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चंबल का वह ‘बाजीगर’ जिसने जयप्रकाश नारायण के मुंह पर ही उन्हें कह डाला था ‘बागी और डाकू’!

14 और 16 अप्रैल साल 1972 को आखिरकार डाकू माधव सिंह ने जिला मुरैना के जौरा में 521 डाकूओं के साथ जेपी की मौजूदगी में सरेंडर कर दिया

Sanjeev Kumar Singh Chauhan

हिंदुस्तानी सेना का निडर सिपाही. गरीबों का फ्री का डॉक्टर. फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला ठाकुर लड़का. महज इंटरमीडिएट पास बेहद शांत प्रकृति का छात्र. खुद की जिंदगी पर बनी मुंबईया फिल्म और खुद ही उसमें कलाकार. जेपी यानि जयप्रकाश नारायण जैसी भारत की प्रतिष्ठित शख्सियत को उन्हीं के मुंह पर डाकू कह देने की हिम्मत रखने वाला, चंबल के जंगल में अपनी ‘सरकार’ चलाने वाला.... ये तमाम खूबियां मौजूद रहने वाले किसी एक इंसान से कभी आपका ‘पाला’ पड़ा है? हो सकता है कि आपका पाला ऐसे इंसान से नहीं पड़ा होगा. ‘संडे क्राइम स्पेशल’ की खास कड़ी में इस बार मैं आपको रूबरू करा रहा हूं एक ऐसी ही अजूबा शख्सियत की हकीकत से जो खुद आज इस दुनिया में नहीं है.

आगरा जिले का गांव घगरैना की गढ़िया


उत्तर-प्रदेश का गांव घगरैना की गढ़िया (बघेना) स्थित है विकास खंड पिनहाट, थाना-वासौनी, आगरा जिले की तहसील बाह में इसी गांव के मूल बाशिंदे पोप सिंह भदौरिया के घर में जन्मे थे पांच बच्चे. तीन लड़के (भगवान सिंह, भैरों सिंह और माधव सिंह) और दो लड़कियां (गोमावती और पार्वती). पोप सिंह के बेटे माधव (माधो) का जन्म जन्माष्टमी वाले दिन हुआ था. बाद में माधव सिंह की शादी हुई विमला देवी से जिनकी 6 संतानें हुई. निर्मला, ऊदल सिंह, हरिभान सिंह, शीला देवी, सहदेव सिंह और सुधा यही 6 संतानें थी. पोप सिंह भदौरिया की संतानों में तीसरे नंबर का बेटा माधव सिंह इंटर पास कर चुका था. सौम्य स्वभाव का माधव फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने में माहिर था. 1954 में माधव सिंह सेना में सिपाही भर्ती होने के बाद हवलदार बन गया. पोस्टिंग राजपूताना राइफल्स की 17वीं बटालियन की मेडिकल-कोर में मिली. माधव के बेटे सहदेव सिंह भदौरिया के मुताबिक, ‘भारतीय फौज में पिता माधव सिंह का सीरियल नंबर 2842905 था. सेना में जाने से पहले ही साल 1950 में उनकी (पिता माधव सिंह) की शादी विमला देवी से हो चुकी थी.

शोहरत ने सियासत में फंसवा डाला

माधव सिंह के बेटे सहदेव सिंह बताता हैं ‘पिताजी के ठाठ-बाठ गांव के कुछ लोगों को हजम नहीं हो रहे थे. रही-सही कसर पूरी हो गई जब वे सेना में भर्ती हो गए. साल 1959 में यूपी में प्रधानी के चुनाव का वक्त था. इलेक्शन को लेकर गांव-गांव में पार्टी-बंदी शुरू हो चुकी थी. पिताजी उन्हीं दिनों सेना से 15 दिन की छुट्टी पर गांव आए हुए थे. मौका पाकर विरोधियों ने नबंवर 1959 में पिता के खिलाफ थाना पिनहट में झूठा मुकदमा दायर करा दिया. उसी दौरान पिताजी ने सेना से इस्तीफा दे दिया और फिर घर लौट आए. जहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. कुछ दिन जेल में काटकर पिताजी बाहर आ गए.’

अपनी पत्नी के साथ सहदेव सिंह

सेना का हवलदार गरीबों का डॉक्टर बन गया

जेल से बाहर आने के बाद माधव सिंह ने पैतृक गांव के पास ही स्थित गांव भदरौली में क्लिनिक खोल कर डॉक्टरी शुरू कर दी. सेना के मेडिकल कोर का अनुभव बहुत काम आया. दुश्मनों को यह भी नहीं पचा. विरोधी उग्र हुए तो बे-वजह ही रोज-रोज झगड़े होने लगे. खुद ही दुश्मन बढ़ते गए. चंबल घाटी में उन दिनों थाना पोरसा गांव दर्गदास की गढ़ी के मूल निवासी बागी/डाकू मोहर सिंह तोमर की तूती बोलती थी. वो तीन साल से बागी थे. मोहर सिंह डाकू अक्सर चोरी-छिपे इलाज के लिए माधव सिंह के पास आया करते थे. गांव की ओछी राजनीति के बारे में माधव सिंह से मोहर सिंह को पता चला.

डाकू की गोली ने डॉक्टर को ‘डाकू’ बना डाला

एक दिन मोहर सिंह तोमर डाकू के हुक्म पर गांव में माधव सिंह को न्याय दिलवाने के लिए पंचायत बैठी. पंचायत में माधव सिंह पक्ष के एक आदमी के हाथ-पैर तोड़ दिए गए. इससे बौखलाये चंबल के खूंखार डाकू मोहर सिंह तोमर ने भरी पंचायत में गोलियां झोंक दीं. जिसके बाद पुलिस ने पूर्व फौजी माधव सिंह और उसके पक्ष के घायल शख्स को ही मामले में मुजलिम बना डाला. अब तक डाकू मोहर सिंह तोमर ने माधव सिंह से यह बात छिपाकर रखी कि वह ही चंबल घाटी के खूंखार डाकू/बागी मोहर सिंह तोमर हैं. बात खुली तो मोहर सिंह ने माधव सिंह को मशविरा दिया कि वो वापस जाकर सेना की नौकरी करे. गांव में दुश्मनों को वो (डाकू मोहन सिंह तोमर) खुद ही निपटा देंगे. माधव ने मोहर सिंह की बात नहीं मानी. लिहाजा मोहर सिंह से जिद करके उन्हीं के साथ माधव सिंह भी बंदूक लेकर चंबल के जंगल में बहैसियत-बागी (डाकू) उतर गए.

माधव सिंह

एक रात में पुलिस को परोसीं तीन दुश्मनों की लाशें

चंबल के बीहड़ में उतरने के बाद माधव सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. भादों की एक रात वे हथियार के साथ गांव में पहुंचे. जहां उन्होंने चंद लम्हों में तीन दुश्मनों की लाशें पुलिस की झोली में फिंकवा दीं. इसके डेढ़ साल बाद ही माधव ने गांव में घुसकर चार और दुश्मनों को गोलियों से छलनी करके पिछला बकाया सब हिसाब बराबर कर लिया. माधव सिंह के बेटे सहदेव सिंह ने बेबाक बातचीत में बताया, ‘साल 1964-65 तक पिताजी ने अपने सब दुश्मन निपटा दिए. आठ दुश्मनों के नाम मुझे अब भी याद हैं. पिताजी को बस दुख इस बात का हुआ कि जब उन्होने (माधव सिंह ने) अपने सब दुश्मन निपटा दिए और जब वक्त चंबल में अपना और डाकू मोहर सिंह तोमर का सिक्का चलाने का आया तो 1965 के अंत में मुरैना में हुई मुठभेड़ में मध्य प्रदेश पुलिस ने मोहर सिंह तोमर को मार डाला. उस मुठभेड़ में पिताजी खुद भी साथ थे. यह अलग बात है कि मोहर सिंह की मौत के बाद उनके छोटे भाई निहाल सिंह तोमर ने गैंग की बागडोर संभाल ली.’

पुलिस की गोलियों से घायल डाकूओं का डॉक्टर

मोहर सिंह तोमर की मौत का दुख मनाने के बजाए बागी माधव सिंह ने दुबारा खड़ा होना ज्यादा मुनासिब समझा. अब तक कई और गैंग भी माधव सिंह और उनके काम को ‘सलाम’ बजाने लगे थे. पुलिस मुठभेड़ों में घायल डाकूओं के फ्री और बेहतरीन इलाज से मिले फायदे से दुश्मन डाकू गैंग भी माधव सिंह के मुरीद हो गए. फिरंगी डाकू ने तो खुद ही अपने गैंग का माधव सिंह को मुखिया करार दे डाला. यह चंबल के जंगल में किसी डकैत या बागी के लिए सम्मान और रुतबे की बात थी. अब तक माधव के आतंक से खार खाए बैठी मध्य प्रदेश पुलिस ने उनके सिर पर उस जमाने का सबसे मंहगा इनाम यानि 50 हजार रुपए रख दिया. तब तक माधव सिंह गैंग में खूंखार डाकूओं की संख्या भी बढ़कर 40-45 से 75-80 हो चुकी थी.

माधव सिंह

डाकू ने ‘डाकू’ को जब पुलिस से लूटी राइफल भेंट की

चंबल में जब माधव सिंह की ‘सरकार’ का सिक्का चला तो, लाचार-बेबस पुलिस में कोहराम मचना लाजिमी था. उसी दौरान चंबल घाटी के खूंखार डाकू जंगा सिंह ने माधव सिंह के आतंक से खुश होकर उन्हें एक ‘थ्री-नॉट-थ्री’ जैसी घातक पुलिसिया-राइफल बतौर इनाम भेंट की. माधव सिंह के बेटे सहदेव सिंह के मुताबिक ‘दरअसल, वो राइफल कई दिन-रात चली खूनी मुठभेड़ में डाकू जंगा सिंह के हाथ लगी थी. पिता के आतंक उनकी ईमानदारी और अचूक निशानेबाजी से बागी जंगा बहुत खुश रहते थे. सो जंगा ने अपनी सबसे चहेती वो राइफल पिता जी को सौंप दी. हालांकि पिताजी के हाथों में उस जमाने में भी चंबल की सबसे घातक 555 बोर की राइफल मौजूद रहती थी.’

नत-मस्तक रहती थी माधव के सामने पुलिस

पुलिसिया रिकॉर्ड और माधव सिंह के परिजनों के मुताबिक, ‘पुलिस और दुश्मनों से हिसाब बराबर करने की कसम खाकर जब माधव सिंह बंदूक लेकर जंगल में कूदे तो उस वक्त उनके गैंग के पास 28 सेल्फ लोडेड जैसी घातक राइफल (SLR), 14 स्टेनगन, 306 बोर के 8 ‘अप्सरा-विदेशी-माउजर’ मौजूद थे. उस जमाने में पुलिस इनमें से कई हथियारों के नाम तक अपनी जुबान से ठीक-ठीक बोल पाना नहीं सीख पाई थी. उन हथियारों को पुलिस के जरिए चलाने का सलीका होने तो दूर की कौड़ी थी. पुलिस वालों ने इन हथियारों की कभी शक्ल तक नहीं देखी थी. माधव सिंह के बेटे सहदेव सिंह के मुताबिक, ‘उस जमाने में पिता जी (माधव सिंह) का इकलौता और पहला चंबल घाटी का ऐसा गैंग था, जिसके पास लाइट मशीनगन यानि LMG जैसा जानलेवा हथियार मौजूद था. उन दिनों पुलिस के पास एलएम जी भी नहीं हुआ करती थी. उन दिनों मेरी उम्र रही होगी यही कोई 7-8 साल की.’

माधव सिंह का मकान

चंबल के जंगल से अमृतसर की कोठी तक

‘पिताजी से चंबल के जंगलों में हम लोग रात-बिरात या फिर हाड़तोड़ शीतलहर और घने कोहरे के दिनों में पुलिस-पीएसी से छिपते-छिपाते मिलने जाते थे. पिताजी के जंगल में उतरने के बाद हम लोग महीनों पहचान छिपाकर किराए के मकानों में रहे. उसके बाद अमृतसर (पंजाब) में कश्मीर रोड पर 8-10 किलोमीटर दूर स्थित बेरखा इलाके के बराबर मौजूद धूपसिड़ी गांव में कोठी बना ली. वहीं जाकर अपनी पहचान छिपाकर रहने लगे. सही पूछो तो हमारी पत्नी-बच्चों और गांव वालों ने पिताजी को सही तरीके से तो सरेंडर से ठीक पहले ही देखा था.’

जब चंबल की जिंदगी से ऊब गया ‘सरकार’

11 साल चंबल में खुद की ‘सरकार’ चलाने वाले माधव सिंह 23 हत्याएं और 500 से ज्यादा अपहरण का बोझ सिर पर लादे-लादे फिरते हुए आखिरकार एक दिन थक गए. यह बात है साल 1970 के आसपास की थी. माधव सिंह को लगा कि अब चंबल की खून-खराबे वाली दुनिया को अलविदा कर देना चाहिए. हालांकि ‘सरेंडर’ का कोई रास्ता उनके पास नहीं था. उन्हीं दिनों उन्होंने चंबल के बियाबान जंगल में (मुरैना के गसबानी-विजयपुर के आसपास) भगवत कथा का विशाल आयोजन भी किया. जो पुलिस के लिए आज तक चंबल घाटी में किसी बागी या डाकू की सबसे बड़ी और खुली चुनौती साबित हुई. भागवत कथा लगातार 7 दिनों तक धड़ल्ले से चली. चंबल के करीब 600 बागी-डाकू कथा सुनने पहुंचे. 6000 से ज्यादा लोगों की दावत की गई. दावत खाने वालों में प्रमुख पुलिस के खिलाफ डाकूओं को खबरे पहुंचाने वाले ‘मुखबिर-खास’ और उनके परिजन थे.

चंबल घाटी का जंगल

फिर भला बेवजह बेकसूरों का खून क्यों?

चंबल घाटी के पूर्व दस्यु सम्राट और चंबल के बियाबान बीहड़ में अपनी ‘सरकार’ कायम करने वाले बागी माधव सिंह के पुत्र सहदेव सिंह आगे बताते हैं कि, ‘दरअसल दुश्मनों को निपटाने के बाद पिताजी का मन खून-खराबे से ऊबता जा रहा था. वे बेवजह किसी का खून बहाना नहीं चाहते थे. चंबल में कूदने का उनका मकसद पूरा हो चुका था. साथ ही उन्हें लगा कि वक्त रहते अगर उन्होंने खुद के कदम चंबल के जंगलों से पीछे नहीं लौटाए तो आने वाली पीढ़ियां भी तबाह हो जाएंगी. चंबल के दबंग बागी मान सिंह राठौर की मौत के बाद सान 1961 में विनोबा भावे के सामने 10-12 डाकूओं का सरेंडर वो देख चुके थे. इन्हीं तमाम सवाल-जवाबों के बीच उतराते-डूबते पिताजी ने धीरे-धीरे खूनी दुनिया से बाहर निकलने के रास्ते खोजने शुरू कर दिए थे.’

‘सरेंडर’ के लिए एक देहरी से दूसरी देहरी तक भटके

साल 1971 के अक्टूबर-नवंबर महीने की बात रही होगी. बड़े दामाद हवलदार सिंह राजकुमार (बेटी निर्मला के पति, जिनकी 12-13 साल पहले मौत हो चुकी है) को साथ लेकर एक दिन माधव सिंह लोक नायक जय प्रकाश नारायाण (जेपी) के पास जंगल में लकड़ी काटने वाला ठेकेदार बनकर पटना जा पहुंचे. जेपी से बोले कि चंबल के कुछ डाकू सरेंडर करना चाहते हैं. जेपी ने टाल-मटोल करके उन्हें विनोबा भावे के पास उनके वर्धा आश्रम में भेज दिया. विनोबा जी ने कहा कि हम शांति तो चाहते हैं मगर बुढ़ापे में डाकूओं को सरेंडर कराने का इंतजाम वे (भावे जी) नहीं कर सकते हैं. इस जिम्मेदारी को जेपी ही बेहतर तरीके से सिर-ए-अंजाम चढ़ा सकते हैं. तब जेपी ने उस वक्त मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रकाश चंद सेठी और श्रीमती इंदिरा गांधी से मशविरा किया.

चंबल नदी

जेपी से बोले, ‘आप भी तो कभी बागी-डाकू थे!’

कुछ दिन बाद दूसरी मुलाकात में जेपी ने लकड़ी ठेकेदार बनकर सामने बैठे चंबल के बागी माधव सिंह से कहा कि, ‘डाकूओं की जुबान का कोई भरोसा नहीं होता है. सबको अगर सरेंडर करवा सको तो बात आगे बढाई जाए. मैं भला तुम अजनबी पर ऐसे ही कैसे विश्वास कर लूं?’ बकौल सहदेव सिंह, ‘जेपी को आशंकित देखकर पिताजी (बागी माधव सिंह) ने बेखौफ खोल डाला कि वे खुद ही हैं डाकू माधव सिंह. यह सब खुलासा सुनकर और पिताजी (बागी माधव सिंह) को सामने देखकर जेपी के माथे पर पसीने की बूंदें आने लगीं. पिताजी ने जेपी से कहा कि अंग्रेजों से लोहा लेने के वक्त और आजादी की लड़ाई में सुभाष बाबू (नेताजी सुभाष चंद बोस) का साथ देने के वक्त अंग्रेजों की नजर में आप भी तो ‘बागी और डाकू’ ही थे. साल 1947 के आसपास अंग्रेजी हुकूमत ने आपके सिर पर भी तो 5000 का इनाम रखा था. फिर आपको चंबल के मुझ बागी/डाकू पर आखिर विश्वास क्यों नहीं हो रहा है?’

जेपी, जौरा और चंबल के जंगल का ‘जबर’

14 और 16 अप्रैल साल 1972 को आखिरकार डाकू माधव सिंह ने जिला मुरैना के जौरा में 521 बागी/ डाकूओं के साथ जेपी की मौजूदगी में सरेंडर कर दिया. जिन डाकूओं के साथ माधव सिंह ने जौरा में एतिहासिक सरेंडर किया उनमें मोहर सिंह गुर्जर, हरि विलास सिंह, मनीराम सिंह, माखन सिंह, छिद्दा, दतिया के राम स्वरूप उर्फ सरुआ, सरू सिंह प्रमुख थे. यह वही माधव सिंह डाकू थे जो खुद पर बनी फिल्म में खुद ‘हीरो’ भी बने. 10 अगस्त साल 1991 को लंबी बीमारी के बाद माधव सिंह का मध्य-प्रदेश के मुरैना जिला मुख्यालय में रहते हुए निधन हो गया. जबकि उनकी पत्नी विमला का देहांत अब से करीब 7 साल पहले ही हुआ है. माधव सिंह के बारे में कहा जाता है कि सरेंडर के बाद वे एक भी दिन बंद जेल की चार-दिवारी में कैद नहीं रहे.

(लेखक वरिष्ठ खोजी पत्रकार है. कहानी माधव सिंह के बेटे सहदेव सिंह से हुई बातचीत पर आधारित है. लेखक और फ़र्स्टपोस्ट हिंदी किसी भी बयान या दावे अथवा तथ्य की पुष्टि नहीं करते हैं. डाकू माधव सिंह द्वारा जेपी के सामने सरेंडर किये जाने के वक्त उनके बेटे सहदेव की उम्र महज 8-9 साल थी)