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उत्तर प्रदेश के मदरसों में है बदलाव की तैयारी

मदरसों की शिक्षा पद्धति में कई स्तरों पर सुधार की जरूरत है

Nazim Naqvi

बड़े बहुमत के साथ सरकार बनाना किसी राजनैतिक दल के लिए जश्न मनाने जैसा हो सकता है लेकिन उसके साथ ही बड़ी चुनौतियां भी सामने खड़ी हो जाती हैं. लगभग 6 महीने पहले जब उत्तर-प्रदेश में योगी सरकार बनी तो उसने भी कुछ साहसिक फैसले लेने शुरू किये. कुछ की तारीफ हुई तो कुछ का (जैसे एंटी-रोमियो स्क्वाड, पान-गुटखा प्रतिबन्ध, समय का पालन), मजाक भी उड़ा.

उत्तर-प्रदेश जैसा बहुमत सरकार को सुधारवादी बनने पर भी मजबूर करता है. गड्ढा-मुक्त प्रदेश, गैर सरकारी बूचड़-खाना मुक्त प्रदेश, किसान कर्ज माफी, महापुरुषों के नाम पर छुट्टियों की छुट्टी जैसे फैसले इसी सुधारवादी सोच का ही नतीजा हैं. इन्हीं फैसलों में एक अहम् फैसला ये है कि प्रदेश के मदरसों को भी इस लायक बनाया जाय कि वह देश के विकास में तालीम का उजाला ला सकें.


इस फैसले के तहत, पिछले महीने 18 अगस्त को, सरकार ने ‘यू.पी. बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन’ नाम से एक वेबसाइट लॉन्च की. उद्देश्य था मदरसा-शिक्षा को आधुनिक और पारदर्शी किया जा सके. वेबसाइट के लॉन्च के बाद सभी मदरसों को आदेशित किया गया कि वह एक तय सीमा तक (इसे अब 15 दिन के लिए बढ़ा कर, 30 सितम्बर किया जा चुका है), अपनी जानकारियां, वेब-पोर्टल पर ले आएं ताकि मदरसों में हो रही अनियमितताओं को रोका जा सके और उनमें गुणात्मक सुधार लाया जा सके.

ये सब उस समुदाय की तालीम को व्यवस्थित करने के लिए हो रहा है जिसके सबसे बड़े मार्ग-दर्शक (मोहम्मद साहब) कहते हैं – ‘पालने से कब्र तक ज्ञान प्राप्त करते रहो’. जो मार्ग-दर्शक अपने समर्थकों के बीच इल्म का पौधा ये कहते हुए लगा रहा हो कि पालने से कब्र तक इल्म हासिल करो और फिर सिर्फ इतना ही नहीं, ये भी कह रहा हो, ‘ज्ञान प्राप्त करो चाहे इसके लिए तुम्हें चीन ही क्यों न जाना पड़े’, कई सवाल उठता है.  .

सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि इस मुस्लिम समुदाय के बारे में आम राय ये है कि उसने खुद को धर्म-ग्रंथों में इस तरह बंद कर लिया है कि वह उससे आगे, यानी तालीम के दूसरे स्रोतों की तरफ देखना भी नहीं चाहता. उसका मानना है कि उसके पास जो उसका धर्म-ग्रन्थ यानी कुरआन है वही उसकी (दुनिया और दीन), सब ज़रूरतों को पूरा करता है और काफी है.

हम आज कुछ बुनियादी बातों पर गहराई से सोचने की कोशिश करेंगे लेकिन उससे पहले इस आम-राय को खारिज करना बहुत जरूरी है. हमारा निश्चित तौर पर यह मानना है कि मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा इस आम-राय को नहीं मानता. और उसके लिए सीधी दलील ये है कि जिस समुदाय के रहनुमा ने, जिसे ईश्वर ने अपने सन्देश पहुंचाने के माध्यम चुना था, वो अपने माननेवालों से ज्ञान के बारे में ऊपर लिखी जो बातें कह रहा हो, वह समुदाय कैसे अपने रहनुमा की बातों को नजरंदाज कर सकता है.

जाहिर है कि बात उत्तर-प्रदेश के एक सरकारी फरमान से शुरू हुई है तो इसके दायरे में भारतीय मुसलमान ही है, न कि दुनिया का मुसलमान और जब हम भारतीय मुसलमान के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हमारी मुलाकात 18वीं और 19वीं सदी के उस मुस्लिम-समुदाय से होती है जो अंधेरों में लिपटा, एक किस्म की अस्पष्टता और जड़ता में डूबा हुआ है. उसमेंने आपको मध्ययुगीन खांचे से बाहर निकालने की कोई ख्वाहिश भी नहीं दिखाई देती.

उसके बाद हमारी मुलाकात सर सय्यद जैसे सुधरवादियों से होती है जो अंग्रेजी का विरोध कर रहे मुल्लाओं के ताकतवर तंत्र के सामने तालीम का चिराग लिए खड़े हैं और समुदाय में ज्ञान का सुधार करने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं.

यूपी के शामली में एक अस्थायी मदरसे में पढ़ते हुए मुस्लिम लड़कियां

शायद कम लोगों को पता होगा कि जिस स्कूल की नीव सर सय्यद ने 1875 डाली, उसे चलाने के लिए उन्हें जन-सहयोग के चंदे पर निर्भर रहना पड़ा. उन्होंने, उनके पास जो कुछ था उसे तो दान कर ही दिया लेकिन ज्ञान के लिए किसी भी रूप में चंदा इकठ्ठा करने की ठान ली. उन्होंने लाटरी खुलवाई, सड़कों पर नाटक किये और यहां तक कि रेड-लाइट एरिया में भी जाने में कोई शर्म महसूस नहीं की. उस समय खास मुसलमानों के लिए शुरू किये गए स्कूल में हिन्दूओं ने भी दिल खोल कर सहयोग दिया और जगह-जगह उनका शुक्रिया भी सर सय्यद अहमद ने किया.

दूसरी तरफ मुल्ला वर्ग था जो समझता था कि सर सय्यद कौम को बर्बाद कर रहे हैं. उनके खिलाफ फतवों की भरमार लग गयी. इसमें ऐसे फतवे भी थे जो चाहते थे कि सर सय्यद तालीम के नाम पर जो शैतानी काम कर रहे हैं उसके जुर्म में उनकी गर्दन काट ली जाए.

योगी सरकार ने जब मदरसा शिक्षा में पारदर्शिता लाने के लिए वेबसाइट को लॉन्च किया तो हमें 2009 के वह विरोध याद आ गए जो मदरसा चालकों ने उस समय किये थे कि यह कदम उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप माने जायेंगे. यह विरोध मानव-संसाधन मंत्रालय के 2009 में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की ही तरह मदरसा बोर्ड गठित करने के फैसले पर आधारित था.

हिन्दुस्तान के पहले शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जिन्होंने करीब एक दशक तक भारतीय शिक्षा पद्धति को सींचा-संवारा, मदरसे की शिक्षा को लेकर उदासीन रहा करते थे. वह कहा करते थे कि किसी मदरसे में 14 साल गुज़ारने के बावजूद कोई बच्चा दस लाइनें तक नहीं लिख सकता और जो अरबी ये बच्चे पढ़ते हैं, उसे कोई अरबवासी सही अरबी भी नहीं कह सकता. मौलाना आज़ाद जिनकी पहली भाषा अरबी थी और जिनका जन्म मक्के में हुआ था, मदरसों की तालीम को करीब से देख रहे थे.

एक सूचना के मुताबिक उत्तर-प्रदेश में 19 हजार मान्यता प्राप्त मदरसे हैं. इनमें से लगभग 4,600 मदरसे वह हैं जिन्हें सरकार की तरफ से आंशिक-वित्तीय मदद मिलती है और सिर्फ 56 मदरसे ऐसे भी हैं जो पूरी तरह सरकारी अनुदान पर खड़े हैं.

सरकार के इस फैसले पर मदरसा संचालकों की मिलीजुली प्रतिक्रिया है. कुछ इसे तिरछी नज़र से देख रहे हैं, उन्हें लगता है कि सरकार दबाव बनाकर उनका आधुनिकीकरण कर रही है और इस तरह उनपर निगरानी रखना चाहती है. जबकि कुछ लोग इसे सरकार का एक सकारात्मक कदम मान रहे हैं. ‘मदारिस अरबिया शिक्षक-संघ’ (मदरसा शिक्षकों का संघ) के प्रमुख सचिव दीवान सहाब जमां कहते हैं- ‘यह एक अच्छा कदम है सभी प्रासंगिक जानकारियां एक जगह साझा करने से इनके संचालन में पारदर्शिता आएगी’. हालांकि यह वेबसाइट अभी खुद भी, तकनीकी अड़चनों से जूझ रही है.

पिछली 15 अगस्त को इन पंक्तियों का लेखक लखनऊ से फैजाबाद जा रहा था और रास्ते में दो तीन मदरसों में ध्वजारोहण की तैयारियों का गवाह बना. ये उस आदेश का पालन हो रहा था जिसमें उनसे कहा गया था कि वह अपने मदरसों में झंडा फहराएं और उसकी विडिओ रिकॉर्डिंग करके शासन को भेजें. उसके बाद जिस तरह से मदरसों की जानकारियों को ऑनलाइन किया जा रहा है और उसमें मदरसे जो सहयोग कर रहे हैं वह एक अच्छा कदम है.

लेकिन इसी के साथ योगी सरकार को ये भी देखना चाहिए कि सिर्फ पारदर्शिता लाने से कुछ नहीं होगा जब तक कि मदरसों के सञ्चालन में राज्य की आर्थिक भूमिका नहीं होगी. राज्य के नौ हजार मदरसों में से सिर्फ साढ़े चार हजार मदरसों को आंशिक वित्तीय सहायता या सिर्फ 56 मदरसों का सौ फीसदी आर्थिक बोझ उठाना, कोई बड़ा कीर्तिमान नहीं हैं. योगी कई मौकों पर ‘सबका साथ- सबका विकास’ का नारा दोहरा कर ये साबित कर चुके हैं कि मोदी के विजन को आगे बढ़ाना उनका पहला मकसद है.

इसमें कोई शक नहीं है कि अगर मदरसों में मजहबी तालीम के साथ साइंस और टेक्नोलोजी को भी जोड़ दिया जाएगा तो उसे पढ़ाने के लिए लायक शिक्षक भी देने होंगे. और वह माहौल भी जिसमें एक बच्चा खुले दिमाग से पढ़ सके. इसमें सरकार और समाज दोनों की ही ज़िम्मेदारी बराबर की है.