराब होगी, उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ेगा क्योंकि घर के ज्यादातर लोग नहीं चाहते कि महिला किसी बेटी को जन्म दे.'

एक स्थिति यह भी सामने आ सकती है जब घर के लोगों को पता हो कि महिला के पेट में पल रहा भ्रूण लड़की है और वे डाक्टर की देखरेख में महिला का गर्भपात ना करवा पायें. ऐसे में वे महिला के साथ इतनी मारपीट कर सकते हैं कि इसी वजह से गर्भपात हो जाए.

पीसीपीएनडीटी एक्ट के सख्ती से लागू करने की जरूरत 

हालांकि सेहत के मसले से जुड़े कार्यकर्ता पहले से कहते आ रहे हैं कि पीसीपीएनडीटी एक्ट बहुत कामयाब साबित नहीं हुआ है. कई सालों से इसका अमल जमीन पर कम और कागज पर ज्यादा दिखता है. फिर भी रिज़वान मेनका गांधी के इस तर्क से सहमत नहीं कि पीसीपीएनडीटी एक्ट देश में लिंग-अनुपात को बढ़ाने में नाकाम रहा है.

रिज़वान का कहना है कि कानून को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए साथ ही लोगों के सोच में बदलाव की कोशिश की जानी चाहिए. इन दो बातों से स्थिति में सुधार की संभावना बनती है. रिजवान बताते हैं, 'हरियाणा और राजस्थान में जन्म आधारित लिंग-अनुपात में काफी सुधार हुआ है (इस साल मार्च में हरियाणा में प्रति हजार नर शिशु पर 950 कन्या शिशुओं का जन्म हुआ) जनांकिकी (डेमोग्राफी) के लिहाज से यह काफी महत्वपूर्ण है.

लिंग-निर्धारण को कानूनी करार देने के विचार के साथ प्रयोग करने की जगह सरकार और इस मसले से जुड़े बाकी सारे पक्षों को चाहिए कि वे पीसीपीएनडीटी एक्ट को सख्ती से लागू करने और कन्या शिशु के जन्म के पहले से ही उसके साथ होने वाले भेदभाव की मानसिकता को बदलने पर जोर लगायें, साथ ही महिलाओं को वैध और सुरक्षित गर्भपात के अवसर मुहैया कराए जाने चाहिए.'

मेनका गांधी ने तो खैर अक्लमंदी दिखाई और अपने सुझाव को वापस ले लिया लेकिन लोक लेखा समिति तो अपने ‘क्रांतिकारी’ विचार के लिए खुद की पीठ थपथपाने में लगी है. कभी-कभी लोक स्वास्थ्य समितियां ऐसे तर्क पेश करती हैं जो हालात से तनिक भी मेल नहीं खातीं.

जहां तक लिंग-निर्धारण की जांच को वैध बनाने का सवाल है अगर यह तथाकथित ‘क्रांतिकारी’ विचार अमल में आता है तो महाराष्ट्र की सरकार और यहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लिंग-निर्धारण के खिलाफ कानून बनाने में बरसों जो मेहनत की है, वह सब एकबारगी मिट्टी में मिल जाएगा.

द लेडीज फिंगर (टीएलएफ) महिला केंद्रित एक अग्रणी ऑनलाइन मैगजीन है. इसमें राजनीति, स्वास्थ्य, संस्कृति, सेक्स, काम और इन सबसे जुड़े मसलों पर ताजातरीन नजरिए और तेजतर्रार अंदाज में चर्चा की जाती है.