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शर्मनाक: मोदी की मौत की कामना करने वाले पत्रकार को मिला छद्म उदारवादियों का साथ

ऐसे लोगों का तो बस एक ही फॉर्मूला लगता है. तुम हमारे दोस्त हो तो तुम्हें हर हक हासिल है. और अगर तुम हमारे खेमे के नहीं हो, तो तुम्हें कोई अधिकार नहीं

Sreemoy Talukdar

देश में पत्रकारों की एक जमात है जो अभिव्यक्ति की आजादी को अपने बनाए एक खास चश्मे से ही देखना चाहती है. उनके लिए लिखने और बोलने की आजादी वो है, जैसा वो बोलना या लिखना चाहते हैं. कुछ खास बातों पर विरोध जताना वो अपना बुनियादी हक समझते हैं. मगर अभिव्यक्ति की आजादी के यही अलंबरदार तब बेहद खफा हो जाते हैं, जब लोग उनके मन-मुताबिक बातें नहीं करते. खुद को तरक्कीपसंद कहने वाली ये जमात फौरन ही अपने खिलाफ बोलने को नफरत की बोली करार दे देती है. हम सब ने इसकी बहुत बड़ी मिसाल पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद देखी.

सोशल मीडिया पर कुछ लोगों की गाली-गलौच के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार ठहराया गया. वजह ये बतायी गई कि प्रधानमंत्री इनको सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं. तुरंत ही पीएम मोदी को असहिष्णु करार दे दिया गया. किसी को ट्विटर पर फॉलो करने को नैतिकता से जोड़ दिया गया. ये ठीक उसी तरह से था जैसे कुछ लोग रामायण सीरियल देखते वक्त टीवी को फूल-माला चढ़ाया करते थे.


शुरुआत छोटे स्तर से हुई, मगर जल्द ही पीएम के ट्विटर फॉलोवर्स का मसला बड़े विवाद में तब्दील हो गया. जो लोग गौरी लंकेश के कत्ल के लिए संघ-बीजेपी पर आरोप लगा रहे थे, उन्होंने पीएम मोदी पर हमले शुरू कर दिए. पीएम मोदी की इस बात के लिए निंदा की गई कि वो उन लोगों को फॉलो करते हैं, जिन्होंने गौरी लंकेश की हत्या पर खुशी मनाई.

मगर, मोदी के ये विरोधी उस वक्त एकदम खामोश हो गए, जब उनकी जमात के ही एक शख्स ने पीएम मोदी को गाली देनी शुरू कर दी. उनकी मौत की ख्वाहिश जताने लगा. यहां हम खुद को पत्रकार कहने वाले एक शख्स सुप्रतीक चटर्जी की बात कर रहे हैं. सुप्रतीक कई पत्रिकाओं-अखबारों में लिखते हैं. उन्होंने पीएम मोदी के जन्मदिन के एक दिन बाद यानी 18 सितंबर को दो ट्वीट किए. एक और ट्वीट सुप्रतीक ने कुछ दिनों पहले किया था.

पहले ट्वीट में सुप्रतीक ने लिखा कि ये अच्छी बात है कि मोदी के रिटायरमेंट या मौत एक साल और करीब आ गई.

सुप्रतीक ने 15 मिनट बाद ही अपने दूसरे ट्वीट में लिखा कि मौत ही मोदी को रोक सकती है. जन्मदिन पर मुझे मोदी की मौत की ख्वाहिश जताने में कोई अफसोस नहीं.

वैसे सुप्रतीक के ये पहले दो ट्वीट कोई नई बात हों ऐसा नहीं था. वो पहले भी ऐसी नफरत भरी आग उगलते रहे हैं. कुछ साल पहले के अपने एक ट्वीट में सुप्रतीक ने नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रच रहे आतंकवादियों को शुभकामनाएं दी थीं.

साफ है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सुप्रतीक मोदी को अपनी नफरत का निशाना बना रहे हैं. वो भी पिछले कई साल से.

लेकिन खुद को तरक्कीपसंद कहने वाली जमात ने सुप्रतीक की बोली-भाषा पर एक बार भी ऐतराज नहीं जताया. वहीं जब 'द क्विंट' वेबसाइट ने सुप्रतीक से रिश्ता तोड़ लिया. उनके सारे लेख अपनी वेबसाइट से हटा लिए, तो लेफ्ट-लिबरल जमात के खेमे में शोर मच गया. सब ने एक सुर से द क्विंट की आलोचना शुरू कर दी. इन तथाकथित तरक्कीपसंद लोगों ने द क्विंट की पत्रकारिता की आजादी पर सवाल उठाए. आरोप लगाया कि सुप्रतीक के लेख हटाकर द क्विंट ने गलत मिसाल कायम की है.

द क्विंट के खिलाफ और सुप्रतीक के समर्थन में आए कुछ ट्वीट देखें, तो खुद ही लेफ्ट लिबरल जमात का दोहरा रवैया उजागर हो जाता है.

अमेरिका, जहां सुप्रतीक इस वक्त रहते हैं, वहां भी बोलने की आजादी के नाम पर कुछ भी कहने की आजादी नहीं है. बहुत से अमेरिकी पत्रकारों को अपने राष्ट्रपति की मौत की ख्वाहिश जताने पर नौकरी गंवानी पड़ी है. पिछले ही साल द लॉस एंजेलेस टाइम्स ने एक पत्रकार को इसलिए नौकरी से निकाला था क्योंकि उसने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ट्रंप की मौत की कामना की थी.

इस के बाद एलए टाइम्स की तरफ से एक बयान दिया गया, जिसमें प्रकाशन ने कहा कि हम निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारिता में यकीन रखते हैं. हमने राष्ट्रपति चुनाव में बहुत ही निष्पक्षता से रिपोर्टिंग की है. हम अपने साथ जुड़े पत्रकारों से भी यही उम्मीद रखते हैं. हमें लगता है कि स्टीवन बोरोविएक की सोशल मीडिया पोस्ट पत्रकारिता के पैमाने पर खरी नहीं उतरती, इसीलिए हम उनसे अपना रिश्ता खत्म कर रहे हैं.

इसी तरह सीएनएन ने कॉमे़डियन कैथी ग्रिफिन को नौकरी से निकाल दिया था. कैथी ने ट्रंप की बेहूदा तस्वीर के साथ एक सोशल मीडिया पोस्ट डाली थी. इसे खराब माना गया था.

यहां मसला गाली-गलौच नहीं है. बल्कि गाली-गलौच को लेकर दोहरा रवैया है. अब अगर गाली देना सही है, तो अभिव्यक्ति की आजादी वाले गैंग को किसी के भी गाली देने पर हंगामा नहीं करना चाहिए. और अगर उनके मुताबिक गाली-गलौच खराब बात है. तो फिर चाहे जो भी गाली दे, उसका विरोध होना चाहिए. निंदा होनी चाहिए.

लेकिन, यहां तो सुप्रतीक चटर्जी पर फूल बरसाए जा रहे हैं. उनकी बोलने की आजादी की वकालत की जा रही है. यही तरक्कीपसंद या लेफ्ट लिबरल जमात का दोहरा व्यवहार है. जब कोई दूसरा करे तो वो नफरत की बोली है, फासीवाद है. वहीं जब अपने खेमे का कोई शख्स हो तो, उसे मजाक, जवाब या विरोध कहकर टाल दिया जाए.

ऐसे लोगों का तो बस एक ही फॉर्मूला लगता है. तुम हमारे दोस्त हो तो तुम्हें हर हक हासिल है. और अगर तुम हमारे खेमे के नहीं हो, तो तुम्हें कोई अधिकार नहीं.