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खिचड़ी और राष्ट्रगान : आखिर राष्ट्रीय पहचान के प्रतीकों पर इतना विवाद क्यों?

नई पीढ़ी के बीच राष्ट्रीय पहचान का इजहार करने वाली चीजें बहुत कम होती गई हैं शायद सोशल मीडिया पर किसी भी प्रतीक की इतनी मजबूत आलोचना होती है

Sreemoy Talukdar

बुधवार के रोज सोशल मीडिया पर खबर उड़ी कि नरेंद्र मोदी सरकार ‘नाचीज’ खिचड़ी को ‘नेशनल डिश’ बनाने जा रही है. बस फिर क्या था, देखते देखते सोशल मीडिया पर कहीं गर्मागर्म बहस चल पड़ी, कहीं व्यंग्य-बाणों की बौछार हुई तो कहीं चुटीली फब्तियां कसी गईं. कहीं गुस्से तो कहीं मजाकिया अंदाज में सियासी बड़ेबोलेपन के साथ लोगों को अपनी तरफ खिंचने का माहौल जारी हो गया.

खबर तो खैर झूठी निकली. खिचड़ी को नेशनल डिश घोषित करने जैसी सरकार की कोई योजना नहीं है. लेकिन झूठी खबर के फैलने और सरकार की ओर से स्पष्टीकरण जारी होने के दरम्यानी वक्त में खिचड़ी को नेशनल डिश बनाने के विचार के पक्ष-विपक्ष में लोगों की राय कुछ ऐसे फैली जैसे जंगल में आग फैलती है. हमलोग एक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत और इस देश की सभ्यता, संस्कृति तथा भौगोलिक एकता के इजहार के लिए कुछ प्रतीकों का इस्तेमाल करते हैं और ‘खिचड़ी’ पर चली चर्चा के बहाने इन प्रतीकों पर कुछ अहम सवाल उठाए गए.


केंद्रीय खाद्य-प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर ने बाद में स्पष्ट किया कि “दाल-चावल और मसालों को मिलाकर बनाई जाने वाली सहज-साधारण खिचड़ी को, जो देश में बहुतेरे लोगों की पसंदीदा है, विश्वस्तर पर लोकप्रिय बनाने की कोशिश की जाएगी क्योंकि यह विविधता में एकता की भारतीय संस्कृति की प्रतीक है.".

इस योजना के अंतर्गत मंत्रालय वर्ल्ड फूड इंडिया नाम से एक तीन दिनी आयोजन कर रहा है. आयोजन की शुरुआत शुक्रवार से होगी. इसमें 800 किलोग्राम खिचड़ी तैयार की जायेगी और इसे लगभग 60 हजार अनाथ बच्चों तथा आयोजन में शिरकत करने वाले मेहमानों और विदेश के प्रतिनिधियों के बीच बांटा जाएगा.

खिचड़ी को नेशनल डिश बनाने की खबर या तो पूर्वानुमान के आधार पर की गई रिपोर्टिंग के कारण फैली या फिर किसी से कहीं ना कहीं निष्कर्ष निकालने में चूक हुई. सोशल मीडिया के दौर में किसी खबर के प्रचलन से जुड़े मानक सिद्धांत को ध्यान में रखें तो कहा जा सकता है कि सच-झूठ के पता चलने और इसके अनुकूल लगाम कसे जाने से पहले ही कोई समाचार सायबर-संसार में अनगिनत चक्कर लगा चुका होता है.यहां दी गई लिंक पर क्लिक करके आप इसकी मिसाल खुद देख सकते हैं:

खिचड़ी को नेशनल डिश बनाने की खबर(झूठी) फैलने के बाद आई प्रतिक्रियाएं अपने मिजाज के लिहाज से बड़ी अहम हैं. कुछ लोगों, जैसे जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने इसमें सियासी मकसद सूंघ लिया. उन्होंने इसे राष्ट्रगान से जुड़े विवाद के साथ नत्थी करके देखा.

उमर अब्दुल्लाह ने अपने ट्वीट में लिखा कि जब भी कोई इसे(खिचड़ी) खाता नजर आए तो क्या हमें खड़ा होना होगा ? क्या सिनेमा देखने से पहले इसे (खिचड़ी) खाना जरूरी है ? क्या पसंद(खिचड़ी) ना आए तो इस नापसंद को राष्ट्रविरोधी माना जाएगा ?

सियासी तौर पर जो पक्ष-प्रतिपक्ष गढ़ा जाता है और ऐसा करने से जो मजबूरियां खड़ी होती हैं उनकी घेरेबंदी से पार जाते हुए कुछ लोगों ने ध्यान दिलाया कि भारत तो बहुत विशाल देश हैं, यहां ना जाने कितने किस्म के व्यंजन मिलते हैं, सो किसी एक भोजन को नेशनल डिश करार नहीं दिया जा सकता.

नेशनल डिश करार देने के लिए मटन बिरयानी, मटन कोशा(एक बंगाली व्यंजन), पराठा-बीफ और मोमोज से लेकर यखनी पुलाव, ढोकला तथा आलू परांठा तक के नाम सुझाए गए. ‘एक डिश के रूप में खिचड़ी इतनी सीधी-सपाट है इसे भारत में जारी व्यंजन की परंपरा का नुमाइंदा नहीं बनाया जा सकता’— इस आरोप के पीछे एक मान्यता छिपी हुई है. मान्यता यह कि किसी एक व्यंजन को ‘नेशनल डिश’ बताकर शासकीय मशीनरी के जरिए उसका प्रचार-प्रसार करने से भारत की विविधता में समायी समृद्धि की हानि होती है.

अब यह तर्क उस सोच से बहुत अलग नहीं है जिसकी लकीर पर चलकर ‘नेशनल डिश’ के विचार से ही इनकार करते हुए यह आशंका जाहिर की जाती है कि बीजेपी ने पहले ‘एक भाषा’(हिंदी) का प्रचार किया और अब एक ‘डिश’ का प्रचार कर रही है और ऐसा करके भारत की संस्कृतियों पर दबदबा कायम करना चाहती है, उसका इरादा भारत के विचार को ‘उत्तर भारतीय सवर्ण हिंदू’ परंपरा का पर्याय बनाने का है.

यह बात हमें बहस के मुख्य सवाल पर लाती है. खिचड़ी को नेशनल डिश क्यों नहीं घोषित किया जा सकता. आखिर बहुत बड़ी आबादी खिचड़ी खाती है, खिचड़ी हमारी साझा संस्कृति का हिस्सा है और एक ना एक रूप में भारत की हर व्यंजन-परंपरा में मौजूद है! आखिर खिचड़ी को नेशनल डिश बनाने के सुझाव मात्र पर इतनी हाय-तौबा किसलिए ?

शांतनु डेविड ने न्यूज 18 पर प्रकाशित एक लेख में कहा है कि “दरअसल खिचड़ी का एक रूप सामिष(मांसयुक्त) होता है. उत्तर भारत का अवधी खिचड़ा और दक्षिण भारत का हैदराबादी हलीम इसी श्रेणी में आते हैं . इनमें चावल की जगह गेहूं की खुद्दी का इस्तेमाल होता है और इन दोनों पर उस इस्लामी जीत की छाप देखी जा सकती है जिसकी शुरुआत देश में 10वीं सदी से हुई लेकिन खिचड़ी के असली रूप की भारतीय व्यंजन के रूप में मान्यता सिकंदर के जमाने से चली आ रही है. चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में पहुंचे यूनान के राजदूत मेगास्थिनिज ने चावल और दाल को मिलाकर बनाए जाने वाले एक आहार का जिक्र किया है जिसे देश भर में लोग चाव से खाते थे.'

मलार गांधी ने अपने ब्लॉग किचनतंत्र में लिखा है कि खिचड़ी 'पुराने जमाने से ही खेतिहर लोगों और ग्रामीण मजदूरों का आहार रही है. सेल्यूकस निकेटर(ईसापूर्व 358- ईसापूर्व 281) के यूनानी राजदूत ने लिखा है कि दक्षिण एशिया के लोगों में दाल-चावल का मिलवां भोजन खूब प्रचलित है.'

भारतीय उप-महाद्वीप में 2200 सालों से चली आ रही है खिचड़ी की परंपरा और इस परंपरा से हमारा जुड़ाव भी है, तो फिर खिचड़ी को ‘नेशनल डिश’ कहने में क्या बुराई है?

समस्या उठ खड़ी होती है सोच में समायी इस परेशानी से कि किसी एक परंपरा को अनिवार्य रूप से भारतीय परंपरा बताकर पेश किया जा रहा है जो कि एक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत की धारणा से मेल नहीं खाता क्योंकि भारत में विविधता इतनी ज्यादा है कि भौगोलिक एकता, औपनिवेशिक अतीत और सभ्यता का खास अनूठापन ना होता तो यह देश अपनी विविधताओं के जंगल में भटकर खो गया होता.

राष्ट्रगान या ‘हिंदी थोपने’ अथवा ‘नेशनल डिश’ को लेकर चलने वाली बहसें इस तथ्य की निशानदेही करती हैं कि बहुत से आधुनिक भारतीय लोगों को अपने ‘भारतीयपन’ की बस धुंधली सी धारणा है. राष्ट्रीय पहचान को जाहिर करने वाले प्रतीक बस गिनती के रह गए हैं और उनपर उप-राष्ट्रीयता, क्षेत्रीयता और यहां तक कि धार्मिक तथा सांस्कृतिक पहचानों की चोट पड़ रही है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी के विजय कुमार कौल ने अपने शोध-लेख इंडियाज डायवर्सिटी एंड ग्लोबलाइजेशन: यूनिफाइंग फोर्सेज एंड इनोवेशन में निल्स ब्रिमिज (ग्लोबलाइजेशन एंड इंडियन सिविलाइजेशन) के हवाले से लिखा है, 'भारतीय सभ्यता की कल्पना एक समरूप भाषायी इकाई के रूप में नहीं की जा सकती. यहां तक कि धर्म की कसौटी पर देखें तब भी भारत में ढेर सारे संप्रदाय, मत और पंथ प्रचलित हैं. भारतीय सभ्यता को आज के भारतीय संघ तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता, यह संघ तो हाल की एक भौगोलिक-राजनीतिक बनावट है.'

विभेद की एक रंग-रेखाएं अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से उजागर हो रही हैं क्योंकि देश की आजादी की लड़ाई हमारे लिए समय की धारा में एक भौगोलिक-राजनीतिक बनावट के तौर पर आपस में बंधकर रहने के लिहाज से एक मजबूत स्तंभ की तरह थी और आज हम उस स्तंभ से दूर जा रहे हैं.

यही वो एकमात्र याद है जो एक ढीले-ढाले से भूगोल में बंधे हमारे वजूद को राष्ट्र का रूप देती है और अलग-अलग संस्कृतियों और नस्लों के लोगों के बीच राष्ट्रीयता की भावना का संचार करती है. एक राष्ट्र-राज्य के रुप में आजाद भारत के उदय के शुरुआती दिनों में उत्तर-औपनिवेशिक भावनाएं उभार पर थीं लेकिन अब ये भावनाएं छीज रही हैं और राष्ट्रीय पहचान अन्य पहचानों के महासागर में डूबती जा रही है.

धीरे-धीरे और खासकर नई पीढ़ी(1987 से 1997 के बीच पैदा लोगों) के बीच राष्ट्रीय पहचान का इजहार करने वाली चीजें बहुत कम होती गई हैं. यह खेल या फिर मनोरंजन की चीजों तक सिमट आया है और राष्ट्रीयता की जाहिर होती भावनाएं बाकी क्षेत्रीय या सांस्कृतिक भावनाओं की तुलना में कमजोर भी हुई हैं. यही वजह है जो भारत को एकता के सूत्र में पिरोने वाला कोई प्रतीक पेश किया जाता है तो उसको लेकर इतना शोर-शराबा होता है, इतनी आवेग भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती हैं.