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क्यों कर रहे हैं कोटा में कोचिंग करने वाले स्टूडेंट्स सुसाइड!

कोटा आने वाले ज्यादातर बच्चों के माता-पिता उन्हें यहां भेजते ही भविष्य के डॉक्टर-इंजीनियर समझने लगते हैं

FP Staff

पवन भी कोटा के एक नामी कोचिंग संस्थान में आईआईटी की तैयारी कर रहा है. हमारी बातचीत के दौरान बार-बार उसका फोन रिंग करता है लेकिन वो उठाने की जगह उसे सायलेंट मोड पर डाल देता है. इस दौरान उसके चेहरे पर बढ़ता तनाव साफ-साफ दिखाई देता है. मैं जब उससे कहता हूं कि वो फोन उठा सकता है कोई दिक्कत नहीं है तो वो जवाब देता है कि आज कोचिंग नहीं गया तो घर से फोन आ रहा है, कोचिंग वालों ने घर पर मैसेज कर दिया होगा. मैं जब पूछता हूं क्यों नहीं गए? तो वो जवाब देता है कि रात में थोड़ा बुखार था तो मन नहीं हुआ...थोड़ा रुक कर फीकी सी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल जाती है और फिर वो कहता है- वैसे भी किसे फर्क पड़ता है कि मेरा मन क्या चाहता है...

कौन हैं कोटा के कातिल?


1. पैरेंटल प्रेशर और कोचिंग संस्थान

साल 2014 में बड़ी संख्या में हुई आत्महत्याओं के बाद हाईकोर्ट और जिला प्रशासन ने कोचिंग संस्थान, हॉस्टल, पीजी और मेस के लिए कई तरह की गाइडलाइंस जारी की थीं. साल 2015 में टाटा इंस्टीटयूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS) की प्रोफेसर सुजाता श्रीराम की अध्यक्षता में एक फैक्ट फाइंडिंग टीम बनाई जो इन आत्महत्याओं के पीछे की वजहों का पता लगा सके. इस टीम में चेतना दुग्गल, निखार राणावत और राजश्री फारिया भी शामिल थीं.

इस रिपोर्ट में जो सबसे बड़ी दो वजहें सामने आईं है वो मां-बाप की तरफ से मिलने वाले इमोशनल प्रेशर और बेहद दबाव भरी कोचिंग प्रैक्टिस हैं. इसके आलावा रहने-खाने से जुड़ी दिक्कतें और दबाव के चलते पनपे डिप्रेशन और ड्रग एडिक्शन को भी शामिल किया गया है.

सबसे पहले पैरेंटल प्रेशर की बात करें तो ये वजह किसी न किसी तरह से इन आत्महत्याओं में निकल कर सामने आती हैं. कोटा आने वाले ज्यादातर बच्चों के माता-पिता उन्हें यहां भेजते ही भविष्य के डॉक्टर-इंजीनियर समझने लगते हैं.

ज्यादातर कोचिंग संस्थान भी टॉपर्स फॉर्मूला पर काम करते हैं जहां महीने में दो बार टेस्ट होते हैं, अच्छा परफॉर्म करने वाले बच्चों को आगे बढ़ाया जाता है जबकि पीछे रहने वाले अक्सर पीछे छूटते जाते हैं. पीएमटी की कोचिंग कर रहा आदिल बताता है कि कोचिंग संस्थान हर एक रिजल्ट घरवालों को बताते हैं, एक दिन छुट्टी हो जाने पर भी घर मैसेज कर दिया जाता है. ऐसे में खराब परफॉर्म करने पर लगातार घरों से से फोन आते हैं और सवाल पूछे जाते हैं जिससे बच्चों पर प्रेशर बढ़ता जाता है.

इधर कोचिंग वाले परफॉरर्मेंस के आधार पर बैच बना देते हैं. बच्चों से बात करने पर पता चलता है कि सबसे ज्यादा नंबर लाने वाले बैच कम बच्चों के होते हैं और उन्हें संस्थान-फैकल्टी पूरी सुविधाएं मुहैया कराते हैं. इन बच्चों को संस्थान हॉस्टल मुहैया कराते हैं, फैकल्टीज इनके लिए हमेशा उपलब्ध रहती है और इन्हें अलग से क्लासेज भी दी जाती हैं. इसके बाद एवरेज बच्चों का बैच होता है जो कि 50 से 100 स्टूडेंट्स का होता है, सबसे कम नंबर वाले बच्चों का बैच 200 स्टूडेंट्स का भी होता है और यही वो बड़ी संख्या है जो धीरे-धीरे दबाव का शिकार होती जाती है.

आईआईटी की तैयारी कर रहा बिहार का पवन कुमार बताता है कि यहां आने वाले ज्यादातर बच्चे अपने-अपने स्कूलों या इलाकों के टॉपर्स होते हैं लेकिन यहां उन्हें बेहद कड़े कंपीटिशन का सामना करना होता है. कभी कभी यहां टॉपर और 10वें नंबर के बच्चे के बीच सिर्फ 10 मार्क्स का ही फासला होता है. ऐसा बच्चा खुद को टॉपर समझकर आता है लेकिन जब उसे सेकेंड या थर्ड बैच में भेज देते हैं तो वो डिप्रेशन का शिकार हो जाता है.

कोचिंग में भी वो हीनभावना से घिर जाता है और घरवालों को लगता है वो पढ़ाई नहीं कर रहा जबकि असल समस्या यहां मौजूद बेहद टफ कंपीटिशन है. उतनी सीट्स ही नहीं हैं आईआईटी-मेडिकल में की सबका एडमिशन हो जाए लेकिन जिसका नहीं होता वो इसका ब्लेम खुद को देने लगता है. आदिल ने भी पहले साल सफल न रहने के बाद कोचिंग इंस्टीटयूट इसलिए ही बदल दी थी कि आखिर वो इसका जवाब कैसे देगा कि उसका क्यों नहीं हुआ?

असल में कोचिंग का पूरा बिजनेस ही उन होर्डिंग्स और विज्ञापन के जरिए काम करता है जिस पर टॉप किए गए बच्चों की तस्वीरें मौजूद होती हैं. कोटा ऐसे होर्डिंग्स से भरा पड़ा है, यहां के अखबारों में रोज ऐसे टीचर्स के विज्ञापन छपते हैं जिन्होंने फलां कोचिंग के इतने बच्चों को पीएमटी या इंजीनियरिंग में टॉप करवा दिया. इन्हें देखकर ही बच्चे और उनके माता-पिता कोचिंग संस्थान चुनते हैं. ये कोचिंग संस्थान भी जानते हैं और इसलिए टॉप कर सकने वाले संभावित बच्चों को सुविधाएं मुहैया कराने में कोई कसर नहीं रखी जाती. क्यों कि आखिर में ये चेहरे ही उन्हें अगले साल का बिजनेस देने वाले हैं.

2. रिलेशनशिप और अट्रेक्शन

कोटा उन चुनिंदा छोटे शहरों में से है जहां आपको सड़कों, मॉल्स और चाय की दुकानों पर लड़के-लड़कियां हाथों में हाथ डालकर आराम से घूमते-फिरते नज़र आ जाएंगे. बीते दिनों कोटा पर Tiss की रिपोर्ट का हवाला देते हुए देश के एक बड़े अंग्रेजी अख़बार ने आत्महत्याओं के पीछे 'सेक्स' का एंगल भी शामिल किया था. रिपोर्ट तैयार करने वालीं प्रोफेसर सुजाता श्रीराम से बात करने पर पता चलता है कि असल रिपोर्ट में ऐसा कुछ नहीं है और उन्होंने उसकी जो एक्जीक्यूटिव समरी हमें भेजी उसमें भी इसका कोई जिक्र नहीं है.

हालांकि कई आत्महत्याओं में 'सेक्स' तो नहीं लेकिन रिलेशनशिप का एंगल जरूर देखने को मिलता है. कोटा में आईआईटी की तैयारी कर रहे पुणे के रहने वाले 17 साल के दर्शन मकरंद लोखंडे भी अपने एक दोस्त की कहानी सुनाते हैं. दर्शन बताते हैं कि उनका एक दोस्त है जिसकी इंटरनेट के जरिए एक गर्लफ्रेंड बन गई. इसके बाद लगातार वो उससे चैट करता रहा और इसी वजह से टेस्ट में कम मार्क्स आने लगे. ये बात घर पर पहुंची तो वहां से भी प्रेशर बढ़ने लगा और एग्जाम भी नजदीक आ गए. उसने जब लड़की से बात कम करना शुरू किया तो उसने भी प्रेशर डालना शुरू कर दिया. उसका डिप्रेशन बढ़ता देख कोचिंग वालों ने मां-बाप को फोन कर बुलाया. बाद में उसे घर वापस जाना पड़ा.

स्टूडेंट्स के रिलेशनशिप, ब्रेकअप की ऐसी हजारों कहानियां यहां बिखरी पड़ी हैं, हर स्टूडेंट आपको ऐसी कई कहानियां सुना सकता है. जवाहरनगर वो थाना है जहां सबसे ज्यादा सुइसाइड केस दर्ज होते हैं. यहां का एक सिपाही जो बीते सालों में कई बार सुइसाइड से जुड़े घटनास्थलों पर गया है नाम न लेने की शर्त पर बताता है- रिलेशनशिप एंगल भी बड़ी वजह है. इस उम्र के बच्चे घर, पढ़ाई और रिलेशनशिप के इस प्रेशर को झेल नहीं पाते. ज्यादातर मामलों में कोचिंग वालों को ही जिम्मेदार कह देते हैं लेकिन डिप्रेशन की वजह सिर्फ पढ़ाई नहीं होती. पीले दांतों वाली हंसी हंसते हुए सिपाही आगे कहता है- ऐसा भी जरूरी नहीं कि स्टूडेंट कोटा आकर ही इन चक्करों में पड़ा हो...आजकल स्कूलों में ही ये सब शुरू हो जाता है, इसके बाद इस कलयुग में क्या-क्या होता है ये तो आप भी जानते ही हैं...

3. ड्रग्स और नशा

कोटा आत्महत्याओं पर Tiss की रिपोर्ट में भी नशे की लत का जिक्र किया गया है. इसी 4 जनवरी को अपने कमरे से लापता हो गए बिहार के रहने वाले अनुराग भारती की कहानी डिप्रेशन और ड्रग्स से जुड़ी है. आत्महत्या के बाद जब पुलिस ने कमरे की तलाशी ली थी तो वहां से नशा करने से जुड़ा सामान बरामद हुआ. नारकोटिक्स कमिश्नर सही राम मीणा भी कोटा के स्टूडेंट्स के बीच ड्रग्स पॉपुलर होने की बात की तस्दीक करते हैं.

मीणा के मुताबिक ये इलाका ही अफीम की खेती का है और आत्महत्याओं के चलते ये नशे का अवैध व्यापार करने वालों के निशाने पर आ गई है. खुद मीणा इस बात को मानते हैं कि कोटा शहर में ड्रग्स काफी आसानी से उपलब्ध है और बच्चे इसका इस्तेमाल भी कर रहे हैं. कई आत्महत्याओं की छानबीन में सामने आया भी है कि डिप्रेशन और टेंशन से जूझने के लिए बच्चे शराब और ड्रग्स लेने लगे जिससे उनके रिजल्ट्स और खराब हो गए और आखिर में इसका नतीजा ऐसी घटनाओं के रूप में सामने आया.

3 साल 62 आत्महत्या और कुछ आखिरी खत...

- आई एम सॉरी पापा, आप बस छोटी के साथ ऐसा मत करना...

- पापा मैं डिजाइनर बनना चाहती थी, मैं अलग दुनिया बनाने के लिए आप को छोड़ जा रही हूं...

- सिलेबस पूरा नहीं कर पाया, टाइम वेस्ट करता हूं, हमेशा आज का काम कल पर छोड़ देता हूं , सॉरी

- इतने कम नंबर क्यों? मेरिट में आना है कि नहीं? आपको पूछना चाहिए था कि मैं कैसा हूं...

- पापा मैं इस टेंशन के साथ डॉक्टर नहीं बन सकता, मेरे बाद सारा सामान छोटे भाई को दे देना...

- मुझे खुद से ही नफरत हो गई है, पापा सॉरी. आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया...

- आपका बेटा साइंटिस्ट नहीं कवि बनना चाहता था...

- याद करके मत रोना, मैं अच्छा बेटा नहीं हूं...

यहां टॉपर्स खरीदे-बेचे जाते हैं!

कोटा में फैकल्टी और 'टॉपर्स पॉचिंग' बेहद आम बात है. इसे ऐसे समझिए कि कोचिंग संस्थान एक-दूसरे के टॉपर्स बैच पर नजर रखते हैं. ऐसे बच्चे जिनका स्कोर कोचिंग के दौरान या फिर बोर्ड्स के रिजल्ट में अच्छा होता है उनपर दांव खेला जाता है. उनके घरों का पता लगाकर माता-पिता को करोड़ों रुपए ऑफर किए जाते हैं. बच्चे को मुफ्त में पढ़ाया जाता है बाकि सुविधाएं भी दीं जाती है. संस्थानों में इस कम के लिए बाकायदा टीम बनी हुई हैं जो स्कूलों और अन्य कोचिंग संस्थानों पर नज़र रखती है उर ऐसे स्टूडेंट ढूंढ कर निकालती है. आईआईटी मेंस के नतीजों पर नजर रखी जाती है और एडवांस्ड से पहले स्टूडेंट्स की खूब खरीद-फरोख्त होती है.

इसी तरह फैकल्टी यानी टीचर्स की भी मंडी है कोटा. आपके पढ़ाए बच्चों ने टॉप किया तो बस आपकी सैलेरी लाखों-करोड़ों में पहुंच जाती है. बंसल से अलग होकर कुछ फैकल्टीज ने एलन बनाया था और इसी तरह बीते साल एलन से फैकल्टी ने अलग होकर सर्वोत्तम और न्यूक्लियस शुरू किया है. ऐसे ही टूट-टूट कर फैकल्टी इधर से उधर जाती रहती हैं या फिर अपना खुद का कोचिंग संस्थान शुरू कर देते हैं.

टॉपर्स की सफलता की इन कहानियों को सुन-पढ़कर बच्चे कोटा कोचिंग करने आ तो जाते हैं लेकिन बेहद कम लोग टॉप स्टूडेंट्स की श्रेणी में शामिल हो पाते हैं तो ऐसे में बच्चे हीनभावना से घिर जाते हैं.

(न्यूज18 हिंदी के लिए अंकित फ्रांसिस की रिपोर्ट)