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काशी के रास्ते जल्द मिलेंगे नए शंकराचार्य

शंकराचार्य के पद के लिए लंबे समय से चले रहे विवाद का अंत वाराणसी से निकलने के संकेत नजर आ रहे हैं

Utpal Pathak

एक तरफ जहां उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में राज्य और केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा दांव पर है वहीं दूसरी तरफ एक ऐसा चुनाव होने वाला है जहां न कोई वोटर है और न ही प्रत्याशी लेकिन इस चुनाव की प्रक्रिया देश के किसी अन्य चुनाव से अधिक जटिल है. यह चुनाव है ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य का और इस प्रक्रिया में न सिर्फ काशी की भूमिका महत्वपूर्ण है बल्कि चयन से संबंधित अन्य बिंदु भी काशी से ही निबंधित होने हैं.

क्या है पूरा मामला


आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में एक उत्तराखंड के जोशीमठ की ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी को लेकर विवाद देश की स्वाधीनता के तुरंत बाद से ही शुरू हो गया था. यह विवाद सबसे पहले वर्ष 1960 में एक निचली अदालत में दाखिल हुआ और उसके बाद से यह मामला अलग-अलग अदालतों में चला.

उत्तराखंड की ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य विष्णुदेवानंद के निधन के बाद 1989 में वासुदेवानंद और स्वरूपानंद के बीच उत्तराधिकार का विवाद पैदा हुआ. 8 अप्रैल, 1989 को ज्योतिषपीठ के वरिष्ठ संत कृष्णबोधाश्रम की वसीयत के आधार पर स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने खुद को शंकराचार्य घोषित कर दिया. दूसरी तरफ शांतानंद ने 15 अप्रैल, 1989 को स्वामी वासुदेवानंद को शंकराचार्य की पदवी दे दी जिसके बाद वासुदेवानंद अदालत चले गए.

स्वरूपानंद सरस्वती

1989 में स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती द्वारा इस गद्दी पर बैठने के बाद द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने उनके खिलाफ इलाहाबाद की अदालत में मुकदमा दाखिल किया और उन्हें हटाए जाने की मांग की. लंबा समय बीतने के बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद इलाहाबाद की जिला अदालत में लगभग 3 साल पहले इस मामले की सुनवाई दैनिक रूप से चलनी शुरू हुई थी. स्वामी वासुदेवानंद करीब 27 वर्षों तक ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य पद पर बने रहे.

ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी को लेकर करीब 27 साल तक चले इस मुकदमे की कार्यवाही में निचली अदालत के सामने दोनों तरफ से लगभग पौने दो सौ गवाहों को पेश किया गया था. इलाहाबाद की जिला अदालत ने 5 मई, 2015 को स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के हक में अपना फैसला सुनाया था और 1989 से इस पीठ के शंकराचार्य के तौर पर काम कर रहे स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की पदवी को अवैध करार देते हुए उनके काम करने पर पाबंदी लगा दी थी.

इस अदालत के सिविल जज सीनियर डिवीजन गोपाल उपाध्याय की कोर्ट ने 308 पन्नों के फैसले में स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की वसीयत को फर्जी करार दिया था. निचली अदालत के इस फैसले के खिलाफ स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दाखिल की थी. इसके बाद शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने भी एक अर्जी दाखिल की और प्रार्थना पत्र में कहा कि उनकी उम्र 92 साल हो गई थी, इसलिए वह चाहते हैं कि उन्हें इस मामले में जीवित रहते इंसाफ मिल जाए और मामले का निपटारा हो जाए.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने पिछले साल कई महीने तक इस मामले की सुनवाई डे-टू-डे बेसिस पर की थी. डिवीजन बेंच ने इस मामले में सुनवाई पूरी होने के बाद इसी साल 3 जनवरी को अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया था. जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस के जे ठाकुर की डिवीजन बेंच ने स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और स्वामी वासुदेवानंद को इस पीठ का शंकराचार्य मानने से इनकार करते हुए उन दोनों का दावा खारिज कर दिया.

इस मामले में हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि वासुदेवानंद सरस्वती ने संन्यास नहीं लिया था और वो सरकारी नौकरी में कार्यरत थे जिसमें उनको वेतन भी मिल रहा था. बेंच ने यह भी कहा कि 12 जून, 1953 तक पीठ में शांतानंद सरस्वती शंकराचार्य बने. पद खाली नहीं था जिसकी वजह से कृष्ण बोधाश्रम को शंकराचार्य घोषित करना भी अवैध था. इसके बाद 15 जनवरी, 1970 में सिविल विवाद में शांतानंद सरस्वती को वैधता मिल गई थी.

इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्वामी कृष्णबोधाश्रम के बाद स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को शंकराचार्य बनाना पद खाली न होने की वजह से वैध नहीं माना और कहा कि इसलिए स्वामी शांतानंद के पद छोड़ने के बाद स्वरूपानंद सरस्वती का शंकराचार्य बनना अवैध है. बेंच ने यह भी आदेश दिया कि स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के छत्र चंवर सिंहासन धारण करने पर लगी रोक भी जारी रहेगी.

हाईकोर्ट ने दोनों संतों की इस पद के लिए हुई नियुक्ति को गलत माना है और 3 महीने में परंपरा और पूर्व नियोजित प्रक्रिया के तहत नया शंकराचार्य चुनने को कहा है. तब तक स्वामी स्वरूपानंद ही इस पद को संभालेंगे. इस प्रक्रिया में वर्ष 1941 की चयन प्रक्रिया का पालन होना है.

शंकराचार्य बनने की योग्यता... 

देश की चारों पीठों पर शंकराचार्य की नियुक्ति के लिए यह योग्यता होनी जरूरी है-

- त्यागी ब्राम्हण हो

- ब्रम्हचारी हो,

- डंडी सन्यासी हो,

- संस्कृत, चतुर्वेद, वेदांत और पुराणों का ज्ञाता हो,

- राजनीतिक न हो.

कौन करेगा चुनाव 

अब नियमतः और शास्त्रोक्त पद्धति का पालन करते हुए तीनों पीठों के शंकराचार्य से परामर्श लेने के बाद काशी विद्वत परिषद और भारत धर्म महामंडल मिलकर नए शंकराचार्य का नाम तय करेंगे.

1- श्री भारत धर्म महामण्डल

वर्ष 1901 में स्थापित श्री भारत धर्म महामंडल की ओर से तीनों शंकराचार्यों को मार्गदर्शन लेने के आशय से निवेदन पत्र भी भेजा गया है. संस्था के वर्तमान सचिव डॉ. शंभू उपाध्याय ने बताया, 'ज्योतिष पीठ पर खाली हुए शंकराचार्य के पद की चयन प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए हमारी ओर से एक अखिल भारतीय बैठक का आयोजन अगले हफ्ते सुनिश्चित है, हमने अभी हाल ही में परामर्श के लिए पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी से भी मुलाकात की थी. अगले हफ्ते मध्य प्रदेश के जबलपुर में स्वामी स्वरूपानंद जी से भी भेंट होने की प्रबल संभावना है. जो कुछ भी होगा वो मार्गदर्शन और प्रक्रिया का पालन किए बिना नहीं होगा.'

वासुदेवानंद सरस्वती

हालांकि अभी तक इन पत्रों का जवाब किसी शंकराचार्य की तरफ से नहीं आया है लेकिन दूसरी तरफ संस्था के चीफ सेक्रेटरी प्यारे सिंह का कहना है, 'एक हफ्ते पहले तीनों पीठों को निवेदन पत्र भेजा गया है और उनसे योग्य नाम मांगा गया है. इसके अलावा अब पद्म पुरस्कारों से विभूषित लोगों और अन्य विद्वानों समेत संबद्ध संस्थाओं से भी नाम मांगे जाएंगे. हम इस प्रक्रिया के लिए हाईकोर्ट से समय दिए जाने का निवेदन भी करेंगे क्योंकि अब सिर्फ सवा महीने बचे हैं और इतने कम समय में चयन पूरा होना मुश्किल है.'

2- काशी विद्वत परिषद

हाईकोर्ट के निर्देश के बाद काशी विद्वत परिषद अब ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य के चयन के मुद्दे पर गंभीर है. परिषद के अध्यक्ष महामहोपाध्याय प्रो. रामयत्न शुक्ल ने बताया, 'परिषद की ओर से 28 नवंबर को एक महत्वपूर्ण बैठक का आयोजन है जिसमे नए शंकराचार्य के अभिषेक पर भी विचार मंथन होगा और एक नाम चयन किया जाएगा. उनका अभिषेक मठाम्नाय ग्रंथ के अनुसार ही होगा.'

विद्वत परिषद के मंत्री डॉ. रामनारायण द्विवेदी ने बताया, 'बैठक में एक नाम का चयन करके उसे तीनों पीठों के शंकराचार्य और भारत धर्म महामंडल को दिया जाएगा. उसके पश्चात एक विद्वत सभा में शास्त्रार्थ और अन्य नियमों का पालन करने के उपरांत नए शंकराचार्य का अभिषेक किया जाएगा.'

मठाम्नाय ग्रंथ : आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित यह ग्रंथ 'मठाम्नाय महानुशासनम' से ही शंकराचार्य संचालित होते हैं. इस ग्रंथ में शंकराचार्य की नियुक्ति प्रक्रिया के साथ उनकी योग्यता, उनकी शासन शैली और उनके द्वारा की गई किसी भी गड़बड़ी पर उन्हें हटाए जाने का भी जिक्र है.

राजनीति का समावेश 

हालांकि शंकराचार्य को राजनीति से दूर रहने की सलाह है लेकिन परोक्ष रूप से देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों का रुझान अलग-अलग पीठों पर देखा गया है. ऐसे में यह रुझान संतों को फायदा-नुकसान भी पहुंचाता है. इस उत्तराधिकार विवाद की बानगी अभी कुछ महीने पहले भी दिखी जब ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपने शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के साथ बद्रीनाथ धाम प्रवास के लिए गए थे.

उस दौरान वहां ज्योतिष पीठ का 2500वां महापर्व मनाया जा रहा था. स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद ज्योतिषपीठ बद्रीनाथ धाम में स्थित पूर्णागिरि देवी की पूजा-अर्चना करने गए, उस समय इस मंदिर पर ताला लगा हुआ था. स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने प्रशासन से ताला खोलकर पूजा-अर्चना करने का अनुरोध किया. प्रशासन ने मामला अदालत में चलने का तर्क दिया, इस पर वो मंदिर के सामने बेमियादी अनशन पर बैठ गए.

पूर्णागिरि मंदिर ज्योतिषपीठ का शंकराचार्य होने का दावा करने वाले स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के आधिपत्य में है. उनकी संघ से नजदीकियां जगजाहिर हैं और वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल से भी जुड़े हैं.

उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार होने के कारण प्रशासन का झुकाव स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की तरफ रहता है. लिहाजा मंदिर में पूजा करने के मामले में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और उनके शिष्य स्वामी अभिमुक्तेश्वरानंद सरस्वती को वापस लौटना पड़ा.

भले ही शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती इस आरोप को खारिज करते हैं लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का उनसे आशीर्वाद लेना पिछले कई दशकों से अनवरत जारी है. पूजा के मामले में उन्होंने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा था, 'इलाहाबाद की एक अदालत ने अपने फैसले में मुझे ही ज्योतिष पीठ बदरीनाथ का शंकराचार्य माना है, इसके अलावा राजस्व बोर्ड ने भी ज्योतिषपीठ बदरीनाथ धाम तथा पूर्णागिरि मंदिर को एक ट्रस्ट माना है. और इस ट्रस्ट में शंकराचार्य के रूप में उनका नाम है. इसलिए पूर्णागिरि मंदिर में पूजा करने का हमारा अधिकार है.'

उत्तराधिकार विवाद धर्म से उठ कर कोर्ट में पहुंचा और अब वापस धर्म के खेमे में भेज दिया गया है. देखना होगा कि इस बार शंकराचार्य के चुनाव में युक्ति या मुक्ति पर राजनीति का परोक्ष प्रभाव कितना है लेकिन एक बात तो तय है कि इस चुनाव में भी काशी की भूमिका सर्वोपरि है.