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राजनीति में क्यों हुए फेल करणी सेना प्रमुख कालवी!

बीजेपी हो चाहे कांग्रेस, कालवी के केंद्रीय नेताओं से बेहतर रिश्ते रहे लेकिन बात हर बार फैसलों पर बिगड़ गई

FP Staff

फिल्म 'जोधा अकबर' के विरोध से 'पद्मावती' के विरोध तक पूरे देश में एक चर्चित, लेकिन विवादित चेहरा बन चुके कालवी संभवतः राजस्थान में अकेले नेता हैं, जिनकी राजस्थान के हर गांव गलियारे में फैन फॉलोविंग ही नहीं, बल्कि वो खुद भी ज्यादातर गांवों में खुद दस्तक दे चुके हैं.

गांव-गांव तक कालवी के दौरों की शुरुआत हुई, सीकर में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की उस चुनावी सभा से, जिसमें जाट आरक्षण देने का वादा किया गया और आरक्षण दे भी दिया गया. वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार द्वारा लिए गए इस फैसले को मूल ओबीसी के हकों पर आघात मानते हुए कालवी ने सामाजिक न्याय मंच बनाया और राज्यभर में लाखों लोगों की रैली करने के साथ ही प्रदेश भर में सघन जन संपर्क अभियान भी शुरू किया गया.


'उपेक्षित को आरक्षण और आरक्षित को संरक्षण' के नारे के साथ 2003 में सामाजिक न्याय मंच ने 65 विधान सभा सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन कुल 2.2 फीसदी वोट लेकर कालवी के सामाजिक न्याय मंच से महज एक उम्मीदवार देवी सिंह भाटी ही चुनाव जीत सके बाकी 3 दूसरे और 15 तीसरे स्थान पर सिमट गए. कालवी उस वक्त बीजेपी से बगावत कर 'मंच' का चेहरा बने देवी सिंह भाटी के 'हनुमान' थे और भाटी कालवी के 'राम'.

पहले ही चुनाव में हार के बावजूद कई सीटों के समीकरण बदलने में कामयाब रहे भाटी-कालवी अपने मंच को मजबूत करने की कवायद में ही जुटे थे कि एक हादसे (देवी सिंह भाटी के पुत्र पूर्व सांसद महेंद्र सिंह भाटी की सड़क हादसे में मौत) ने सारे गणित बिगाड़ दिए. एक-एक कर अपने घर के तीन जनों पत्नी और दो पुत्रों को सड़क हादसों में गंवा चुके भाटी ने कालवी की सहमति से 'सामाजिक न्याय मंच' का विसर्जन किया तो कालवी ने अपनी करणी सेना बना, मोर्चा खोल दिया .

संसद जाना चाहते थे कालवी

महाराष्ट्र की शिवसेना की तर्ज पर बनी इस सेना में शनैः शनैः कम पढ़े-लिखे और आपराधिक अतीत वाले सैनिक जुड़े तो कालवी की पुरानी टीम खुद-ब-खुद दूर होती चली गयी. इस बीच कालवी के मंच से आगे बढ़े कई लोगों को टिकट भी मिली लेकिन कालवी सामाजिक न्याय मंच से लेकर करणी सेना तक के इस सफर में तमाम संपर्कों के बावजूद कभी सियासी नैया में सवार नहीं हो सके. वजह- कालवी सीधे संसद में जाना चाहते थे, पार्टियां उनका विधानसभा में उपयोग करने के पक्ष में रही. इससे पहले कालवी ने बतौर निर्दलीय और बीजेपी उम्मीदवार दो लोकसभा चुनाव भी लड़े. लेकिन जीत एक में भी नहीं मिली. बीजेपी हो चाहे कांग्रेस, कालवी के केंद्रीय नेताओं से बेहतर रिश्ते रहे. लेकिन बात हर बार फैसलों पर बिगड़ गई.

कालवी के समर्थक रहे एक नेता की निगाह में वजह हर बार एक ही रही कालवी दिमाग की बजाय फैसले दिल से लेते रहे और सियासत में जज्बातों का कोई अर्थ नहीं. वो कहते हैं- कालवी अपने पिता की ही तरह राजनीति के पक्ष में है, जिनके लिए राजनीति बाद में थी और समाज पहले. इतना ही नहीं, वो अपने पिता की तरह मृदुभाषी भी हैं तो वक्त जरूरत तीखे तेवर वाले भी.

(न्यूज18 हिंदी के लिए श्रीपाल शक्तावत की रिपोर्ट)